खबर लहरिया Blog Marital Rape Exception: मैरिटल रेप को ‘रेप’ न मानने के लिए लड़ रही केंद्र सरकार, वैवाहिक संस्था की कथित पवित्रता का दिया जा रहा हवाला 

Marital Rape Exception: मैरिटल रेप को ‘रेप’ न मानने के लिए लड़ रही केंद्र सरकार, वैवाहिक संस्था की कथित पवित्रता का दिया जा रहा हवाला 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 63, अपवाद 2 (भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375, अपवाद 2) में वैवाहिक बलात्कार अपवाद (Marital Rape Exception) में कहा गया है कि ‘पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य करना, साथ ही अगर पत्नी 18 साल से कम उम्र की नहीं है तो उसे रेप यानी बलात्कार नहीं कहा जायेगा।’

                                                                                                          मैरिटल रेप की सांकेतिक तस्वीर (फोटो साभार – सोशल मीडिया)

“महिला शादीशुदा हो या नहीं, उसकी सहमति एक समान रहती है”- केंद्र ने मैरिटल रेप एक्सेप्शन/वैवाहिक बलात्कार अपवाद (Marital Rape Exception) के समर्थन में कहा जिसे लेकर उनके द्वारा 49 पन्नों का हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में पेश किया गया है। 

केंद्र का यह तर्क बेहद संकीर्ण और सीमित नज़र आता है क्योंकि सहमति मांगना, इसकी समझ, इसका अधिकार खासतौर से यौन संबंध के मामले में परिवेश,स्थान, लिंग,वर्ग,जाति, पहचान इत्यादि भूमिकाओं से गुज़रता है जिसे समाज ने गढ़ रखा है। जहां समाज का वैवाहिक संस्थान शादी के बाद किसी को यौन सुख/यौन संबंध बनाने के लिए सहमति पत्र देता है। यहां सहमति समाज की तरफ से होती है, किसी महिला या पुरुष की तरफ से नहीं जिन्हें शादी में साथ आने के लिए इज़ाज़त दी गई है यह बताते हुए कि इससे उन्हें समाज में स्वीकारा जाएगा। उनके द्वारा अब यौन क्रिया करना स्वीकार्य है। 

जब केंद्र की सरकार कहती है कि महिला की सहमति शादी से पहले और बाद में भी एक जैसी रहती है तो यह गलत है। शादी से पहले एक हद तक उसके पास मना करने का अधिकार रहता है लेकिन शादी के बाद बहुत से कारणों के वजह से नहीं, जिसकी चर्चा हमने ऊपर भी की है कि कौन, कहां से आ रहा है। 

पितृसत्तात्मक समाज में महिला को शुरू से यही सिखाया गया है कि उसे अपने पति को शादी की रात खुश रखना है और वहीं से यह तय होगा कि उसका आगे का जीवन, तथाकथित शादीशुदा जीवन कैसा होता है। यहां सहमति के लिए कोई जगह नहीं होती, बस एक रीति होती है समाज के वैवाहिक संस्थान द्वारा बनाई गई जहां शादी की रात यौन संबंध बनाने के लिए मना करना, शादी को मान्यता न देना समझा जाता है। 

इसे लेकर केंद्र ने भी बेहद दबाव देते हुए तर्क दिया कि, “यौन संबंध का पहलु पति और पत्नी के बीच संबंधों के कई पहलुओं में से एक है, जिस पर उनके विवाह की आधारशिला टिकी हुई है।” और यह आधारशीला शादी के पहले दिन से रखने की कोशिश की जाती है जहां जिस सहमति के एक जैसे होने की बात केंद्र करती है। यह एक जैसी नहीं होती बल्कि 

थोपी हुई होती है, डराकर! जहां सामाजिक रिश्तों और वैवाहिक बंधन को निभाने का भार महिला पर डाल दिया जाता है और यह भार उनकी जान ले लेता है, उनकी हत्या कर दी जाती है, सब शादी के पहलुओं को पूरा करने के नाम पर। 

10 फरवरी 2024 यूपी के हमीरपुर जिले में हुए मामले से हम इसे समझ सकते हैं। शादी की पहली रात पर कथित पति वैवाहिक संस्थान के पहलुओं और उससे जुड़ी आकांक्षाओं का लाभ लेते हुए अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाता है, मर्दानगी बढ़ाने वाली गोली को खाकर। वह उसके साथ अमानवीयता के साथ, हिंसक होकर यौन संबंध बनाता है। पत्नी मना करती है, यहां उसकी सहमति नहीं है लेकिन वह उसकी मर्ज़ी के बिना उसके साथ यौन क्रिया ज़ारी रखता है। 

