कैंसर पर दिशानिर्देशों के अनुसार, 30 वर्ष से ज्यादा उम्र की महिलाओं को सर्वाइकल, स्तन और मुख कैंसर की स्क्रीनिंग करानी चाहिए, जिसमें सर्वाइकल कैंसर की स्क्रीनिंग हर पांच साल में एक बार VIA (विजुअल इंस्पेक्शन विद एसिटिक एसिड) के माध्यम से की जानी चाहिए। ये स्क्रीनिंग एएनएम (ANMs) द्वारा उप केंद्रों पर और स्टाफ नर्सों द्वारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs) पर की जानी थी।
लेख – स्वागता यादवार, अनुवादक- श्रृंखला पाण्डेय
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अहमदाबाद। गुजरात कैंसर अनुसंधान संस्थान (जीसीआरआई) के बाह्य रोगी विभागों में लगातार मरीजों का आना जाना बना रहता है। कैंसर के इलाज के मामले में इस विशिष्ठ उपचार केन्द्र में प्रतिवर्ष गुजरात, राजस्थान से मध्यप्रदेश से आने वाले 25000 मरीजों का इलाज किया जाता है। ज्यादातर इलाज अलग-अलग सरकारी योजनाओं से मिलने वाली सब्सिडी के तहत होता है।
अस्पताल के ग्राउंड फ्लोर पर गायनेकोलॉजी ओपीडी में नर्स मरीजों को बुलाती है और दो डॉक्टरों की टीम उनका परीक्षण करती हैं। मरीजों को देखने के दौरान संस्थान की गायनेकोकॉजिकल ऑनकोलॉजी की प्रोफेसर चेतना पारीख Behanbox को बताती हैं कि बाकी कैंसर के मुकाबले में सर्वाइकल कैंसर (गर्भाशय ग्रीवा का कैंसर) बचाव के साथ-साथ इसका इलाज भी पूरी तरह से संभव है। इसके बाद भी भारत में इसकी स्थिति खराब है। ज्यादातर मरीज यहां तब आते हैं जब वो कैंसर के तीसरे या चौथे चरण में होते हैं और छह महीने से साल भर के अंदर वो अपनी जान गंवा देते हैं।
इस तरह की स्थिति बहुत ही भयावह और अस्वीकार्य है क्योंकि बाकी कैंसर के पीछे का सही कारण भले ही हमें पता नहीं चल पाता लेकिन हम जानते हैं कि सर्वाइकल कैंसर मानव पैपीलोमा वायरस (एचपीवी) के कारण ही होता है और इसे रोकने के लिए हमारे पास वैक्सीन भी मौजूद है। हैरानी की बात ये है कि इसके बावजूद भी वर्ष 2023 में 123,000 भारतीय महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर का पता चला जिनमें से लगभग 80,000 की मौत हो गई। विश्व के कुल सर्वाइकल कैंसर के मरीजों में से हर पांचवा मरीज भारतीय है और इससे सबसे ज्यादा मौतें भी भारत में होती हैं।
भारत में हर सात मिनट पर एक महिला सर्वाइकल कैंसर की वजह से मौत के मुंह में चली जाती है, फिर भी इसकी स्क्रीनिंग दरें बेहद कम है। सर्वाइकल कैंसर के बचाव के टीके (एचपीवी वैक्सीन) दो दशक से भी ज्यादा समय से उपलब्ध हैं लेकिन अभी तक भारत के मुफ्त टीकाकरण कार्यक्रमों में इसे शामिल नहीं किया जा सका है और लोगों में इस बीमारी को लेकर बहुत कम जागरुकता देखने को मिलती है।
कैंसर जागरूकता, रोकथाम और प्रारंभिक पहचान (CAPED) के लिए एक गैर-लाभकारी संस्था का नेतृत्व कर रही मृदु गुप्ता इसे एक लिंग-आधारित संकट मानती हैं। वो कहती हैं, “अगर यह एक ऐसा कैंसर होता जो पुरुषों को भी प्रभावित करता और हर सात मिनट में एक आदमी की जान ले लेता, तो क्या एचपीवी वैक्सीन और स्क्रीनिंग को सभी को आसानी से उपलब्ध कराने में इतना समय लगता? ” महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं कभी भी राजनीतिक मुद्दों में प्रमुखता से शामिल ही नहीं रही हैं और यही कारण है कि सर्वाइकल कैंसर जैसी भयानक बीमारी को लेकर जागरुकता बढ़ाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है, उन्होंने आगे कहा।
