खबर लहरिया Blog मोटा अनाज कभी था किसानों के लिए वरदान और सेहत का राज

मोटा अनाज कभी था किसानों के लिए वरदान और सेहत का राज

मोहनपुर गांव के 80 वर्षीय किसान गोरेलाल उन पलों को याद करते हुए बताते हैं, “पहले हम लोग ज्वार-बाजरे की रोटी खाते थे। खेतों में दिनभर काम करने के बाद भी थकान नहीं होती थी। आजकल की गेहूं की फसल तो ज्यादा पानी मांगती है और मेहनत भी, पर उतनी ताकत नहीं देती।”

                                                                                                                      बाजरे की तस्वीर, जिसे मोटा अनाज में गिना जाता है

रिपोर्ट – गीता देवी, लेखन – सुचित्रा 

बुंदेलखंड की कृषि परंपरा सदियों से मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कोदो, रागी, और कुट्टू पर आधारित रही है। ये अनाज न केवल किसानों के लिए पौष्टिक आहार के रूप में काम करते थे, बल्कि उनके स्वस्थ जीवन और मजबूत शारीरिक शक्ति का राज भी थे। लेकिन बदलते वक्त और आधुनिक कृषि पद्धतियों के चलते अब ये अनाज धीरे-धीरे किसान की थाली से गायब हो रहे हैं, जिसका नतीजा उनके स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति पर नकारात्मक रूप में दिखाई दे रहा है।

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पारंपरिक खेती का महत्व

पहले के समय में बुंदेलखंड के किसान मोटे अनाज की फसलें बड़े पैमाने पर उगाते थे। इनमें ज्वार, बाजरा, कोदो, रागी, सावां, और कुटकी प्रमुख थे। किसानों के खानपान में इन अनाजों का प्रमुख स्थान था, जिससे उनका स्वास्थ्य अच्छा रहता था और वे कठिन परिश्रम के बाद भी थकान महसूस नहीं करते थे। मोटे अनाज में काफी मात्रा में पौष्टिकता के गुण है और इसकी खेती में कम सिंचाई की आवश्यकता होती है जो सूखा प्रभावित इलाकों के लिए काफी लाभदायक साबित होती थी।

मोहनपुर गांव के अस्सी वर्षीय किसान गोरेलाल उन पलों को याद करते हुए बताते हैं, “पहले हम लोग ज्वार-बाजरे की रोटी खाते थे। खेतों में दिनभर काम करने के बाद भी थकान नहीं होती थी। आजकल की गेहूं की फसल तो ज्यादा पानी मांगती है और मेहनत भी, पर उतनी ताकत नहीं देती।”

गांवों में पारंपरिक आहार का यह रूप जीवनशैली से जुड़ा था, जहां ज्वार-बाजरे की रोटी, बाजरे का दलिया, और कोदो का भात प्रमुखता से खाया जाता था। बुजुर्गों के अनुभवों में आज भी इन फसलों की खुशबू और स्वाद बसा हुआ है। उस समय के लोग 100 साल से भी अधिक जीते थे, और इसका मुख्य कारण उनका प्राकृतिक और पौष्टिक खानपान था।

खेती में आया बदलाव

20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी की शुरुआत में बुंदेलखंड के कृषि करने के तरीके में बड़ा बदलाव देखा गया। जैसे-जैसे देश के अन्य हिस्सों में उन्नत गेहूं और धान की किस्में तेजी से अपनाई जा रही थीं, बुंदेलखंड के किसानों ने भी इन्हें अपनी खेती में शामिल करना शुरू कर दिया। इन फसलों की सिंचाई और देखभाल के लिए किसानों ने बोरवेल और अन्य सिंचाई साधनों का सहारा लिया, जो पहले उनकी खेती में आवश्यक नहीं था।

पिपरा गांव पूर्व प्रधान बताते हैं कि उनकी उम्र लगभग 55 साल है। उनकी याददाश्त में भी उन्होंने बहुत कठिया गेहूं और ज्वार बाजरे की रोटी खाई है। वह बताते हैं कि अगहन से लेकर चैत तक सब लोग ज्वार और बाजरा की रोटी खाते थे और वैशाख से सावन-भादो तक बेर्रा (चना गेहूं रोटी) की रोटी खाते थे। उस समय कई त्यौहार आते थे या तो किसी के घर में कुछ कार्यक्रम होता था, रिश्तेदार आते थे या फिर जिस दिन सब गैरी (खपरा बनाने के लिए मिट्टी फुलाई जाती थी एक तरह का त्यौहार जैसा) के लिए जाते थे उस दिन गेहूं की बाली, रोटी और चावल बनता था। हम सब लोग बहुत खुश होते थे, खुशी के मारे फूले नहीं समाते थे। जिस किसान के यहां गैरी पड़ी जाती थी उसके यहां काम करने जाते थे ताकि उन्हें गेहूं की रोटी दाल और चावल खाने को मिले। गेहूं की रोटी को फुल्की बोलते थे और सब लोग प्यार से रहते थे, एक दूसरे का काम करवाते थे। आज ज्वार, बाजरा और चना-गेहूं के आटे को मिलाकर बनाई गई रोटी, बड़े शहरों के बड़े अमीर लोग खाते हैं जो इसका महत्व समझते हैं। जो जानते हैं कि मोटा अनाज कितना पौष्टिक होता है, पर जो इस अनाज को उगाते थे उन्होंने उगाना ही छोड़ दिया। खाना तो बहुत दूर की बात है। अब बुंदेलखंड के लोग भी चाइनीस खाना खाने लगे हैं। भले ही स्वास्थ खराब हो जाए लेकिन मोटा अनाज के बारे में नहीं सोचते।

