कोरबा जिले का प्राकृतिक सघन वाला जंगल बड़े पैमाने पर कोयला खनन के कारण विनाश की कगार पर पहुँच गया है l अत्यधिक खनन के बाद कोरबा में अभी जंगल सिर्फ 14 प्रतिशत फीसदी ही बचा है।
छत्तीसगढ़ में कोयला खदान के लिए अंधाधुंन पेड़ों की कटाई की जा रही है। एक समय था जब हसदेव, रायगढ़ और कोरबा जंगल से ढका हुआ था जो आज बड़े-बड़े कोयला खदान और माइंस में बदल गया है।
बता दें छत्तीसगढ़ का कोरबा जिला पूरे देश में सबसे ज्यादा कोयला उत्पादन करता है। दरअसल हाल ही में एक रिपोर्ट सामने आई है कि कोयला खनन पर पिछले 29 सालों के आंकड़ों पर आधारित शोध के अनुसार कोरबा में वन क्षेत्र 35.56 प्रतिशत से घटकर सिर्फ 14.06 प्रतिशत रह गया है। दूसरी ओर खनन क्षेत्र 2.52 प्रतिशत से बढ़कर 8.69 प्रतिशत तक पहुंच गया है। सोचने वाली बात यह है कि यह तब हो रहा है जब सरकार लगातार कहती है कि वह कोयले पर निर्भरता कम कर रही है साथ ही पेड़ लगाओ के पोस्टर नजर आते हैं।
पहले थे घने जंगल और अब बंजर
1995 में जहां कोरबा के 35.56 प्रतिशत हिस्से पर घना जंगल था, वहीं अब 2024 में यह घटकर महज 14 प्रतिशत रह गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बेतहाशा खुले कोयला खनन (ओपनकास्ट माइनिंग) और कमज़ोर पुनर्स्थापन (रिक्लेमेशन) नीतियों की वजह से यह हालात बने हैं। तीन दशक पहले कोरबा एक घना जंगल था जो वर्तमान में बंजर भूमि बन कर रहा गई है। छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में कोयला खनन के कारण जंगलों की कटाई ने पर्यावरणीय संतुलन को बिगाड़ दिया है।
जमीन अब उपजाऊ नहीं
रिपोर्ट में बताया गया है कि कोरबा जिले में कोयला खनन की वजह से सिर्फ जंगल के पेड़-पौधे नहीं काटे गए बल्कि खेती की ज़मीन भी बर्बाद हो गई है। कई इलाकों की जमीन अब इतनी खराब हो गई है कि वहां कुछ भी नहीं उगता वो बंजर हो गई है। इससे मिट्टी की ताकत कम हो गई है बारिश का पानी ज़मीन में नहीं टिकता और आसपास के पेड़-पौधों और जानवरों पर भी बुरा असर पड़ा है। खनन के कारण वहां का पूरा पर्यावरण बिगड़ता जा रहा है।
इसका सबसे ज्यादा असर उन लोगों पर हुआ है जो खनन क्षेत्रों के पास रहते हैं खासकर आदिवासी लोग जो कोरबा की आबादी का 40 प्रतिशत से ज्यादा हैं। उन्हें अब साफ हवा और पानी मिलना मुश्किल हो गया है। खेती भी पहले जैसी नहीं रही जिससे उनकी रोज़ी-रोटी पर खतरा खड़ा हो गया है। कोरबा को देश के “आकांक्षी जिलों” में गिना जाता है, यानी जिन इलाकों को सरकार आगे बढ़ाना चाहती है। लेकिन हकीकत ये है कि यहां की स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है।
किनके द्वारा किया गया है यह अध्यन (रिसर्च)
यह अध्ययन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय (मध्य प्रदेश), गवर्नमेंट ग्राम्य भारती कॉलेज (कोरबा), बायोडायवर्सिटी रिसर्च सेंटर ताइपे, नेशनल ताइवान नॉर्मल यूनिवर्सिटी, संत गहिरा गुरु सरगुजा विश्वविद्यालय (छत्तीसगढ़), और एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय (उत्तराखंड) के शोधकर्ताओं, और वैज्ञानिकों द्वारा किया गया है।
कोयला खदान से बढ़ता प्रदूषण
किए गए शोध के अनुसार कोरबा ज़िले में कोयले की खुदाई के चलते पूरे इलाके का प्राकृतिक रूप बदल गया है। पहले जहां हरियाली, खेत और जंगल थे अब वहां फैक्ट्रियां, मशीनें और खनन के गड्ढे दिखाई देते हैं। जब कोयले तक पहुंचने के लिए ज़मीन की ऊपर की मिट्टी और चट्टानें हटाई जाती हैं तो उसी से ओवरबर्डन डंप बनता है। ये बड़ी-बड़ी मिट्टी और पत्थर के ढेर होते हैं जिनमें जहरीली भारी धातुएं और गंदे रसायन जमा हो जाते हैं इससे कई समस्याएं खड़ी हो रही हैं जैसे-
मिट्टी का कटाव बढ़ रहा है।
जंगल के जानवरों और पक्षियों का घर उजड़ रहा है।
तालाब, नदियां और बाकी जलस्त्रोत गंदे हो रहे हैं।
आजीविका पर सवाल
शोध के माध्यम से यह भी पता चला कि कोयला खनन ने कोरबा के स्थानीय समुदायों की आजीविका पर गंभीर प्रभाव डाला है। वन क्षेत्रों के नुकसान के कारण गैर-लकड़ी वन उत्पादों जैसे महुआ, बांस, और औषधीय पौधों की कमी के कारण समुदायों की आय पर बुरा असर पड़ा है।
ओवरबर्डन डंप और खनन के कचरे ने कृषि भूमि को बंजर बना दिया जिससे किसानों की आजीविका प्रभावित हुई है।
2025 तक कोयला उत्पादन 180 मिलियन टन तक पहुंच सकता है
शोधकर्ताओं ने बताया है कि कोरबा में अभी 13 कोयला खदानें चल रही हैं और 4 और शुरू होने वाली हैं। 2025 तक कोयले का उत्पादन 180 मिलियन टन तक पहुंच सकता है। उन्होंने कहा कि सिर्फ पेड़ लगाना काफी नहीं, अब सरकार को सख्त नीति बदलनी होगी। भारत की 44% जमीन खराब हो चुकी है, जो दुनिया के औसत से बहुत ज़्यादा है, और इसकी वजह जंगलों की कटाई, खनन और गलत तरीके का विकास है।
वर्तमान में पूरे छत्तीसगढ़ का यही हाल है, जंगल तो बच रहे हैं लेकिन सिर्फ कागज पर। कोरबा पर किए गए इस शोध को सरकार अगर गंभीरता से ले तो राज्य की बेहतरी की दिशा में एक सकारात्मक कदम उठाया जा सकता है।
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