महाकुंभ नगर में मात्र दो दिनों (27- 28 जनवरी) के भीतर 12.5 करोड़ से अधिक लोग संगम नहाने के लिए पहुंचे। यह संख्या उत्तर प्रदेश की आधी आबादी के बराबर है। क्या यह नगर इतने बड़े जनसैलाब को एक सीमित जमीन में संभालने और ठहराने के लिए वास्तव में तैयार था? प्रशासन हर बार कहता है कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम थे फिर भी भगदड़ हो गई। अगर पुख्ता इंतजाम थे तो लोग मरे कैसे? क्या भीड़ नियंत्रण के लिए सही व्यवस्था थी?
द्वारा लिखित – मीरा देवी (प्रबंध संपादक)
भीड़ जुटाने की राजनीति और भीड़ को संभालने की नाकामी, दोनों मिलकर हर कुंभ, हर धार्मिक आयोजन को मौत का मैदान बना देते हैं। फिर सरकार कहेगी कि हमने सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए थे। प्रशासन कहेगा कि भगदड़ अचानक हुई, और जनता? जनता रोएगी, चिल्लाएगी लेकिन अगले ही मौके पर फिर से उसी भीड़ का हिस्सा बन जाएगी।
इतिहास उठा लीजिए। 1954 में प्रयागराज (इलाहाबाद) में आयोजित कुंभ मेले के दौरान मौनी अमावस्या के दिन भगदड़ मचने से लगभग 800 लोगों की मौत हुई थी। यह आज़ाद भारत का पहला कुंभ मेला था जो एक भयानक त्रासदी में बदल गया। 2013 में फिर से प्रयागराज में कुंभ मेले के दौरान भगदड़ मची, जिसमें कई लोगों की जान गई। जहां भीड़ होती है, वहां भगदड़ होती है। इस बार भी महाकुम्भ मेला 2025 में लगातार दो बार भगदड़ और कई बार आग लग चुकी है। यह सब सात हज़ार पांच सौ करोड़ रूपये के बजट और विश्व स्तर प्रबंधन के वादों के बावजूद भी हुआ है।
सवाल यह नहीं कि भगदड़ क्यों हुई। सवाल यह है कि इतनी भीड़ जुटाने की नौबत क्यों आई? यह भीड़ आई कैसे और इसे बुलाने वाले कौन थे? हर बार धार्मिक आयोजनों को इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि मानो अगर कोई इसमें शामिल नहीं हुआ तो जीवन का सबसे बड़ा अवसर खो देगा। जैसे इस बार ही देख लो जहां कहा गया कि 144 साल बाद ऐसा संयोग आया है, संगम में डुबकी लगाने से सारे पाप धुल जाएंगे, विशेष मुहूर्त में स्नान करने से मोक्ष मिलेगा।
अगर लोग खुद से आए होते तो इसे आस्था कहा जाता लेकिन जब प्रचार तंत्र उन्हें खींच लाता है। जब मीडिया इसे चमत्कारी घटना बताकर सनसनी बनाता है। जब राजनीतिक दल इसमें अपनी मौजूदगी दिखाने के लिए लाखों-करोड़ों खर्च करते हैं। तब यह आस्था नहीं बल्कि भीड़ को हथियार बनाना है। इस भीड़ में कौन है? गरीब, किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी और वे लोग जिनकी जिंदगी तकलीफों से भरी हुई है। इन लोगों के पास खोने के लिए कुछ नहीं लेकिन पाने के लिए बहुत कुछ है। जैसे स्वर्ग का सपना, मोक्ष की लालसा और पापमुक्ति का लालच।
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महाकुंभ नगर में मात्र दो दिनों (27- 28 जनवरी) के भीतर 12.5 करोड़ से अधिक लोग संगम नहाने के लिए पहुंचे। यह संख्या उत्तर प्रदेश की आधी आबादी के बराबर है। क्या यह नगर इतने बड़े जनसैलाब को एक सीमित जमीन में संभालने और ठहराने के लिए वास्तव में तैयार था? प्रशासन हर बार कहता है कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम थे फिर भी भगदड़ हो गई। अगर पुख्ता इंतजाम थे तो लोग मरे कैसे? क्या भीड़ नियंत्रण के लिए सही व्यवस्था थी? क्या पुलिस और प्रशासन को अंदाजा था कि कितने लोग आएंगे?अगर अंदाजा था तो क्यों पर्याप्त रास्ते और सुविधाएं नहीं दी गईं? अगर यह सच में अनहोनी थी, तो हर कुंभ में ऐसा क्यों होता है? हर बार एक ही स्क्रिप्ट चलती है। हादसा होता है, मुआवजा घोषित होता है, जांच के आदेश दिए जाते हैं और फिर मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है।
धर्म में ऐसा माना जाता है कि सभी समान हैं लेकिन कुंभ में क्यों नहीं? कुंभ में दो तरह के लोग होते हैं। एक वीआईपी जिनके लिए अलग स्नान घाट बनाए जाते हैं, जिनके लिए सुरक्षा घेरा होता है, जिनके लिए हेलीकॉप्टर से फूल बरसाए जाते हैं। और दूसरे आम लोग, जो घंटों लाइन में खड़े रहते हैं, धक्के खाते हैं और अंत में भगदड़ का शिकार हो जाते हैं। सवाल यह है कि अगर कुंभ सबका है तो यह भेदभाव क्यों? जब सब एक ही आस्था से जुड़े हैं, तो सुविधाएं भी एक जैसी क्यों नहीं?
