खबर लहरिया Blog जानकारी, प्राधिकरणों की कमी और धनाभाव : क्यों कैंसर पीड़ित महिलाएं हो रहीं ज्यादा प्रभावित

जानकारी, प्राधिकरणों की कमी और धनाभाव : क्यों कैंसर पीड़ित महिलाएं हो रहीं ज्यादा प्रभावित

भारत में स्तन कैंसर भारतीय महिलाओं में सबसे आम (26%) कैंसर है, जिससे हर साल लगभग 200,000 महिलाएं प्रभावित होती हैं।भारत में स्तन कैंसर न केवल एडवांस स्टेज में पता चलता हैं बल्कि इनका पूर्वानुमान भी बहुत खराब है। जबकि स्तन कैंसर के मामले में पश्चिमी देशों जैसे यूएसए, स्वीडन, जापान और ऑस्ट्रेलिया में पीड़ितों की औसत पांच साल की उत्तरजीविता दर 80-90% है।  एशियाई देशों – चीन, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और तुर्की में यह दर 76-82% है, जबकि भारत में यह दर केवल 52% है।

कैप्शन: दो से अधिक वर्षों के इलाज के बाद, अमृता सिंह (34वर्ष) को बताया गया कि उनका स्तन कैंसर अब अंतिम चरण में है और उन्हें अपने बचे हुए दिन अपने परिवार के साथ बिताने चाहिए। फोटो क्रेडिट: अफज़ल अदीब खान

स्वागता यादवार

अनुवादक: श्रृंखला पाण्डेय

यह आलेख पुलित्जर केंद्र द्वारा समर्थित है।

मुंबई: मैं जब पहली बार अमृता सिंह से मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल के पास स्थित कैंसर के मरीज़ों के लिए सब्सिडाइज्ड हॉस्टल ‘गाडगे महाराज धर्मशाला’ में मिली, तो यह विश्वास करना मुश्किल था कि उन्हें कैंसर है। औसत कद और ऊंचाई की अमृता लाइम ग्रीन सलवार-कुर्ते में थी और अपने लंबे बालों को एक जुड़े में बांधे हुए, स्वस्थ दिख रही थी।

लोगों ने बताया कि वह खुद को अलग रखना पसंद करती हैं।  जब धर्मशाला में उनकी मित्र तुलसी, जो एक और स्तन कैंसर सर्वाइवर थीं, हमसे बात करने लगीं तो अमृता भी खुलने लगीं। शानदार व्यक्तित्व की धनी तुलसी ने हमें हंसाया और उन्हें सुनते हुए अमृता ने भी बातचीत शुरू कर दी। 

34 वर्ष की उम्र में, अमृता को बताया गया कि वह अपने सभी मामलों को सुलझा लें। उन्हें चौथे चरण का कैंसर है और वह उनके जिगर, फेफड़े और त्वचा में फैल गया है।  अक्सर बिना स्थायी आश्रय और कम पैसे के मुंबई में दो साल तक रहने के बाद, टाटा मेमोरियल अस्पताल के डॉक्टरों ने उन्हें बताने कि उनके इलाज के लिए जो भी कर सकते थे, वह सब कुछ कर दिया है और अब वह अपने बचे हुए दिन दिल्ली में अपने परिवार के साथ बिताएं।

अमृता के कैंसर का पता उन्हें तीसरे चरण में चला। उनके उपचार में उनकी आर्थिक स्थिति, कोविड महामारी और राष्ट्रीय लॉकडाउन ने देरी और अंततः परिणाम में भूमिका निभाई। यहां तक ​​कि जब वह मुंबई स्थित भारत के सबसे अच्छे कैंसर देखभाल संस्थान पहुंची, तो उन्हें अपने रोग की गंभीरता या उन्हें आगे क्या करना है, के बारे में पूरी तरह से समझ नहीं थी। 

भारत में स्तन कैंसर भारतीय महिलाओं में सबसे आम (26%) कैंसर है, जिससे हर साल लगभग 200,000 महिलाएं प्रभावित होती हैं।भारत में स्तन कैंसर न केवल एडवांस स्टेज में पता चलता हैं बल्कि इनका पूर्वानुमान भी बहुत खराब है। जबकि स्तन कैंसर के मामले में पश्चिमी देशों जैसे यूएसए, स्वीडन, जापान और ऑस्ट्रेलिया में पीड़ितों की औसत पांच साल की उत्तरजीविता दर 80-90% है।  एशियाई देशों – चीन, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और तुर्की में यह दर 76-82% है, जबकि भारत में यह दर केवल 52% है।