महिलाएं कैंसर से पीड़ित होने पर पुरुषों की तुलना में ज्यादा उपेक्षा, तिरस्कार और भेदभाव का सामना करती हैं। यही कारण है कि Behanbox ने ये पता लगाने का प्रयास किया कि महिलाओं के लिए कैंसर देखभाल में कितना लैंगिक भेदभाव होता है और महिलाओं को पुरूषों के मुकाबले किन अलग समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस मुद्दे पर पर तीन-भागों की श्रृंखला में विस्तृत चर्चा की गई है।
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बालविवाह, ज्यादा बच्चे और ध्रूमपान
मैं जीसीआरआई में ग्रामीण भारत के कई सर्वाइकल कैंसर के मरीजों से मिली, इनमें से ज्यादातर की उम्र 40 से 60 वर्ष के बीच थी। उनमें से लगभग 80% को इस बीमारी के बारे में तब पता चला जब वे स्टेज 3 पर थे। जस्सूबेन उनमें से एक हैं।
अहमदाबाद से 270 किलोमीटर दूर अमरेली के एक किसान परिवार की 30 वर्षीय जस्सूबेन अपने पति के साथ पारेख के केबिन में दीवार के सहारे बैठी थी। उन्हें स्टेज-3 सर्वाइकल कैंसर है और हालत कुछ बेहतर नहीं है। उन्हें इस बीमारी के बारे में दो साल पहले ही पता चला और इलाज शुरू हुआ लेकिन इस साल फरवरी तक उनके शरीर में कैंसर पूरी तरह फैल चुका था। जल्द ही उन्हें पैलिएटिव केयर में भेज दिया जाएगा।
सर्वाइकल कैंसर के कुछ जोखिम कारकों में कमजोर प्रतिरोधक क्षमता जैसे कि एचआईवी संक्रमण, अन्य यौन संचारित रोग और कुछ प्रकार के एचपीवी संक्रमण, कई बच्चों को जन्म देना, कम उम्र में गर्भधारण, हार्मोनल गर्भनिरोधक का इस्तेमाल और धूम्रपान शामिल है।
जीसीआरआई की चेतना पारेख ने बताया, “हमारे पास ज्यादातर मरीज तब आते हैं जब उनका कैंसर दूसरे अंगों जैसे किडनी तक फैल चुका होता है। ऐसे मामलों में इलाज संभव नहीं होता और मरीज को मौत से पहले असहनीय पीड़ा झेलनी पड़ती है।”
सर्वाइकल कैंसर बढ़ने के बाद मूत्रनली (जो किडनी को मूत्राशय से जोड़ती है) में भी फैल जाता है और इससे किडनी पर पड़ने वाला दबाव बढ़ जाता है। इसका नतीजा ये होता है कि किडनी पूरी तरह से काम करना बंद कर देती है। ऐसे मामलों में मरीजों को यूरिन पास करने के लिए कृत्रिम स्टेंट लगाए जाते हैं और उन्हें डायलिसिस की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है। कई मामलों में तो कैंसर मलद्वार तक फैल जाता है, जिससे मल त्याग से दुर्गंध और संक्रमण फैलने का खतरा रहता है।
गर्भधारण, स्वच्छता की कमी और गरीबी : जस्सूबेन की कहानी
जस्सूबेन ने एक स्लेटी रंग की शॉल और पारंपरिकघाघरा चोली पहन रखी थी। वह काफी थकी हुई दिख रही थी इसके बावजूद मुझसे बात करते हुए उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की।
जस्सूबेन 13 या 14 साल की थीं, जब उनकी शादी हुई। उन्हें अपनी उम्र ठीक तरह से याद भी नहीं। उनके तीन बच्चों में सबसे बड़ा बेटा 12 साल का है यानि उन्होंने 18 साल की उम्र में पहले बच्चे को जन्म दिया था। परिवार के पास 7 बीघा या 4 एकड़ जमीन है, जिस पर वे कपास उगाते हैं। परिवार की वार्षिक आय लगभग 60,000 रुपये है, जो भारत के सबसे निचले आय वर्ग में आती है।
जुलाई 2022 की बात है, जस्सूबेन को लगातार तीन-चार महीने तक ब्लीडिंग की शिकायत रही। उनके पति भोपत उन्हें एक प्राइवेट अस्पताल में दिखाने ले गए और वहां से उन्हें जीसीआरआई भेज दिया गया। जांच के बाद पता चला कि उन्हें स्टेज-1 सर्वाइकल कैंसर है। लेकिन बाद की कुछ और जांचों से ये पता चला कि कैंसर उनके लिम्फ नोड्स में फैल चुका है। जस्सूबेन को कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी दी गई, जिससे बीमारी वहीं रुक गई। सफेद स्राव होना भी बंद हो गया लेकिन उनकी मूत्रवाहिनी पूरी तरह से प्रभावित हो चुकी थी इसलिए अब उन्हें यूरिन बैग हमेशा साथ रखना पड़ता है।