मीडिया इस खेल में एक अहम किरदार निभाता है। टीवी चैनलों पर महाकुंभ का लाइव प्रसारण, अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन, सोशल मीडिया पर सनसनीखेज पोस्ट। सबकुछ इस तरह तैयार किया जाता है कि लोग यह मान लें कि अगर वे इस कुंभ में शामिल नहीं हुए तो उन्होंने जीवन का सबसे बड़ा अवसर गंवा दिया लेकिन क्या मीडिया ने कभी यह बताया कि हर कुंभ में हजारों लोग मरते हैं? सुरक्षा व्यवस्था कितनी कमजोर होती है?वीआईपी और आम आदमी के बीच कितना बड़ा फर्क रखा जाता है? कुंभ के बाद त्रिवेणी संगम का पानी कितना गंदा हो जाता है?
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कुंभ में लोग क्यों जाते हैं? आस्था के लिए, पुण्य के लिए, मोक्ष के लिए। लेकिन क्या वे जानते हैं कि वहां जाकर वे पुण्य नहीं, बल्कि पाप कमा रहे हैं? नदियों को गंदा करना क्या पाप नहीं है? अन्य श्रद्धालुओं को धक्का देना भी तो पाप है। मौत के मंजर का हिस्सा बनना क्या पाप नहीं है? मतलब कि जो पाप धुलने गए थे वे सौ गुना पाप करके लौटते हैं। गंगा और यमुना को इतना गंदा कर देते हैं कि पानी पीने लायक नहीं बचता। अगर गंगा में नहाने से पाप धुलते तो आज गंगा इतनी प्रदूषित नहीं होती। डाउन टू अर्थ नाम की वेबसाइट ने अपने आर्टिकल में लिखा है की भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी अमिताभ ठाकुर द्वारा राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (NGT) में दायर की गई याचिका ने गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता को लेकर चिंता जताई है। याचिका में यह तर्क दिया गया है कि उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (UPPCB) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने इस मामले से संबंधित कोई जानकारी अपलोड नहीं की है। इस साल महाकुंभ में हजारों श्रद्धालु प्रतिदिन नदी में स्नान करेंगे, जिससे नदी पुनरुद्धार और संरक्षण प्रयासों पर दबाव बढ़ेगा। तो फिर यह कैसे ग्रीन कुम्भ हो सकता है.
राजनीतिक दलों के लिए कुंभ सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि वोट बैंक तैयार करने का जरिया है। हर पार्टी इसे अपने हिसाब से भुनाती है। सरकार आयोजन में अपनी ताकत दिखाती है। साधु संतों और धर्मगुरुओं को खुश किया जाता है। आस्था के नाम पर लोगों को जोड़ा जाता है लेकिन जब भगदड़ होती है तो वही नेता और अधिकारी अचानक गायब हो जाते हैं। जिम्मेदारी किसी पर नहीं आती। मुआवजा देकर लोगों की मौत की कीमत तय कर दी जाती है।
हर कुंभ के बाद यही सवाल उठता है कि अब आगे क्या होगा? क्या अगली बार भगदड़ नहीं होगी? क्या लोग सबक लेंगे? क्या सरकारें बेहतर प्रबंधन करेंगी? जवाब आसान है कि कुछ नहीं बदलेगा। अगली बार फिर भीड़ जुटेगी। फिर भगदड़ मचेगी। फिर लोग मरेंगे। फिर जांच के आदेश दिए जाएंगे। फिर सब भूल जाएंगे। जब तक लोग खुद नहीं समझेंगे, जब तक सरकारें अपनी जवाबदेही नहीं समझेंगी। जब तक धर्म को व्यापार और राजनीति का हथियार बनाया जाता रहेगा तब तक कुछ नहीं बदलेगा। फिर भी हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हालात बेहतर हो सकते हैं. अगर लोग सचेत हों, अगर व्यवस्था ईमानदार हो, अगर आस्था को जवाबदेही के साथ जोड़ा जाए। उम्मीद ही बदलाव की पहली शर्त है।
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