इसका मतलब है कि अपने निदान (रोग की पहचान) के पांच वर्षों में लगभग आधी महिलाएं स्तन कैंसर से अपनी जान गवां देती हैं।

कैप्शन: मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल मुंबई के सामाजिक कार्य विभाग में कैंसर मरीज और उनके देखभालकर्ता कतार में खड़े हैं। फोटो क्रेडिट: अफज़ल अदीब खान

कैंसर दुनिया भर में महिलाओं में समय से पहले होने वाली मौत के शीर्ष तीन कारणों में से एक है। “यदि सभी महिलाओं को हर जगह बेहतरीन कैंसर देखभाल प्राप्त हो सके तो प्रत्येक वर्ष कैंसर से जान गवानें वाली 2.3 मिलियन महिलाओं में से, 1.5 मिलियन मौतों [65%] को प्राथमिक रोकथाम या प्रारंभिक पहचान रणनीतियों के माध्यम से रोका जा सकता है, जबकि बाक़ी 800,000 मौतों को टाला जा सकता है।” 2023 में द लांसेट कमीशन: वूमेन, पावर और कैंसर ने कहा।

रिपोर्ट में आगे कहा गया कि हर भौगोलिक क्षेत्र या आर्थिक संसाधनों के दायरे में आने वाली महिलाओं में पुरुषों की तुलना में कैंसर से संबंधित स्वास्थ्य देखभाल से संबंधित निर्णय लेने में ज़्यादा समय लगने की संभावना रहती है। इसका कारण उनमें जानकारी और निर्णय लेने की आज़ादी की कमी है। महिलाओं में पुरुषों की तुलना में कैंसर के कारण वित्तीय संकट का सामना करने की भी अधिक संभावना रहती हैं। बेहतरीन कैंसर की इलाज एवं देखभाल उपलब्ध होने के बावजूद भी उन्हें समुचित इलाज नहीं मिल पाता है और प्रायः उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं।

जेंडर और कैंसर पर आधारित इस श्रृंखला के दूसरे भाग में, बहनबॉक्स कैंसर उपचार प्राप्त करने में आने वाली  सभी बाधाओं का पता लगाएगी। हम जानने की कोशिश करेंगे कि अपेक्षाकृत कम कैंसर दर के बावजूद भी भारतीय महिलाएं रोके जा सकने वाले कैंसर से क्यों पीड़ित होती हैं? उनके निदान में देरी क्यों होती है? उन्हें कैंसर केंद्रों तक पहुंचने में कठिनाई क्यों होती है और अधिक ऋण लेने की स्थिति का सामना क्यों करना पड़ता है?

कैंसर पीड़ित लड़कियों की इलाज करवाने की संभावना कम

कैप्शन: टाटा मेमोरियल अस्पताल में इम्पैक्ट फाउंडेशन की प्रभारी अधिकारी शालिनी जातिया ने कहा कि बच्चों को होने वाले कैंसर के मामलों में इलाज छोड़ने की दर 2010 में 25% थी जो  2022 में घटकर 3% हो गई है। फोटो क्रेडिट: अफज़ल अदीब खान

हालांकि लड़कों या लड़कियों में कैंसर होने के मामलों में कोई अंतर नहीं है, लेकिन बच्चों के मामले में लड़कों का इलाज करवाने के पक्षधर अधिक हैं। 2023 में देश के तीन कैंसर केंद्रों और दो जनसंख्या-आधारित कैंसर रजिस्ट्रियों पर हुए अध्ययन में लड़कों की तुलना में लड़कियों के कैंसर मामलों के पंजीकरण में बहुत अंतर पाया गया। यह भेदभाव उत्तर भारत में अधिक और दक्षिण भारत में कम है। 

