महिलाओं को भूमि अधिकार दिलाने के लिए काम कर रही समाजसेवी संस्थाओं के लिए यह स्थापित करना जरूरी है कि लड़ाई पुरुषों से नहीं, पितृसत्ता से है।
परिवारों के भीतर, विशेष रूप से कृषि गतिविधियों से जुड़े परिवारों में, भूमि के विभाजन का भी विरोध होता है।
भेदभाव विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले समूहों से संबंधित महिलाओं या विधवाओं, अपने परिवार से अलग रहने वाली या परित्यक्त महिलाओं के मामले में बढ़ जाता है। रवि इस बात पर जोर देते हैं कि “पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं और उनका पालन करने वालों के पास इन महिलाओं के साथ जुड़ने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण, उपकरण, भाषा और संवेदनशीलता का अभाव है।” इसलिए, यहां पर पुरुषों (और महिलाओं) के बीच वास्तविक समानता का विचार विकसित किया जाना चाहिए। इसका मतलब है कि हाशिए पर रहने वाली महिलाओं की भूमि तक पहुंच बढ़ाने के लिए, कानूनों को लागू करने वाली संस्थाओं द्वारा अलग से प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
नागपुर में, प्रकृति सक्रिय रूप से उन पुरुषों के साथ जुड़ कर काम करती है जो व्यक्तिगत नुकसान की संभावनाओं के कारण महिलाओं के भूमि अधिकारों का कड़ा विरोध करते हैं। सुवर्णा बताती है कि “उन्हें इस बात का डर होता है कि हम उनसे उनकी भूमि छीन लेंगे और महिलाओं को दे देंगे। हमें उन्हें यह समझाना होगा कि हमारा इरादा ऐसा कुछ करने का बिल्कुल नहीं है।” परिवार के पुरुष सदस्य इसका महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सुवर्णा इस बात पर प्रकाश डालती हैं कि परिवारों के भीतर, विशेष रूप से कृषि गतिविधियों से जुड़े परिवारों में, भूमि के विभाजन का भी विरोध होता है। परिणामस्वरूप, महिलाओं के विरासत के अधिकार का विरोध किया जाता है। यह विधवाओं के लिए विशेष रूप से बुरा है। संयुक्त राष्ट्र का खाद्य और कृषि संगठन इस बात पर प्रकाश डालता है कि तलाकशुदा या विधवा होने की स्थिति में कई महिलाओं को अपने भूमि अधिकार खोने का जोखिम उठाना पड़ता है।
पुरुषों को शामिल करने के प्रभाव
प्रकृति ऊपर बताए गए सभी हितधारकों के साथ खुलकर बातचीत करती है और भूमि अधिकारों से जुड़ी चर्चाओं में पुरुषों को शामिल करती है। सुवर्णा का कहना है कि “कम से कम 20-30 फ़ीसद पुरुष हमारे साथ बैठकर अपने परिवार में महिला सदस्यों के भूमि अधिकारों और इससे उनकी आजीविका और आय पर पड़ने वाले प्रभावों पर बातचीत करने के लिए तैयार रहते हैं।” नागपुर में इनके कार्यक्रम के विस्तार के साथ, इन चर्चाओं में भाग लेने वाले पुरुषों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।
रवि इस बात पर जोर देते हैं कि यदि इन कार्यक्रमों की परिकल्पना और डिज़ाइन पुरुषों की उपस्थिति के साथ की जाती है तो इससे परिवर्तन एवं प्रभाव दोनों ही स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ेंगे। इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले पुरुष कठोर मानदंडों पर सवाल उठाते हैं और उन्हें चुनौती देते हैं। साथ ही, अपनी भागीदारी और प्रभाव को लेकर महत्वपूर्ण आत्म-विश्लेषण की प्रक्रिया भी शुरू कर देते हैं। पिछली क़तार में खड़े रहने वाली अपनी भूमिका से निकलकर ये सहयोग करने के तरीक़े ढूंढते हैं और परिवर्तन लाने वाली प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
रवि का कहना है कि “हमारे शोध के अनुसार इन कार्यक्रमों में भाग लेने वाले पुरुष, लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा और आर्थिक इच्छाओं का समर्थन करते हैं, बाल विवाह या कम उम्र में होने वाले विवाहों को रोकने में मदद करते हैं और हिंसा को रोकते हैं।” आईसीआरडब्ल्यू ने यह भी नोट किया है कि परिवर्तन प्रक्रिया को बनाए रखने के लिए, पुरुषों को सहायक सहकर्मी समूहों और महिला सशक्तिकरण रणनीतियों के साथ तालमेल स्थापित करने की आवश्यकता है।
चुनौतियों से निपटना
अपने काम के दौरान प्रकृति ने पाया है कि जब महिलाओं के भूमि अधिकारों की बात आती है तो भूमि के विभाजन का डर सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरता है। इस डर के पीछे उनकी यह चिंता होती है कि महिला परिवार के सदस्यों के बीच भूमि के बंटवारे से विखंडन की स्थिति पैदा होगी और ऐसा संभव है कि इससे भूमि जोत की उत्पादकता और आर्थिक व्यवहार्यता भी प्रभावित हो। परम्परागत रूप से भूमि से जुड़े सभी फ़ैसले लेने का अधिकार रखने वाले परिवार के पुरुष सदस्य कम कृषि उत्पादन और आर्थिक स्थिरता से जुड़ी आशंकाओं के कारण भूमि के विभाजन का विरोध कर सकते हैं।