फरवरी 2024 में एक फॉलो-अप विजिट के दौरान कुछ जांचें हुईं जिसमें पता चला कि कैंसर उनके अन्य नोड्स यहां तक कि फेफड़ों में भी फैल चुका था। जब मैं उनसे मिली तो उन्हें जल्द ही बायोप्सी के लिए भर्ती किया जाना था और पैलिएटिव कीमोथेरेपी शुरू की जानी थी। उनकी हालत बहुत खराब थी।
“ऐसी स्थिति में मरीज कई बार एक से डेढ़, दो साल तक ही जिंदा रहते हैं, लेकिन आखिरी के छह महीने उनके लिए बहुत ही पीड़ादायक होते हैं।” पारीख ने मुझे बताया।
स्क्रीनिंग एक चुनौती
हालांकि यह भारत में महिलाओं में होने वाला दूसरा सबसे सामान्य कैंसर है, सर्वाइकल कैंसर की स्क्रीनिंग (मुख और स्तन कैंसर के साथ) को राष्ट्रीय दिशानिर्देशों में केवल 2017 में ही अनुशंसित किया गया था। कैंसर पर दिशानिर्देशों के अनुसार, 30 वर्ष से ज्यादा उम्र की महिलाओं को सर्वाइकल, स्तन और मुख कैंसर की स्क्रीनिंग करानी चाहिए, जिसमें सर्वाइकल कैंसर की स्क्रीनिंग हर पांच साल में एक बार VIA (विजुअल इंस्पेक्शन विद एसिटिक एसिड) के माध्यम से की जानी चाहिए। ये स्क्रीनिंग एएनएम (ANMs) द्वारा उप केंद्रों पर और स्टाफ नर्सों द्वारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs) पर की जानी थी। पॉजिटिव मामलों को आगे की जांच व इलाज के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHCs) या जिला अस्पतालों में चिकित्सा अधिकारियों या स्त्री रोग विशेषज्ञों के पास रेफर किया जाना था।
2016 के दिशानिर्देशों केअनुसार, बीते तीन वर्षों में 80% जनसंख्या को स्क्रीनिंग के दायरे में लाने का लक्ष्य था। लेकिन नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 (2020-21) के अनुसार, 30-49 वर्ष की आयु की महिलाओं में से केवल 1.9% ने सर्वाइकल कैंसर की स्क्रीनिंग करवाई जबकि केवल 0.9% महिलाओं ने स्तन कैंसर और 0.9% ने मुख कैंसर की स्क्रीनिंग करवाई लेकिन सरकार ने किसी भी तरह की कार्यान्वयन चुनौतियों को संज्ञान में नहीं लिया। स्क्रीनिंग की खराब दर में वैश्विक महामारी की भी बड़ी भूमिका रही।
आशा बहुएं, जिन्हें ‘स्वयंसेवक-कार्यकर्ता’ के तौर पर जाना जाता है उन पर पहले से ही मातृ-शिशु स्वास्थ्य, संक्रामक और गैर-संक्रामक रोगों के कार्यक्रमों को लागू करने की जिम्मेदारी है। इसके लिए उन्हें केवल 4000 से 7000 रुपये प्रति माह का मामूली वेतन दिया जाता है। एएनएम पर भी काम का बोझ पहले से ही ज्यादा है इसलिए कैंसर उनकी उच्च प्राथमिकता सूची में दूर-दूर तक नहीं दिखता।
“अगर सरकार कह रही है कि हज़ारों महिलाओं की स्तन व सर्वाइकल कैंसर की जांच की गई है, तो यह झूठ है, ये केवल कागजों पर ही हुआ है।” यह बात हरियाणा की एक आशा बहू ने 2022 में कैंसर वर्ल्ड में प्रकाशित सर्वाइकल कैंसर स्क्रीनिंग नाम के एक लेख में बताई थी।
मध्य प्रदेश में कार्यरत आशा बहू लक्ष्मी ने कैंसर वर्ल्ड को बताया कि उन्हें कैंसर के बारे में सही प्रशिक्षण ही नहीं दिया गया। “यहां तक कि जब किसी महिला की स्तन या सर्वाइकल कैंसर की स्क्रीनिंग की जाती है तो उन्हें यह नहीं बताया जाता कि इसमें क्या असामान्य या उन्हें कौन से लक्षण देखने चाहिए। हम खुद नहीं जानते तो उन्हें क्या बताएंगे?”
