तेंदू पत्ता खासकर घने जंगलों और आदिवासी क्षेत्रों में पाया जाता है। जहां पर आदिवासी महिलाओं के लिए तेंदूपत्ता आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है क्योंकि तेंदू पत्ता तोड़ने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। तेंदू पत्ता तोड़ कर इक्ट्ठा करना खासकर महिलाओं का काम माना जाता है। महिलाएं अपने परिवारों को चलाने के लिए और आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए लिए तेंदू पत्ता तोड़ने सुबह से ही इस तरह की गर्मी में जंगल निकल जाती हैं। इतना ही नहीं। तेंदू पत्तों को तोड कर सुखाना, बंडल बनाना और फिर बेचना या बीड़ी बनाने का काम भी ज्यादातर महिलाओं द्वारा ही किया जाता है।
रिपोर्ट – श्यामकली, लेखन – गीता
उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में स्थित कुल्पहाड कस्बा में भूमिहीन मजदूर परिवारों की महिलाएं भी अपनी रोजमर्रा कि जरूरतों को पूरा करने और आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए तेंदूपत्ता तोड़ने और बीड़ी बनाने का काम करती हैं। ये उनका एक तरह से पारंपरिक रोजगार है। बीड़ी बनाने में सूखी तम्बाकू के पत्तों और तेंदू के पत्तों का उपयोग किया जाता है। इसके लिए इस समय तपती गर्मी में महिलाएं सुबह से तेंदूपत्ता तोड़ने के लिए जंगल जाती है ताकि तेंदूपत्ता तोड़कर इक्ट्ठा कर लें।
भगवती कहती है कि सुबह 4:00 जग कर घर का झाड़ू बर्तन किया। इसके बाद जो रात का बना खाना रखा हुआ वो लिया और निकल गये तेंदूपत्ता तोड़ने के लिए जंगल की ओर। जंगल दूर है इसलिए बस स्टॉप से टेंपो में बैठकर लगभग 8 किलोमीटर सूपा और लाडपुर के बीच में जंगल जाने के लिए उतरते हैं। वहां से सालाट जंगल लगभग ढाई किलोमीटर पैदल जाते हैं।
शरीर को कांटों से बचाने के लिए साड़ी के ऊपर से पैंट शर्ट या लोवर टी शर्ट जो पुरुषों की ड्रेस है। उसे पहनते हैं चप्पल चेंज करते हैं जिससे पैरों में कांटा न लगे और जंगल में पत्ती तोड़ने के लिए घुस जाते हैं।
गुलाब रानी बताती है तेंदू पत्ता उन महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण आय का स्रोत है जो उन्हें और उनके परिवारों को गरीबी से बाहर निकालने में मदद करता है जिससे उनका आत्मविश्वास भी बढ़ता है और पूरा साल घर में बैठे-बैठे बीड़ी बनाएंगी जिससे उनका घर खर्च चलेगा। किसी से पैसे मांगने के लिए हांथ नहीं फैलाना पड़ेगा। इसलिए वह अपना काम भी करती हैं और घर भी देखती हैं।
गुलाब रानी बताती है की 12:00 बजे तक पत्ती तोड़ते हैं फिर वह लोग घर आ जाते हैं। जंगल से लाई हुई तेंदू के पत्ती की गाड़ी बनाते हैं और छांटकर फिर गाड़ियों को धूप में सुखवाते हैं। चार से पांच दिन तक धूप में जब अच्छी तरह से सूख जाती हैं तो उनको बोरियों में भरकर रख देते हैं। जब बीड़ी बनाना होता है तो उन पत्तों को निकाल कर पानी में भीगो लेते हैं। फिर तंबाकू भरकर तेंदुपत्तों में बीड़ी बनाते हैं।
शहीदन कहती हैं कि सुबह से दोपहर तक झके-झुके तेंदूपत्ता तोड़ने में हालत खराब हो जाती है। ऐसे लगता है कि उनकी कमर नहीं रहे गई लेकिन क्या करें पेट की भूख और परिवार के प्रति जिम्मेदारी और बच्चों का भरण-पोषण कठिन से कठिन काम करवा लेता है। शहीदन बताती है कि तेंदूपत्ता तोड़ना मुश्किल पड़ जाता है एक तो जंगल होता है अधिककाँटा खूंटी होती हैं लेकिन किसी तरह से बच-बचाकर तोड़ते हैं। दूसरा जंगल विभाग वाले मिल गये तो मना भी करते हैं। जंगल से मेन रोड़ तक ढाई किलोमीटर तक सिर में पत्ती की पुटकी रखकर पैदल आना पड़ता है। तब कही ऑटो रिक्शा मिलते हैं घर आने के लिए हैं।
तेंदू पत्ता तोड़ना एक बहुत ही जटिल और जान को जोखिम में डालने वाली प्रक्रिया है। महिलाओं को हमेशा इस तरह कि कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। जैसे जंगल जाने के लिए लंबी दूरी तय करना, गर्मी और बारिश में काम करना और जंगली जानवरों के खतरे का शिकार होना या फिर जंगल में शोषण और सामाजिक भेदभाव का शिकार होना। इस तरह की ख़बरें आये दिन अखबारों में देखने और पढ़ने को मिलती है लेकिन फिर भी बेरोजगारी इतनी है कि दिक्कतें होने के बावजूद भी महिलाएं इस काम को करती हैं। भगवती कहती हैं कि तेंदू पत्ता महिलाओं के जीवन और आजीविका दोनों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन्हें कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ता है लेकिन वो अपने जीवन और अपने परिवार कि आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने के लिए इस काम को करती हैं।
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