“अगर परिवार के पास पांच से छह एकड़ भूमि होती है तो हम प्रयास करते हैं कि वे एक या आधी एकड़ ज़मीन महिलाओं को दे दें।”
प्रकृति ने निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल करने का प्रयास करके इस समस्या से निपटने का एक तरीका अपनाया है। सुवर्णा कहती हैं कि “अगर परिवार के पास पांच से छह एकड़ भूमि होती है तो हम प्रयास करते हैं कि वे एक या आधी एकड़ ज़मीन महिलाओं को दे दें, ताकि वे भूमि के उस टुकड़े पर अपनी इच्छा के अनुसार खेती कर सकें।” खेती से जुड़े कामों में महिलाओं की भूमिका को केवल श्रमिक होने तक न सीमित रख कर प्रकृति उन्हें कृषि से जुड़े मामलों के विभिन्न पहलुओं में सक्रिय रूप से शामिल करती है। साथ ही, यह सुनिश्चित करती है कि महिलाएं खेती से संबंधित वित्तीय मामलों में अधिक महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाएं।
रवि इसमें अपनी बात जोड़ते हुए कहते हैं कि “पुरुषों पर ध्यान केंद्रित करने वाली एक लिंग परिवर्तनकारी रणनीति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महिलाएं किसी भी चर्चा में खुले तौर पर भाग ले सकें या भूमि से जुड़ी निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग ले सकें। और ऐसा समानता और सम्मान की भावना के साथ और बिना किसी दबाव के किया जा सके।”
प्रकृति के सामने आने वाली चुनौतियों में से एक, पुरुषों द्वारा किया जाने वाला यह दावा है कि यदि उत्तराधिकार और भूमि अधिकार भारतीय कानून का हिस्सा हैं ही तो फिर बाहरी हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है। हालांकि जैसा कि सुवर्णा बताती हैं, ये तर्क कानून के कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियों को नजरअंदाज करते हैं। कभी-कभी, सही दस्तावेज उपलब्ध नहीं होते हैं और पटवारी और अन्य सरकारी अधिकारी सहयोग करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। ऐसी स्थिति में धीरे-धीरे व्यवहार परिवर्तन को बढ़ावा देना ही एकमात्र समाधान है।
महिलाओं के भूमि अधिकारों की खोज में पुरुषों को शामिल करने का महत्व साफ है। ऐसा करने का इरादा रखने वाले संगठनों को उन कार्यक्रमों में पुरुषों को शामिल करना चाहिए जो व्यक्तिगत परिवर्तन लाने में मददगार हों। रवि के अनुसार, इसे हासिल करने के लिए “लोगों में एक गहरी समझ पैदा करने की जरूरत होगी जो महिलाओं और पुरुषों दोनों के साथ जुड़ सके और लैंगिक मानकों को बनाने और मजबूत करने वाली वजहों पर काम कर सके।” इससे संगठनों को शक्ति असंतुलन को सही करने, सुरक्षित स्थान बनाने, लैंगिक समानता के फ़ायदों पर संवाद करने में सुविधा होगी। साथ ही, इससे मजबूत संस्थागत साझेदारी बनाने और उन पर विचार और कार्रवाई की एक परंपरा के लिए प्रतिबद्ध होने में मदद मिलेगी। यह सामूहिक रूप से सार्थक परिवर्तन लाने में योगदान कर सकता है।
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें।
वुमैनिटी फाउंडेशन द्वारा समर्थित यह लेख पहले आईडीआर पर प्रकाशित किया गया है।
सुवर्णा दामले प्रकृति की कार्यकारी निदेशक हैं। वह 1993 से ग्रामीण महिलाओं को सशक्त बनाने के कार्यक्रमों से जुड़ी हुई हैं। उन्होंने स्थानीय निर्णय लेने वाले निकायों में चुनी गई महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर काम किया है। सुवर्णा दक्षिण एशियाई महिला नेटवर्क से जुड़ी रही हैं और उन्हें 2012 में संसदीय अध्ययन पर राज्यसभा फ़ेलोशिप भी मिल चुका है।
रवि वर्मा एक सामाजिक वैज्ञानिक और सामाजिक जनसांख्यिकी और मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि वाले लिंग और पुरुषत्व के विशेषज्ञ हैं।उनके पास तीन दशकों से अधिक का अनुभव है और अभी वह अनुसंधान करने, तकनीकी सहायता प्रदान करने, क्षमता निर्माण और कई मुद्दों पर नीतिगत संवाद में भाग लेने में आईसीआरडब्ल्यू के प्रयासों का नेतृत्व करते हैं।रवि लिंग और स्वास्थ्य पर लैंसेट आयोग में आयुक्त के रूप में भी कार्य करते हैं और वूमेन लिफ्टहेल्थ और ग्लोबल हेल्थ 50/50 के बोर्ड में बैठते हैं।
यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’