Behanbox ने 2 अप्रैल 2024 को केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव अपूर्व चंद्र और राष्ट्रीय कैंसर निवारण और अनुसंधान संस्थान की निदेशक शालिनी सिंह से कैंसर से जुड़ी चुनौतियों के बारे में बात करने की कोशिश की थी, उनका जवाब मिलते ही हम इस खबर में अपडेट करेंगे।
खराब रिपोर्टिंग
भारत में स्वास्थ्य राज्य का विषय है इसलिए स्क्रीनिंग कार्यक्रम का क्रियान्वयन केंद्रीय मार्गदर्शन के तहत राज्य सरकारों पर निर्भर करता है। सरकार का दावा है कि 2021 में 20 मिलियन महिलाओं ने सर्वाइकल कैंसर की स्क्रीनिंग करवाई है लेकिन इसकी रिपोर्टिंग मजबूत नहीं है।
तमिलनाडु पहला और गिने-चुने राज्यों में से एक है जिसने व्यवस्थित तरीके से सर्वाइकल कैंसर की स्क्रीनिंग को लागू किया है। राज्य के राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन निदेशक द्वारा 2017 में प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार, 2012 से 2017 के बीच 14.5 मिलियन महिलाओं की VIA (विजुअल इंस्पेक्शन विद एसिटिक एसिड) के माध्यम से स्क्रीनिंग की गई थी और इनमें से 430,000 यानि 3% महिलाओं को VIA पॉजिटिव पाया गया। हालांकि इसके बाद की जानकारी उपलब्ध नहीं है। पंजाब, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे अन्य राज्यों ने भी VIA स्क्रीनिंग शुरू की है लेकिन स्क्रीनिंग के आंकड़ें अभी तक साझा नहीं किए गए हैं।
सर्वाइकल की जांच को लेकर हिचकिचाहट
जांच को लेकर महिलाओं में हिचकिचाहट और चिंता सर्वाइकल कैंसर की जांच की प्रमुख चुनौतियों में से एक है। “भारत में सर्वाइकल कैंसर की जांच के पीछे पुरानी सोच व भ्रांतियां हैं। यहां तक कि शिक्षित महिलाएं भी अपने प्राइवेट अंगाें की जांच के दौरान हिचकिचाती हैं,” जीसीआरआई की पारीख ने कहा।
जबकि सर्वाइकल कैंसर की जांच को अक्सर स्तन, मुख आदि अन्य जांचों के साथ जोड़ा जाता है जबकि इसकी जांच का दृष्टिकोण अधिक सूक्ष्म और विशिष्ट होना चाहिए, CAPED इंडिया की गुप्ता ने कहा। ग्रामीण भारत में ‘कैंसर’ शब्द का दूसरा मतलब हीमौत माना जाता है। स्वायत्तता की कमी, प्राथमिक देखभाल देने की जिम्मेदारियां, पहुंच की कमी और अपने स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने में शर्मिंदगी आदि के कारण ग्रामीण महिलाओं को आसानी से देखभाल नहीं मिलती है। “हम लोगों में बातचीत के माध्यम से पुरुषों, समुदाय के प्रतिनिधि और महिलाओं के साथ एक जुड़ाव स्थापित करते हैं जिससे वो हमपर भरोसा कर सकें और ज्यादा से ज्यादा महिलाएं जांच के लिए आएं।” गुप्ता ने कहा।
मृदु गुप्ता ने बताया कि शहरी और शिक्षित महिलाओं में भी इसी तरह के डर होते हैं। हाल ही में 40-45 कॉर्पोरेट कम्पनियों के लिए आयोजित मुफ्त कैंसर जागरूकता और स्क्रीनिंग अभियान में 5% से भी कम महिला कर्मचारियों ने सर्वाइकल स्क्रीनिंग करवाई।
स्वदेशी एचपीवी वैक्सीन
कैंसर की रोकथाम के लिए लड़कियों में एचपीवी टीकाकरण को 100 से ज्यादा देशों ने पिछले दो दशकों से अपनाया है। भारत के पड़ोसी देश भूटान, इंडोनेशिया, श्रीलंका, थाईलैंड, म्यांमार, मालदीव ने इसे अपने सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रमों में शामिल किया है और कुछ देशों ने तो इसे लड़कों के लिए भी शामिल किया है। अप्रैल 2022 में डब्ल्यूएचओ की विशेषज्ञ समिति ने कहा कि साक्ष्यों से पता चलता है कि एचपीवी की एक खुराक टीकाकरण दो या तीन खुराक वाले एचपीवी टीकों के बराबर ही सुरक्षा देती है। ये उन देशों के लिए खुशी की बात है जिनके पास भारत की तरह सीमित स्वास्थ्य बजट है।