दिल्ली में कैंसर के इलाज के लिए 2 लड़कों के मुक़ाबले में एक लड़की का पंजीकरण हुआ है। जबकि चेन्नई में यह अनुपात 1.44 लड़के प्रति 1 लड़की था। अध्ययन में पाया गया कि विशेष रूप से निजी संस्थानों में कैंसर की देखभाल और इलाज के लिए पंजीकरण के समय लड़कों की संख्या भले ही ज्यादा रही हो लेकिन इलाज के समय ऐसा नहीं था। इसके अलावा अध्ययन में ये बात भी सामने आई कि लड़कों की तुलना में लड़कियों का स्टेम सेल प्रत्यारोपण (कुछ प्रकार के रक्त कैंसर के लिए रोग निवारक इलाज जो भारत में 15-20 लाख रुपये खर्च होता है) कम हुआ। 

वंदना महाजन, कैंसर सर्वाइवर और पल्लियेटिव केयर काउंसलर, टाटा मेमोरियल अस्पताल मुंबई में वालेंटियर और लंग कनेक्ट इंडिया फाउंडेशन की सदस्य हैं, उन्होंने मुझे महाराष्ट्र के एक गाँव की 3 साल की लड़की सिमरन (बदला हुआ नाम) के बारे में बताया जिसे द्विपक्षीय रेटिनोब्लास्टोमा (बाईलैटरल रेटिनोमाब्लास्टोमा- बच्चों में सबसे सामान्य प्रकार का नेत्र कैंसर) हुआ था। उसका इलाज 10 महीने की उम्र में चेन्नई में हुआ था, लेकिन उसे कोविड महामारी के दौरान फिर से कैंसर हो गया। अब यह लाइलाज था और वह बहुत दर्द में थी, उसे सिर्फ़ दर्द निवारक दवाओं की ज़रूरत थी। 

 “मॉर्फिन महंगी दवा नहीं है और मैंने सिमरन को यह उपलब्ध करवा दी था। उसकी मां ने मुझे बताया कि सिमरन की दादी उसे यात्रा करने या दवाइयां खरीदने के लिए पैसे नहीं देंगी क्योंकि वह कहती थीं कि वह लड़की है और वैसे भी मर जाएगी, तो उस पर पैसे क्यों खर्च करें,” महाजन ने कहा।

अमृता की आपबीती: 13 साल की उम्र में शादी और 14 साल की उम्र में माँ

कैप्शन: अमृता सिंह एक अन्य ब्रेस्ट कैंसर सर्वाइवर तुलसी के साथ। दोनों गाडगे महाराज धर्मशाला, जो मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल के पास कैंसर मरीजों के लिए एक सब्सिडी वाला हॉस्टल है, में लंबे समय तक रहने के कारण अच्छे दोस्त बन गए। फोटो क्रेडिट: अफ़ज़ल अदीब खान

चार बेटियों और एक बेटे में सबसे बड़ी अमृता की शादी 13 साल की उम्र में कर दी गई थी। “मेरे बाद तीन और बहनें थीं, इसलिए मेरे माता-पिता चाहते थे कि मेरी शादी जल्दी हो जाए,” उसने मुझे बताया। झारखंड के दुमका ज़िला के एक छोटे से गाँव से अमृता दिल्ली चली गईं। उसने सिर्फ आठवीं कक्षा तक ही पढ़ाई की थी, उसके पास अपनी ख़ुशियोंके लिए कोई समय नहीं था। शादी के पहले साल ही उसने  बेटे मोहित को जन्म दिया और उसके बाद दो बेटियां और हुईं। उसके पति पार्किंग सहायक का काम करते थे और अमृता घर के काम-काज संभालती थी। उनके पास भले कम पैसे थे लेकिन वो खुश थे। 

पहली बार जब उसने अपने बाएं स्तन में गांठ महसूस की तब 2020 में कोविड महामारी का दौर था और  भारत में पहला राष्ट्रीय लॉकडाउन समाप्त हो रहा था। इस दौरान सभी प्रकार का परिवहन और आवाजाही प्रतिबंधित थी। लॉकडाउन से स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र अत्यधिक प्रभावित हुआ था क्योंकि अधिकांश निजी अस्पतालों ने अपनी ओपीडी सेवाएं बंद कर दी थी। यहां तक कि दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भी ओपीडी सेवाएं तीन महीने से अधिक समय तक बंद थी।  

