बिलासपुर जिला छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है I उसका कारण है विशालकाय खूंटाघाट बांध; यह जलाशय एक बहुउद्देशीय सिंचाई परियोजना है। इस बांध का निर्माण बिलासपुर जिला में रतनपुर नगर के किनारे पलमा पहाड़ी से निकली खारुन नदी पर किया गया है। लेकिन जहां इस जलाशय ने कई किसानों के खेत तक पानी पहुंचाया है, वहीं इसका इतिहास आदिवासियों की भूमि बेदखली से भरा है। क्षेत्र के स्थानीय लोगों का कहना है कि 1920s में जब बांध बनाया गया था, तब 20-25 गाँवों के आदिवासियों को बेदखल कर दिया गया था।
इस बांध को अंग्रेज़ सरकार द्वारा सन् 1923-24 में बनाया गया, इसका क्षेत्रफल लगभग 43 हजार एकड़ भूमि पर फैला हुआ है, इस जलाशय की भराव क्षमता 196.32 मिलियन घन मीटर है, वर्तमान में इसमें 85 प्रतिशत जल भरा हुआ है।
खूंटाघाट जलाशय क्षेत्र में बांध बनने से पूर्व तेंदू के वृक्षों का घना जंगल था। उस वक़्त जब अंग्रेज़ सरकार द्वारा सन् 1920 में बांध बनाने का नक्शा बनाया गया तब इन बड़े-बड़े वृक्षों को नहीं काटकर उचित स्थान का चयन करके खारून नदी पर बांध बनाना शुरू कर दिया गया। पेड़ों को नहीं काटने के कारण जलाशय बनने के बाद सभी पेड़ जलाशय के पानी में डूब गए। जब आदिवासी मछुआरे खूंटाघाट जलाशय पर डोंगा (नाव) के द्वारा मछली पकड़ने जाते थे तो उनका डोंगा उन बचे हुए वृक्षों के ठूंठ पर बार-बार टकराता था जिसे मछुआरे खूंटा कहते थे I इसी कारण इस जलाशय का नाम खूंटाघाट जलाशय रखा गया, वर्तमान में इसे संजय गांधी जलाशय के नाम से जाना जाता है।
इस जलाशय के आसपास का दृश्य बहुत ही मनमोहक एवं अद्भुत है। यहाँ पर दूर-दूर के सैलानी घूमने, सैर करने एवं पिकनिक मनाने के लिए आते हैं। अब खूंटाघाट जलाशय अपने आप में एक प्रसिद्ध पर्यटन एवं दार्शनिक स्थल है l इस बांध के आसपास बहुत से दार्शनिक स्थल भी हैं जैसे कि रतनपुर में माँ महामाया मंदिर, हनुमान गिरी पर्वत, जलाशय के अंदर एक छोटा द्वीप के आकार का टापू एवं इस जैसे अनेक मनोरम स्थान हैं जिनसे इस जलाशय की छटा देखते ही बनती है।
इसमें मगरमच्छ भी अपना निवास स्थान बनाए हुए हैं और जब जलाशय के अंदर छोटा द्वीप (टापू ) पर धूप लेने के लिए निकलते हैं तो यहाँ आये सैलानी देखने को आतुर हो जाते हैं, इस क्षेत्र में बंदरों का एक समूह भी रहता है, जब वे निकलते हैं, तो यह समूह बच्चों के लिए आकर्षण का केन्द्र होता है l
खूंटाघाट जलाशय के पास रहने वाले 79 वर्षीय श्री अर्जुन दास जी ने बताया कि, “मैं एक कृषक परिवार से हूँ, खूंटाघाट जलाशय के कारण हमारे सभी आदिवासी भाइयों का ज़मीन डुबान में आ गया, क्योंकि उस समय सोना चांदी का प्रचलन था, तो अंग्रेज़ सरकार द्वारा भूमि स्वामीयों को ज़मीन के बदले पैली (बांस से बना टोकरी) कुरो (लकड़ी से बना पात्र) आदि पात्रों में तांबा, चांदी भरकर दिया गया। उस समय लोग शहर की ओर जाना नहीं चाहते थे I इस डूबान में बहुत से गाँव प्रभावित हुए जिससे कुछ आदिवासी किसान उत्तर दिशा में गहनीया पारा, बतरा, पोंडी आदि गाँवों में जाकर रहने लगे, कुछ लोग बिलासपुर स्टेशन की ओर चले गए बाकी लोग धावां, रोनहीडीह, जनकपुर ये तीनों गाँव में बस गए।”
अर्जुन दास ने आगे कहा, “डुबान क्षेत्र में जो ज़मीन है, पहले उसको गांव के निवासियों द्वारा हर 20 साल के लिए नीलामी किया जाता था जहाँ पर लोग अपना-अपना खेती करते थे। बाद में इसे कम करके 15 से 5 वर्ष किया गया तत्पश्चात 2 से 3 तथा वर्तमान में 1 वर्ष रखा गया है। अब हर साल ज़मीन को नीलामी द्वारा किसानों को खेती करने के लिए दिया जाता है। धावां गाँव में मेरे 4 पीढ़ी तक निवास कर चुके हैं और इसी डुबान ज़मीन पर खेती करके अपना जीवन यापन करते थे अब मैं भी यहाँ खेती कर रहा हूँ।”
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डूबे ज़मीन के बदले अंग्रेज़ सरकार ने लोगों को दूसरे जगह तो बसा दिया परंतु जो डुबान के थोड़े ऊपर थे वह वहीं रह गए और अपना खेती-बाड़ी करने लगे। सरकार द्वारा इस डूबा क्षेत्र में कुछ सुविधाएं तो मिला है जैसे कि – बिजली, प्रधानमंत्री सड़क, स्कूल, पेयजल, इत्यादि लेकिन कुछ कार्य ऐसे हैं जो अभी भी अधूरे पड़े हुए हैं।
जो ज़मीन डुबान में है उसे आदिवासी स्थान घोषित किया गया है जिसमें केवल आदिवासी और सेना को ही रहने की अनुमति है। परंतु वर्तमान में सही व्यवस्था न होने की वजह से गैर आदिवासी भी अपना जुगाड़ बना कर निवास कर रहे हैं, जिससे आदिवासियों की खेती करने का जगह में कमी आ रही है।
यह लेख Adivasi Awaaz प्रोजेक्ट के अंतर्गत लिखा गया है जिसमें Prayog samaj sevi sanstha और Misereor का सहयोग है l
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