भारत में सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया और जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा स्वदेशी तरीके से विकसित की गई वैक्सीन सर्वावैक की कीमत प्रति खुराक 2000 रुपये है, जो अन्य ब्रांडों (जिनकी कीमत 3000-3500 रुपये है) की तुलना में काफी सस्ती है।
भारत जल्द ही एचपीवी वैक्सीन का राष्ट्रीय रोलआउट घोषित कर सकता है। लेकिन बीते समय में भारत में एचपीवी टीकाकरण का सफर काफी मुश्किलों भरा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र में बाइवेलेंट और क्ववाड्रिवेलेंट वैक्सीन को 2008 से देश में लाइसेंस मिला है। हालांकि 2009 में सात लड़कियों की मौत से मीडिया में काफी हंगामा मचा और जांच के दौरान आंध्र प्रदेश और गुजरात में एचपीवी वैक्सीन पर जब अध्ययन किया गया तो कई खामियां सामने आईं। संसद ने इन कार्यक्रमों को बंद कर दिया। दिल्ली, पंजाब और सिक्किम में सर्वाइकल कैंसर के टीकाकरण के पायलट कार्यक्रम चलाए गए थे लेकिन केवल सिक्किम ने इस टीकाकरण को सार्वभौमिक टीकाकरण के तौर पर बढ़ाया और लागू किया।
नए व बेहतर रोकथाम के समाधान
हाल ही में ये प्रमाणित हुआ है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को एसिटिक एसिड का इस्तेमाल करके दृश्य निरीक्षण करने के लिए प्रशिक्षित करना कम संसाधन वाले क्षेत्रों के लिए काम करता है, लेकिन एचपीवी डीएनए परीक्षण एक बेहद संवेदनशील परीक्षण है। 2021 में, डब्ल्यूएचओ ने अपने दिशा-निर्देशों को बदलकर कम संसाधन वाले क्षेत्रों के लिए VIA (वीआईए) के बजाय एचपीवी डीएनए परीक्षण को सर्वाइकल कैंसर की रोकथाम के लिए प्राथमिक स्क्रीनिंग के रूप में इस्तेमाल करने की सिफारिश की। डब्ल्यूएचओ ने 30 वर्ष से ज्यादा उम्र की महिलाओं के लिए हर 5-10 साल में एक बार एचपीवी डीएनए परीक्षण की सिफारिश भी की है।
हालांकि जनसंख्या-स्तरीय स्क्रीनिंग के लिए एचपीवी परीक्षण (1000 रुपये) की लागत ज्यादा लगती है लेकिन यह सर्वाइकल कैंसर को पूरी तरह से खत्म करने का एकमात्र तरीका है। “वीआईए के माध्यम से कैंसर की शुरुआती लक्षण पता चल जाते हैं लेकिन एचपीवी परीक्षण के बाद ही संक्रमण का ठीक तरह से पता लगता है, जो सर्वाइकल कैंसर को फैलने से रोक सकता है।’’ CAPED इंडिया की मृदु गुप्ता ने कहा। “लेकिन उसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले हम महिलाओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता पर रखें।” उन्होंने आगे कहा।
यह तीन भागों की श्रृंखला का पहला भाग है, जो लिंग और कैंसर पर आधारित है।
स्वागता यादवार एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो अहमदाबाद से हैं।
यह स्टोरी सबसे पहले Behenbox की वेबसाइट में प्रकाशित हुई है जिसके बाद इसे खबर लहरिया की वेडसाइट पर प्रकाशित किया गया है। पहली स्टोरी का लिंक (यह) है।
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