अंततः, यौनिक, शारीरिक व मानसिक हिंसा से उसके शरीर को पहुंची गहरी चोट के बाद उसकी मौत हो जाती है। उसकी हत्या कर दी जाती है, जिसे न तो हत्या कहा गया और न ही मैरिटल रेप। यह हिंसा,यह हिम्मत, पत्नी के मना करने के बाद भी उसके साथ ज़बरदस्ती यौन हिंसा करते हुए संबंध बनाना, यह सब उसे वैवाहिक संस्थान द्वारा गठित धारणा से मिलती है। वह संस्थान जो पति को खुश रखने और सबसे आगे रखने की बात करता है क्योंकि इसे ही एक अच्छे वैवाहिक रिश्ते के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। और शायद संस्थान के इस ‘अच्छेपन’ को बरकरार रखने के लिए ही मैरिटल रेप को रेप नहीं कहा जा रहा बल्कि उसके खिलाफ लड़ा जा रहा है यह कहते हुए कि महिलाओं के पास अन्य बहुत से अधिकार है हिंसाओं से बचने के लिए। जैसे – रेप या घरेलू हिंसा को लेकर। 

केंद्र का कहना है कि विवाह में “पति/पत्नी में से किसी एक द्वारा, दूसरे से उचित यौन पहुंच प्राप्त करने की निरंतर अपेक्षाएं मौजूद रहती हैं”। दूसरे वाक्य में वह अपने बयान का बचाव करते हुए यह भी कहती है कि, “अपेक्षाएँ पति को अपनी पत्नी से उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर करने का अधिकार नहीं देती हैं।”

केंद्र का यह बयान पढ़कर लगता है कि इसे बस कहने के लिए कह दिया गया है पर इसका कोई आधार नहीं है। 

एक तरफ उसका यह कहना है कि शादी से निरंतर यौन संबंध बनाने के लिए इच्छा रहना साधारण है। दूसरी तरफ वह अधिकार और सहमति की बात करता है जिसे लेकर कभी भी वैवाहिक संस्थान में यह नहीं कहा गया कि अगर पत्नी यौन संबंध नहीं बनाना चाहती, तो उसे मना करने का, अपनी असहमति रखने की एक जगह उसके लिए होगी। मूलतः, जो शादी में उसके पास नहीं रहती। क्यों, क्योंकि यह शादी को बनाये रखने वाले कई पहलुओं में से एक है। बेशक, इसमें पत्नी की हत्या कर दी जाए लेकिन इसके बाद भी इसे मैरिटल रेप नहीं कहा जाएगा क्योंकि वैवाहिक संस्थान शादी के ज़रिए यौन संबंध बनाने और इसके लिए लगातार अपेक्षाएं रखने का अधिकार देती है। वह अधिकार जिसे समाज का एक व्यापक तबका मानता है। 

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 63, अपवाद 2 (भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375, अपवाद 2) में वैवाहिक बलात्कार अपवाद (Marital Rape Exception) में कहा गया है कि ‘पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध या यौन कृत्य करना, साथ ही अगर पत्नी 18 साल से कम उम्र की नहीं है तो उसे रेप यानी बलात्कार नहीं कहा जायेगा।’

इस बयान में तो कहीं यौन क्रिया को लेकर किसी व्यक्ति की सहमति नज़र नहीं आ रही है पर हाँ, वैवाहिक संस्थान की ज़रूर से है जो पितृसत्ता वाले समाज से जन्मा है। वह समाज और विचारधारा जो यौन संबंध बनाने के लिए व्यक्ति को पति-पत्नी के सेर्टिफिकेट के रूप में मान्य किये गए हैं। 

ये भी पढ़ें – सत्ता व हिंसा: सत्ता किस तरह से करती है हिंसा के मामलों को प्रभावित? पढ़ें ग्रामीण रिपोर्ट 

क्या मैरिटल रेप सिर्फ एक सामाजिक मुद्दा है?