लॉकडाउन के दौरान अमृता के पति काम से बाहर थे और परिवार बमुश्किल दो वक्त के खाने का खर्च निकाल पा रहा था। कई बार उनके परिवार को अपने घर के पास चल रहे लंगरों से भोजन की व्यवस्था करनी पड़ी। जब उनके पड़ोस के एक प्राइवेट डॉक्टर ने बताया कि रक्त परीक्षण में कैंसर के लक्षण दिख रहे हैं तो अमृता अपने घर के नजदीकी सरकारी अस्पताल गईं वहां उनकी अन्य कई जांच और परीक्षण के बाद बायोप्सी की गई। लेकिन पूरी प्रक्रिया में दो महीने का समय लग गया और बाद में  अमृता को पता चला कि उन्हें तीसरे चरण का स्तन कैंसर है और अब उसकी सर्जरी भी नहीं हो सकती है। डॉक्टरों ने उन्हें राजीव गांधी कैंसर संस्थान और अनुसंधान केंद्र भेजा दिया, जहां उनकी कीमोथेरेपी शुरू हुई लेकिन अस्पताल में अक्सर दवाओं की कमी हो जाती थी। 

“उन्होंने हमें दवा खरीदने के लिए कहा जिसकी प्रति कीमोथेरेपी सत्र की क़ीमत 50,000 रुपये थी, हम इतनी बड़ी रकम नहीं दे सकते थे,” उनके 19 वर्षीय बेटे मोहित ने कहा, जो अपनी मां के इलाज के पहले दिन से उनके साथ था।

दिल्ली में सिंह परिवार कैंसर का इलाज नहीं कर सका इसका एक कारण उनका आउट-ऑफ-पॉकेट (किसी बीमा कवर के अन्तर्गत न आने वाला खर्च) खर्च ज्यादा होना था। दिल्ली राज्य ने प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (आयुष्मान) लागू नहीं की थी, जिसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को 5 लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा कवर दिया जाता है। जबकि दिल्ली में आरोग्य कोष योजना थी जो आयुष्मान के समान कवर देती थी, लेकिन अमृता और उसके परिवार इसके बारे में कोई जानकारी नहीं थी और न ही अस्पताल ने उन्हें इसके बारे में कुछ बताया था।

अमृता को दिल्ली में चल रहे इलाज को छोड़ कर आगे के इलाज की योजना बनाने के लिए वो अपने माता-पिता के पास झारखंड चली गईं। वहां उन्हें बताया गया कि उनके पास दो विकल्प हैं इलाज के लिए वो कोलकाता या मुंबई जाएं। परिवार ने मुंबई जाकर टाटा मेमोरियल अस्पताल में इलाज कराने का फैसला किया।

फिर अमृता और मोहित अपने दो रिश्तेदारों के साथ इलाज के लिए मुंबई आए। उनके पति दिल्ली में ही अपने काम और बेटियों की देखभाल के लिए रुके। अमृता ने अपने कुछ गहने बेचकर मुंबई आने के लिए 1,00,000 रुपये का इंतजाम किया। वे दो महीने तक कम किराए वाले घर में भी रहे लेकिन जांच कराते हुए जल्द ही उनके सारे पैसे खत्म हो गए। 

इस दौरान कैंसर उनके दाहिने स्तन में फैल चुका था और चौथे चरण में पहुंच गया था। उन्हें बताया गया कि अब उन्हें इलाज के दौरान 80,000 रुपये की लागत वाली दवा के 18 सत्रों की जरूरत होगी। हमारी स्थिति दोबारा पहले जैसी हो गई थी, पैसे नहीं थे। “हमने डॉक्टर से कहा कि हमें बताएं कि अब आगे क्या करना है क्योंकि हमारे पास पैसे नहीं बचे हैं।” मोहित ने बताया।

जानकारी की कमी, कम आय और स्वास्थ्य के प्रति न्यूनतम प्राथमिकता

कैप्शन: एक कैंसर मरीज को टाटा मेमोरियल अस्पताल, मुंबई में ले जाया जा रहा है। फोटो क्रेडिट: अफज़ल अदीब खान

