समाज में बेटी को बोझ समझा जाता है क्योंकि जिनके घर बेटियां पैदा होती है उन मां-बाप को उनके पैदा होने से लेकर शादी तक का इंतजाम करना होता है। इतना ही नहीं सारी जिंदगी शादी के बाद भी मां-बाप ज़िन्दगी भर उनकी ज़िम्मेदारी का बोझ उठाते रहते हैं। मां-बाप हमेशा कहते हैं, बेटी के हाथ पीले हो जाएं बस जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएंगे लेकिन कहां खत्म होती हैं बेटियों की ज़िम्मेदारी? सामान्य परिवार के लोग किस तरह बेटियों की शादी के फ़र्ज़ से अदा होते हैं? कैसे दहेज़ के लिए वो बेटी के जन्म से पाई-पाई जमा करते हैं?
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बेटी के ससुराल वालों की मुंहमांगी जरूरतें पूरी करते हैं, उसके बाद भी जिम्मेदारी खत्म नहीं होती। अब शादी के बाद भी ससुराल में कार्यक्रम आयोजित होते हैं। उसमें भी बेटी के मायके वाले सामान लेकर जाते हैं। बेटी का बच्चा हुआ तब भी लेकर जाना है बहुत सारा समान, कपड़े, गहने इत्यादि। यहां तक अगर लड़की विधवा हो गई तो सुहाग उतरने के रस्म भी मायके से ही जाता है।
उसके बाद भी ससुराल वाले ताने देते हैं कि दिया ही क्या है। फकीर है उनकी औकात ही क्या है। मांगते रहते हैं खुद सारी जिंदगी और औकात पत्नी-बहूं की दिखाते हैं।
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