‘केंद्र का कहना है कि मैरिटल रेप एक सामाजिक मुद्दा है। यह कानूनी मुद्दा नहीं है इसलिए यह अदालत के अधिकार के क्षेत्र में नहीं है।’ 

लेकिन जब शादी के बाद वैवाहिक संस्थान को आधार बना महिला के साथ हिंसा करते हुए यौन संबंध बनाया जाता है, उसे पीटा जाता है, उसकी गरिमा व इज़्ज़त को चोट पहुंचाई जाती है तो क्या यह सिर्फ एक सामाजिक मुद्दा रह जाता है? क्या यह समाज में एक व्यक्ति की सुरक्षा और उसके जीवन पर खतरे का सवाल नहीं है? क्या फिर भी कहा जाएगा कि इसे कानूनी मुद्दे में नहीं गिना सकता। 

संविधान से प्राप्त मौलिक अधिकार भी एक व्यक्ति को गरिमा के साथ स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार देता है फिर वैवाहिक संस्थान को केवल एक सामाजिक क्षेत्र बना, महिला से उसके अधिकारों को क्यों छीना जा रहा है? रेप को रेप क्यों नहीं कहा जा रहा?

केंद्र ने यह भी तर्क दिया कि याचिकाकर्ताओं की यह “गलत धारणा” है थी कि विवाह “केवल एक निजी संस्था” है।

अगर यह निजी संस्था नहीं है और अगर एक महिला के साथ विवाह के नाम पर हिंसा की जा रही है तो इसका दोषी तो सबको कहा जाना चाहिए न? 

खबर लहरिया की रिपोर्ट के अनुसार, 26 जनवरी 2024 को यूपी के हमीरपुर जिले से एक मामला सामने आया था जिसमें कथित पति अपनी पत्नी के साथ शादी की संस्था को आधार बना रोज़ ज़बरदस्ती यौनिक व शारीरिक हिंसा करता था। हिंसा से परेशान होकर पत्नी ने पति के प्राइवेट पार्ट को दांत से काट दिया। उसने कहा,

“मेरे साथ रोज़ ज़ोर-ज़बरदस्ती करता है। जब उसने मेरे मुंह में डाला तो मैंने काट लिया। अपनी जान बचाने के लिए इंसान कुछ भी कर सकता है।”

और इसके बाद हिंसा का मुकदमा पत्नी पर हुआ, पति पर नहीं। यह आधार बनाकर कि पत्नी ने उसके प्राइवेट पार्ट को काटा है पर यह नहीं देखा गया कि वह सुरक्षा में उठाया गया एक कदम था। पति के खिलाफ कोई मामला दर्ज़ नहीं हुआ, यह जानते हुए भी कि वह अपनी पत्नी के साथ बिना उसकी सहमति के यौनिक संबंध बना रहा था, और उसे शारीरिक तौर पर चोट पहुंचा रहा था। ऐसे मामले मौजूद होने के बावजूद भी….. 

केंद्र कहती है कि अगर वह मैरिटल रेप को अपराध के रूप में मान्यता देती है तो तथाकथित विवाह की संस्था की कथित रूप से पवित्रता प्रभावित हो जायेगी। 

क्योंकि अगर महिलाएं यौन जैसी हिंसाओं के खिलाफ आवाज़ उठाएंगी तो वैवाहिक संस्था की नीवं हिल जायेगी जो शादी के ज़रिये यौन सुख प्राप्त करने की मान्यता देती है। जिन्हें चुप कराकर यह संस्थाएं खुद को हमेशा बचाती रहती हैं। 

कानून और समाज, दोनों ही व्यक्ति के जीवन से जुड़े हुए हैं। किस हद तक यह नहीं कहा जा सकता लेकिन अगर किसी सामाजिक संस्था की रीति या विचार से हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है और उसे खत्म करने की मांग की जा रही है तो यह कानूनी मुद्दा कैसे नहीं है? 

अगर केंद्र को यह डर है कि मैरिटल रेप को मान्यता देने से झूठे आरोप लगेंगे लेकिन गलत-सही की संभावना आखिर कहां नहीं है। वह मौजूदा और क्रियाशील, हर कानून में है और उसे सुधारने के लिए उसमें जगह भी रखी गई है। केंद्र को यह समझने की ज़रूरत है कि यह मुद्दा, अदालत के अधिकार क्षेत्र का है। महिलाओं के जीवन से जुड़ा हुआ है और उन्हें इसके लिए विचार करना होगा। वह केवल समाज की वैवाहिक संस्था को बचाने और उसकी कथित पवित्रता को सुरक्षित रखने की ओर नहीं देख सकती जिसमें महिला के जीवन को गूथा गया है और बताया गया है कि उन्हें कैसे और किसके साथ, किस तरह से जीवन जीना है।  

 

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