ललितपुर जिले में सदियों से पुरुषों के सामने चप्पल पहनकर निकलना महिलाओं के लिए बड़ी समस्या रही है। जब खेत जाते हैं तो चप्पल पहन लेते हैं लेकिन गांव के अंदर आते ही चप्पल उतार लेते हैं, ताकि मर्यादा भंग न हो। गांव में कोई महिला चप्पल नहीं पहनती। जहाँ एक तरफ महिलाएं पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं वहीं इस गांव में आज भी महिलाएं इस प्रथा के बोझ तले खुद को दबी महसूस कर रही हैं।
उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के ललितपुर जिले के ज़्यादातर गांव में चप्पल प्रथा चलती चली आ रही है। इस तरह की कुप्रथा को खत्म करने के लिए ना तो किसी राजनेता ने अपने एजेंडे में शामिल किया, न ही यह मुद्दा प्रशासन के लिए मायने रखता है जो बाद में हिंसा का रूप ले लेता है। इससे जुड़ी हुई परेशानियों को प्रशासन देखते हुए भी आंख बंद करे बैठा रहता है। 20 साल से ललितपुर जिले के महरौनी में स्थापित है सहजनी सिक्षा क्रेंद्र, जन शिक्षा केंद्र की कार्यकर्ताओं ने इस कू प्रथा को खत्म करने के लिए बड़े-बड़े आंदोलन और रैलियां निकाली। दलित महिलाओं को जागरूक किया। इसके बाद भी अभी बहुत से ऐसे गांव हैं जहां अभी-भी यह चप्पल प्रथा चल रही है। रोड से सटे हुए गाँवो से चप्पल प्रथा खत्म हो गया है लेकिन जो अभी भी अंदर दूर-दराज के गांव हैं, आउट में वहां पर अभी भी ये प्रथा चल रही है।
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क्या है यह चप्पल प्रथा?
चप्पल प्रथा – जिन गाँवों में उच्च जाति के माने जाने वाले लोग होते हैं और दलित लोग भी वहां हैं तो दलित समुदाय की महिलाएं चप्पल पहन के उच्च जाति के दरवाजे से नहीं निकल सकती। अगर वह बाहर कहीं बैठे हैं तो भी उन्हें चप्पल हाथ में लेकर चलना होता है। अगर दलित महिलाएं चप्पल पहन के उच्च जाति के दरवाजे से या उनके सामने से निकलती हैं तो समाज में ऊंची जाति के माने जाने वाले लोग महिलाओं से तो कुछ नहीं करते लेकिन उनके पुरुषों से शिकायत करते हैं कि तुम्हारी बीवी की इतनी हिम्मत, तुम्हारी बहन की इतनी हिम्मत, चप्पल पहन के यहां से निकल गई। तुम्हारी बहू ने हमारा सम्मान नहीं किया और उसकी इतनी हिम्मत हो गई हमारे दरवाजे से चप्पल पहन कर जाएगी, हमारा सम्मान नहीं करेगी, हमारी इज्जत नहीं की, हमें अपमानित कर दिया। इसके बाद में आकर पुरुष अपने घर की महिलाओं को डांटते हैं और चप्पल उतार के चलने को कहते हैं।
ललितपुर जिले के मडावरा ब्लॉक के ग्राम पंचायत नीमखेड़ा की रहने वाले भगवती ने जब 2016 में चप्पल प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई तो उन्हें भी बहुत-सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, बहुत संघर्ष करना पड़ा तब जाकर के भगवती चप्पल प्रथा को अपने गांव में पूरी तरह से खत्म कर पाईं। भगवती ने बताया, उस आंदोलन के बाद मुझे गांव के उच्च जाति के लोग काफी धमकियां देते थे। सीधे से उन्होंने यह नहीं कहा कि यह चप्पल की वजह से वह हमारे साथ ऐसा कर रहे हैं लेकिन वही वजह थी जो उन्होंने हमारे पति को और मुझे मारा, हिंसा की हमारे साथ, प्रताड़ित किया और आज भी उस केस को हम लड़ रहे हैं। एससी, एसटी का मुकदमा कायम हुआ। हमने लड़ाई लड़ी और आज भी हम लड़ाई लड़ने से पीछे नहीं है। साल 2016 से मैं अब तक लड़ाई लड़ती चली आ रही हूं।
भगवती ने बताया यह लड़ाई लड़ने की हिम्मत मुझे सहजनी से मिली। सहजनी शिक्षा केंद्र की मीना दीदी ने हमें जागरूक किया। हमें बताया चप्पल हाथ में लेकर चलने की चीज़ नहीं है, पैर में पहनी जाती है फिर हमने उनकी बात मानी और उच्च जाति के दरवाजे से चप्पल पहन कर चलने लगे।
अगर इस इलाके में भगवती जैसी महिला हर एक गांव में हो जाए तो हर गांव से यह चप्पल प्रथा खत्म हो सकती है। अभी भी कारण है इस हिंसा को सहने का कि बहुत से गांव में दलित समुदाय आज भी बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहा है। आज भी वह चमार जाति पर आश्रित हैं। उनके यहां काम मिलेगा तो उन्हें काम है, उनका घर चल रहा है, उनका चूल्हा जल रहा है वरना उनके पास काम नहीं है। इसी वजह से वह इस दबाव के कारण चप्पल प्रथा को लागू किए हैं और उच्च जाति माने जाने वाले लोगों के दरवाजे से चप्पल उतारकर चलते हैं।
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