खबर लहरिया Blog केन बेतवा लिंक परियोजना : सरकार पर्यावरण संबंधी परियोजनाओं में क्यों नहीं लेती पर्यावरण संस्थाओं की राय?

केन बेतवा लिंक परियोजना : सरकार पर्यावरण संबंधी परियोजनाओं में क्यों नहीं लेती पर्यावरण संस्थाओं की राय?

केन बेतवा लिंक परियोजना के लिए लोगों को विस्थापित किया जा रहा है। हज़ारों-लाखों पेड़ों की कटाई हो रही है। ऐसे में पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्थाओं का कहना है कि सरकार उनके साथ भी चर्चा करे कि किस तरह से काम होना चाहिए।

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बदलती जलवायु का सबसे ज़्यादा असर पर्यावरण पर हो रहा है। प्राकृतिक चीज़ों के अंधाधुन व अवैध इस्तेमाल ने पर्यावरण को और भी ज़्यादा गहरे संकट में डाल दिया है। कुछ दिनों पहले ही पर्यावरण दिवस के मौके पर पर्यावरण से संबंधित काम करने वाली कई संस्थाओं ने पर्यावरण के मुद्दे पर लंबी बातचीत की। इस बातचीत का केंद्र यूपी की केन बेतवा लिंक परियोजना व पर्यावरण संस्थाओं का इन परियोजनाओं में राय को लेकर रहा।

आपको बता दें, केन यमुना की सहायक नदी है जो बुंदेलखंड की मुख्य नदियों में से एक है। केन नदी के किनारे खेती करते किसान इस नदी पर ही अपनी फसलों की सिंचाई के लिए आश्रित रहते हैं। केन नदी जबलपुर, एमपी से शुरू होते हुए पन्ना जिले में आकर कई धाराओं से जुड़ती है और फिर यूपी के बाँदा में इसका यमुना नदी में मिलन होता है।

बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग व अवैध खनन ने नदी के जलस्तर को नीचे कर दिया है और इसके साथ ही नदी पर आश्रित लोगों को भी बेसहारा कर छोड़ दिया है।

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पर्यावरण को लेकर संस्थाओं के विचार

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6 जून को पर्यावरण दिवस के मौके पर पन्ना जिले में एक कांफ्रेंस रखवाई गयी थी जिसमें कई पर्यावरण से जुड़ी संस्थाओं ने भाग लिया। एक संस्था संबंध रखने वाले संतोष नाम के व्यक्ति केन बेतवा लिंक परियोजना की बात रखते हुए कहते हैं कि परियोजना से सिंचाई व बिजली का फायदा होगा। साथ ही बाढ़ का भी खतरा नहीं रहेगा। यह सब एक जगह है लेकिन इससे पर्यावरण को सबसे ज़्यादा नुकसान होगा। परियोजना के दौरान हज़ारों-लाखों की संख्या में पेड़ कटेंगे, जीव-जंतु मरेंगे। लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। परिवार बिखर जाएंगे।

आपको बता दें, साल 2005 में केन बेतवा लिंक परियोजना की शुरुआत हुई थी। इस समय इस योजना का काम ज़ोरों पर है।

मानसी संस्था के संदीप जो की पर्यवारण प्रेमी और कवि भी हैं, उनका मानना है कि पर्यावरण को क्षति पहुंचेगी तो ज़मीन के नीचे रहने वाले जीव-जंतु भी आहत होंगे। पेड़ों के कटने से एमपी के पन्ना और छतरपुर जिले की खूबसूरती खत्म हो जायेगी।

संदीप कहते हैं कि जिन सुविधाओं की बात की जा रही है कि सिंचाई की ज़मीन व बिजली मिलेगी। गांव के लोगों को बिजली की उतनी ज़रुरत नहीं है जितनी उन्हें जंगल से मिलने वाली सुख-सुविधाओं की है। गांव के लोगों को सिंचाई का पानी कैसे मिलेगा? यहां पर कुछ दिन बाद नदी में पानी की जगह धूल उड़ेगी। सूखे की स्थिति पैदा हो जाएगी क्योंकि यह जो एरिया है यह ऊंचाई में है और केन एक ऐसी नदी है जिसमें पहाड़ और जंगल के पेड़ों का पानी आता है। जब यही पानी उतार के बेतवा में डाल दिया जाएगा तो यह नदी कुछ दिन बाद सूखने की कगार पर आ जाएगी।