अमृता का मामला कोई अपवाद नहीं है, भारत में 50% ब्रेस्ट कैंसर के मरीजों का पता तीसरे और चौथे चरण में आने के बाद ही लगता है। जबकि भारत ने 2017 से ही स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों में मुख, स्तन और गर्भाशय ग्रीवा कैंसर के लिए जनसंख्या आधारित स्क्रीनिंग की शुरुआत कर दी है लेकिन इसका क्रियान्वयन बहुत खराब है। ये बात हम इस श्रृंखला के पहले भाग में बता चुके हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2020-21 के अनुसार केवल 0.9% महिलाओं की कभी स्तन कैंसर के लिए स्क्रीनिंग हुई है।

स्तन कैंसर के मामले में स्वयं जांच भी शुरुआत के लक्षण पता करने में मदद कर सकता है, लेकिन ज्यादातर ग्रामीण भारतीय महिलाओं को इसके बारे में सही जानकारी ही नहीं  हैं। 2018 में महाराष्ट्र के वर्धा जिले की 1000 ग्रामीण महिलाओं के बीच हुए एक अध्ययन में पता चला कि एक तिहाई महिलाओं ने कभी स्तन कैंसर का नाम ही नहीं सुना था। ग्रामीण और अर्ध-शहरी दोनों क्षेत्रों में 90% से ज्यादा महिलाएं स्वयं स्तन परीक्षण कैसे करते हैं, इसके बारे में नहीं जानती थीं।

यही वर्धा अध्ययन 212 स्तन कैंसर मरीजों के साक्षात्कार में भी शामिल था और पाया गया कि उनमें से आधे से ज्यादा ने लक्षण पता चलने और पहली परामर्श के बीच लगभग तीन महीने की देरी की थी। अध्ययन में ये बात भी सामने आई कि मरीजों के निदान में देरी का सबसे आम कारण स्तन गांठ का दर्द रहित होना और स्तन कैंसर के बारे में जानकारी की कमी थी।  बीमारी के लक्षण पता चलने के बाद भी कई मरीजों ने इलाज में आने वाले मंहगे खर्च की वजह से इलाज शुरू करने में देरी की।

इसका एक कारण यह भी है कि एक पितृसत्तात्मक परिवार में महिलाएं अपने गुप्त अंंगों और स्त्री रोग संबंधी कैंसर के लक्षणों के बारे में बात करने में असहज महसूस करती हैं, जैसे मासिक धर्म के दौरान ज्यादा ब्लीडिंग, योनि स्राव में दुर्गंध, स्तन में गांठ और सेक्स के दौरान ज्यादा दर्द। ये बातें वे अपने पतियों तक से साझा नहीं करतीं, जो कि किसी भी अप्रत्याशित परिस्थिति में फैसला लेते हैं।  पल्लियेटिव काउंसलर वंदना महाजन ने  बताया।

यही कारण  है कि स्तन, डिम्बग्रंथि, एंडोमेट्रियल और गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर का पता देर से चलता है क्योंकि महिलाएं पहले लक्षणों को चुपचाप छुपा लेती हैं। उन्होंने बताया। “मैंने ग्रामीण और शहरी भारत दोनों में महिलाओं को देखा है, जिन्होंने [स्तन] गांठ का पता चलने के बाद भी किसी को इसके बारे में नहीं बताया, जब तक कि यह एक फोड़ा नहीं बन गया क्योंकि वे अपने खुद के स्वास्थ्य को लेकर सजग नहीं हैं और न ही उसे प्राथमिकता देती हैं।” महाजन ने आगे कहा।

बीएमजे में प्रकाशित 2020 के एक अध्ययन से यह पता चलता है कि कैंसर के इलाज में एक महीने की देरी से मृत्यु का खतरा 10% बढ़ जाता है। इससे लोगों में यह मिथक और मजबूत हो जाता है कि कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसके इलाज के बाद स्वस्थ होने की संभावना बहुत कम होती है, क्योंकि जीवित रहने की दर कम है।

इन मामलों में परिवार के पोषक के रूप में स्वयं को समर्पित कर चुकी महिलाओं को अपने इलाज के लिए समय और बहुत सारा पैसा खर्च करने के लिए राज़ी करना बहुत मुश्किल कार्य है। महिलाएं अपने स्वास्थ्य के बजाय परिवार और बच्चों का स्वास्थ्य को ही प्राथमिकता देती हैं।   