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मोटे अनाज की रोटियों का महत्व

नरैनी कस्बे कि कमला कहती हैं कि, “मैं अपने ननिहाल जाया करती थी तो देखती थी कि मेरी नानी सर्दी भर ज्वार-बाजरे की रोटी ही बनाती थी। वो आटे में धीरे-धीरे पानी डालकर उसे गूथतीं और आटा तैयार कर लेने के बाद वो उसे छोटे-छोटे टुकड़े बना लेतीं थीं। इसके बाद वो उस आटे की लोइयों को दोनों हाथों की हथेलियों के बीच में रखकर धीरे-धीरे थापती थीं। चकला-बेलन के बिना वो दोनों हाथों की हथेलियों के बीच थाप-थाप कर गोल रोटियां तैयार कर लेतीं और फिर उसे मिट्टी के चूल्हे पर, लकड़ी की धीमी आंच पर सेंकती थी। वो चूल्हे के खाने का स्वाद आज भी मुझे याद है। पहले जो मोटा अनाज किसान उगाते थे और खाते थे, वह अनाज आज बड़े-बड़े शॉप में फैंसी तरीके से पैकेज होकर बिकने लगा है जिसको बड़े-बड़े लोग खरीद कर खाते हैं, पर किसान खुद न ही खाते हैं और न ही बोते हैं। हां, जब उस समय हर रोज वही रोटियां बनती थी और नानी मुझे रोटियां परोसती थीं, मैं अपनी नाक चढ़ा लेती थी। मुझे कभी समझ नहीं आता था कि आख़िर वो पतली, अधिक मुलायम और खाने में नरम रोटियों की जगह ज्वार-बाजरे जैसे मोटे अनाज की रोटी को इतनी तवज्जो क्यों देती हैं? लेकिन आज समझ आ रहा है कि मोटे अनाज की रोटियां का क्या महत्व होता था। क्यों लोग इतना तवज्जो देते थे जो हमारे पुराने बुजुर्ग थे।”

किसानों का कहना है कि, “पहले हमें इतनी सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन जब से उन्नत गेहूं और धान की खेती शुरू की, हमें बोरवेल और दूसरी सुविधाओं पर निर्भर होना पड़ा। इस बदलाव से हमारी फसलों की लागत बढ़ गई और हम कर्ज़ में डूबते चले गए।”

यह बदलाव किसानों के लिए आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का कारण बन गया। कम पानी में उगने वाले मोटे अनाजों की जगह अब अधिक पानी की जरूरत वाली फसलें ले रही थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि पारंपरिक खेती और फसलों की विविधता खत्म होती जा रही है। इसके साथ ही, जो बुंदेलखंड कभी दालों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था, वहां दलहन की खेती में भारी गिरावट आई है।

मोटे अनाज की वापसी की जरूरत

बुंदेलखंड में मोटे अनाज की खेती का महत्व आज पहले से भी अधिक है। जलवायु परिवर्तन और सूखा प्रभावित इलाकों में ये फसलें एक समाधान के रूप में देखी जा रही हैं। मोटे अनाज की पैदावार न केवल किसानों के लिए फायदेमंद है, बल्कि यह पोषण की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। बाजरा, रागी, ज्वार जैसे अनाज मधुमेह को नियंत्रित करने, कोलेस्ट्रॉल को घटाने और कैल्शियम, आयरन, और जिंक जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्वों की कमी को दूर करने में मददगार साबित हुए हैं।

हालांकि, अभी भी इस दिशा में कई कदम उठाए जाने की जरूरत है। बुंदेलखंड में किसानों को मोटे अनाज की ओर लौटने के लिए प्रोत्साहित करने वाली योजनाओं और बाजारों की पहुँच सुनिश्चित करनी होगी। किसानों के बीच जागरूकता फैलाने और मोटे अनाज की पौष्टिकता के प्रति समझ बढ़ाने की आवश्यकता है।

बुंदेलखंड के किसानों के लिए मोटे अनाज की खेती एक महत्वपूर्ण धरोहर है, जिसे समय के साथ पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन, सूखा, और कर्ज के बढ़ते बोझ के बीच मोटे अनाज किसानों के लिए एक नई उम्मीद की किरण बन सकते हैं। इनके पोषण और स्वास्थ्य संबंधी लाभों को समझते हुए, पारंपरिक खेती की ओर लौटना समय की मांग है।

 

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