जहां बात रही बाढ़ से बचाव कि तो आज से 15 सालों से तो देख ही रहें कि बाढ़ आई ही नहीं है। केन एक ऐसी नदी है जहां पर बाढ़ की कोई विशेष संभावना नहीं रहती। बिहार और असम में बहने वाली नदियों में इस तरह की परियोजना और डैम की ज़रुरत थी जहां हर साल बाढ़ से लाखों लोग प्रभावित होते हैं।

वह आगे कहते हैं कि इस समय जो गठजोड़ परियोजना चल रही है उससे लाभ कम और नुकसान बहुत ज़्यादा है। उनका कहना है कि सरकार पर्यावरण प्रेमी और संस्थाओं के साथ चर्चा करे कि किस तरह से काम होना चाहिए।

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विस्थापन और केन परियोजना

खबर लहरिया ने साल 2021 में केन बेतवा लिंक परियोजना की रिपोर्टिंग करते समय पाया कि ढोडन गांव के लोगों को कई चीज़ों को लेकर अँधेरे में रखा जा रहा था। लोगों को यह नहीं पता था कि उन्हें कितना मुआवज़ा मिलेगा या उन्हें कहां विस्थापित किया जाएगा।

विस्थापन के नाम पर गांव का विकास रुक गया। गाँव में बिजली नहीं है, न निकलने का रास्ता, न स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा। लोगों की यही मांग रही कि विस्थापन से पहले उन्हें बताया जाए कि उन्हें कितना मुआवज़ा मिलेगा, वह कहां विस्थापित हो रहें हैं ताकि वह विकास की कल्पना कर सकें।

पर्यावरण संस्थाओं से बात करे सरकार

कोशिका संस्था की निकिता का कहना है कि सभी संस्थाएं मिलकर पर्यावरण के मुद्दे पर विचार-विमर्श करें और सोचे कि किस तरह से इस परियोजना के तहत हो रहे कामों के बारे में चर्चा हो। वह चाहती हैं कि सरकार संस्थाओं और पर्यावरण प्रेमियों के साथ मिलकर चर्चा करे फिर इस काम को आगे बढ़ाएं। लोगों से जाने कि लोग क्या चाहते हैं और इस योजना से लोगों को किस तरह के फायदे होने वाले हैं। जिन लोगों को जानकारी नहीं है उन्हें योजना की जानकारी हो। किस तरह का सर्वे हुआ है यह जानकारी हो। जो सरकारी आंकड़ों में कहा जा रहा है कि 12,000 लोगों को विस्थापित किया जाएगा तो आखिर उन्हें कहां जगह दी जायेगी?

यहां सवाल यही रहा कि जब विकास में मुद्दे में पर्यावरण विशेष तौर पर आ रहा है तो सरकार द्वारा आखिर क्यों पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्थाओं या पर्यावरण प्रेमियों को विकास की योजनाओं से नहीं जोड़ा जा रहा? क्यों उनसे उनकी राय नहीं मांगी जा रही है? वहीं लोगों का सबसे बड़े सवाल यही है कि अगर परियोजना के दौरान उन्हें हटाया जा रहा है तो उन्हें रहने के लिए कौन-सी जगह दी जायेगी? उन्हें मुआवज़ा मिलेगा या नहीं? अगर मिलेगा तो कितना? विस्थापित हो रहे लोगों के लिए विकास से ज़्यादा बड़ा सवाल यह है कि वह दोबारा नई जगह पर अपना परिवार कैसे बसायेंगे?

इस खबर की रिपोर्टिंग गीता देवी द्वारा की गयी है। 

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