जानकारी, जागरूकता और निर्णय लेने की अधिकार क्षमता में कमी के साथ-साथ परिवार में उनकी स्थिति के कारण महिलाओं में कैंसर के लक्षण देर से पता चलते हैं।” सेंटर फॉर ग्लोबल एनसीडीएस, आरटीआई इंटरनेशनल की सीनियर पब्लिक हेल्थ रिसर्चर इशु कटारिया ने कहा।

परिवार और आर्थिक स्थिति पर पड़ने वाला प्रभाव

कम और मध्यम आय वाले देशों में कैंसर युवा महिलाओं को ज्यादा प्रभावित करता है।जिसके कारण समय से पहले उनकी मृत्यु या स्थाई विकलांगता हो जाती है। पीड़िता के परिवार पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। महिलाएं सिर्फ़ अपने बच्चों का लालन-पालन ही नहीं करती बल्कि अपने परिवार की देखभाल के साथ-साथ उनके   सामाजिककरण, शिक्षा, स्वास्थ्य में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वैश्विक स्तर पर महिलाओं के बढ़ते कैंसर पर द लैंसेट की 2017 की एक अध्ययन रिपोर्ट कहती है कि एक मां की मृत्यु का बच्चों और उसके परिवार पर घातक प्रभाव पड़ता है।

महिलाएं पहले से ही सामाजिक स्थिति और संपत्ति में अधिकार के मामले में पुरुषों से पीछे हैं। इसके अलावा कैंसर का बेहतर इलाज और देखभाल उपलब्ध होने एक बाद भी उन्हें पुरुषों की तुलना में ज़्यादा वित्तीय संकट का सामना करना पड़ता है। जिसका उनके परिवार पर गंभीर असर पड़ता है। इस लेख में द लैंसेट ऑन्कोलॉजी की ‘वीमेन, पॉवर एंड और कैंसर’ आयोग की रिपोर्ट का हवाला पहले भी दिया गया है। 

बहुत कम उम्र में शादी होने के बावजूद, अमृता के बुरे समय में उनके बेटे मोहित और झारखंड में रह रही मां उनकी ताकत बने रहे। उन्हें समय-समय पर उनके पति पैसे भेजते थे लेकिन ज्यादातर समय उनकी मां ही उन्हें पैसे भेजती थी। अमृता के भाई ने इस दौरान उनकी और उनके माता-पिता की कोई मदद नहीं की। अमृता ने अपने बेटे मोहित के साथ मिलकर अपनी बेटियों को सभी कठिनाइयों से जितना हो सका बचाने की कोशिश की और इसलिए जब इलाज के सभी विकल्प खत्म हो गए तो वे झारखंड वापस लौट गए।

जब आखिरी उम्मीद भी खत्म हो जाती है

कैप्शन: अमृता अपने बेटे मोहित के साथ, जो उनके इलाज के दौरान हमेशा उनके साथ रहा। अपनी मां के स्वास्थ्य ख़राब होने के साथ पैसे ख़त्म होने पर मोहित ने पढ़ाई छोड़ दी और खर्चों को पूरा करने के लिए काम करना शुरू कर दिया। फोटो क्रेडिट: अफज़ल अदीब खान

अमृता के परिवार ने दिल्ली और मुंबई में उनके इलाज को जारी रखने के लिए भारी भरकम कर्ज लिया। टाटा मेमोरियल अस्पताल में इलाज के दौरान ओपीडी में एक अन्य मरीज के रिश्तेदार से संयोगवश मुलाकात के चलते मोहित गाडगे महाराज धर्मशाला पहुंचे। बिना पैसे के मोहित अपनी मां के साथ बिल्डिंग के बाहरी आंगन में तीन महीने तक रहे और कई ट्रस्टों से इलाज के लिए आर्थिक मदद मांगने की कोशिश करते रहे। बाद में, मोहित ने हॉस्टल के अंदर डॉमट्रि में रहने और उनके इलाज को जारी रखने के लिए पैसे का इंतजाम किया।

दोनों गाडगे महाराज धर्मशाला की पांचवीं मंजिल के छात्रावास (डॉमट्रि) में रहे, जो महिला मरीजों के लिए था। जहां प्रत्येक मरीज को 3000 रुपये प्रति माह के हिसाब से एक बंक बेड (एक के ऊपर एक बने बिस्तर), बाथरूम, शौचालय और दिन में तीन बार भोजन मिलता था। इतनी सब्सिडी मिलने के बाद भी दिसंबर 2023 में जब मैं उनसे मिली तब उन्होंने तीन महीने का किराया नहीं दिया था।  

अमृता ने मुझे बताया कि उनका 95% इलाज हो चुका था और अब दवाएं काम नहीं कर रही थीं। वह इसे अब अपनी नियति मान चुकी थीं। अस्पताल के कर्मचारियों ने बताया कि एक क्लिनिकल ट्रायल से शायद उन्हें मदद मिल सके। अमृता ने बताया कि मुंबई में दो साल रहने के दौरान वह सिद्धिविनायक मंदिर के अलावा और कहीं भी नहीं गई थीं। “मैं अस्पताल से क्लिनिकल ट्रायल के लिए कॉल का इंतजार कर रही हूं, मैं कहीं नहीं जा सकती।” उन्होंने मुझे बताया।

अप्रैल 2024 में, जब मैंने उनके बेटे मोहित से फोन पर बात की, तो उसने कहा कि क्लिनिकल ट्रायल उन पर बेअसर रहा। “अंततः हमें घर जाने को कहा गया, हम कुछ समय के लिए दिल्ली में रहे और अब हम अपनी मां के घर झारखंड आ गये हैं।” मोहित ने मुझे बताया। अमृता अब बहुत कमजोर हो गई हैं और दर्द निवारक दवाएं ले रही हैं। पिछले दो वर्षों से मोहित अपनी मां के साथ रहा है। वह तब केवल  17 साल का था और उसने अपनी 10वीं कक्षा की परीक्षा नहीं दी थी। अब वह 12वीं पास कर चुका है लेकिन उसने पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया है। उसका सपना था कि वह मॉडल बने लेकिन पिछले दो वर्षों ने उसे एक दूसरा व्यावहारिक सपना चुनने पर मजबूर कर दिया था, जो कि एक नियमित नौकरी ढूंढना था। 

जून 2024 में, जब मैंने मोहित से बात की, तो उसने कहा कि अमृता को भयानक दर्द हो रहा है और इस कारण से वह पिछले 10 दिनों से सो नहीं पा रही। कैंसर उनके फेफड़े और गले में फैल गया है। उन्हें सांस लेने और खाना निगलने में दिक्कत हो रही है। टाटा मेमोरियल सेंटर के पल्लियेटिव विभाग ने जो दर्द निवारक दवाएं दी थीं वो भी अब खत्म हो गई हैं। वे स्थानीय दुकानों से मिलने वाली दर्द निवारक दवाओं पर निर्भर हैं लेकिन दुमका में मिलने वाली यह दर्द निवारक दवाएं इतनी भरोसेमंद नहीं हैं, उन्होंने कहा। वे अपनी मौसी और उनके परिवार के साथ रह रहे हैं जो अमृता की देखभाल करने में उनकी मदद कर रहे हैं।

अमृता के पास अब केवल कुछ हफ्ते बचे हैं, अमृता के पति और बेटियां उनसे मिलने दिल्ली से दुमका आ रहे है। मोहित ने बताया कि वह अपनी माँ की दवाओं का खर्च निकालने के लिए दिहाड़ी मजदूरी करने लगा है। इससे पहले वह एक चाय की दुकान पर काम करता था, जो बेरोज़गार बैठे रहने से अच्छा था। 

 

उपसंहार: 12 जून, 2024 की सुबह अमृता सिंह ने अपने परिवार के बीच अंतिम  सांसे  ली।

 

यह लेख लिंग और कैंसर पर आधारित तीन भागों की श्रृंखला का दूसरा भाग है। पहला भाग यहां पढ़ें।

लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं ,जो अहमदाबाद से हैं। वह जेंडर, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य विकासात्मक मुद्दों पर लिखती हैं। इस लेख को मालिनी नायर ने संपादित किया है, जो Behanbox की कंसल्टिंग एडिटर हैं और जेंडर आधारित खबरों में गहरी रुचि रखती हैं। 

यह स्टोरी पहली बार Behanbox की वेबसाइट पर प्रकाशित हुई है जिसके बाद इसे खबर लहरिया की वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया है। 

 

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