मुजफ्फरनगर के खतौली इलाके में एक लोकप्रिय चाय की दुकान, लवर्स टी पॉइंट के मालिक वकील अहमद ने कहा कि उन्होंने पुलिस के दौरे के बाद अपने दुकान का नाम बदलकर वकील साहब चाय रख दिया। आगे कहा, “लेकिन पुलिस ने दोबारा दौरा किया और तर्क दिया कि नाम से यह स्पष्ट नहीं होता कि मैं मुस्लिम हूं। उन्होंने मुझे वकील अहमद नाम से एक और साइनबोर्ड लगाने के लिए मजबूर किया।” आगे कहा कि उनके लिए अपने दुकान की दशकों पुरानी पहचान को बदलना बहुत दर्द देने वाला था।
कांवड़ यात्रा (वार्षिक हिन्दू तीर्थ यात्रा) के दौरान दुकानों के बाहर दुकानदारों को अपनी नेमप्लेट लगाने के यूपी,मध्यप्रदेश व उत्तराखंड सरकार के निर्देश पर सुप्रीम कोर्ट ने आज 22 जुलाई को अंतरिम तौर पर रोक लगा दी है। न्यायाधीशों ने कहा कि भोजनालय-मालिकों को सिर्फ उनके द्वारा परोसी जाने वाली वस्तुओं के नाम प्रदर्शित करने की ज़रूरत है। इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, अदालत इस मामले की अगली सुनवाई 26 जुलाई को करेगी।
राज्य सरकारों का यह फैसला व विचार न सिर्फ धार्मिक व विशेष समुदाय को केंद्रित करते हैं बल्कि यह भी दावा करने की कोशिश करते हैं कि मांस से जुड़े व्यवसाय सिर्फ कोई एक समुदाय ही करता है। जबकि वास्तविकता में हर कोई हर प्रकार का व्यवसाय करता है व हर व्यवसाय सिर्फ समुदाय या धर्म आधारित नहीं है जिसे यहां राज्य सरकार कहती हुई दिख रही है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, यह आदेश उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार द्वारा आज शुरू हुई कांवड़ यात्रा व सावन से पहले ज़ारी किया गया था। सीएम योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार व सीएम पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली उत्तराखंड सरकार – यहां दोनों ही राज्यों में भाजपा की संघीय रूप से सत्ता है। इन राज्यों की सरकारों ने कांवड़ यात्रा मार्ग पर भोजनालयों को दुकानों के मालिकों की नेमप्लेट लगाना अनिवार्य किया था जिससे धार्मिक भेदभाव व रोष फैलने की सबसे ज़्यादा आशंका है।
बीबीसी इंग्लिश की रिपोर्ट बताती है कि विपक्षी दलों और यहां तक कि भाजपा के सहयोगियों ने भी इसकी आलोचना की। विपक्ष ने आरोप लगाया है कि आदेश “सांप्रदायिक और विभाजनकारी” थे। उनका उद्देश्य मुसलमानों और अनुसूचित जातियों को अपनी पहचान उजागर करने के लिए मजबूर करके उन्हें टारगेट करना था। वहीं भाजपा ने कहा कि यह कदम कानून और व्यवस्था के मुद्दों, तीर्थयात्रियों के धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उठाया गया है।
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Kanwar Yatra nameplate controversy: मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट का बयान
शीर्ष अदालत ने निर्देशों को चुनौती देने वाली टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा, शिक्षाविद् अपूर्वानंद झा और कॉलमनिस्ट आकार पटेल और एनजीओ एसोसिएशन ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स की याचिकाओं पर सुनवाई की।
न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी की पीठ ने निर्देश को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश सरकारों से जवाब मांगते हुए उन्हें नोटिस ज़ारी किया।
– पीठ ने कहा कि राज्य पुलिस दुकानदारों को अपना नाम प्रदर्शित करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। उन्हें सिर्फ खाद्य पदार्थ प्रदर्शित करने के लिए कहा जा सकता है।
– “यह तर्क दिया गया है कि उपरोक्त बातें धर्म के आधार पर भेदभावपूर्ण हैं और अस्पृश्यता (छुआछूत) को बढ़ावा देंगी।”
– सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “विक्रेताओं को अपने प्रतिष्ठान में मालिकों और कर्मचारियों के नाम प्रदर्शित करने को कांवरिया यात्रियों के लिए शाकाहारी या शुद्ध शाकाहारी भोजन सुनिश्चित करने के उपाय के रूप में नहीं देखा जा सकता है।”
– पीठ ने कहा, “यात्रियों की आहार संबंधी प्राथमिकताओं को केवल शाकाहारी भोजन परोसे जाने से सुनिश्चित किया जा सकता है, और खाद्य व्यवसाय के मालिकों के लिए नाम की आवश्यकता शायद ही इच्छा की गई उद्देश्यों को प्राप्त करती है।”
– कहा, “अगर निर्देशों को लागू करने की अनुमति दी जाती है, तो यह संविधान और प्रस्तावना के लक्ष्यों के खिलाफ है और अनुच्छेद 14, 15, 17 के तहत गारंटीकृत अधिकारों का उल्लंघन है।”
– कोर्ट ने आगे कहा, “हम उपरोक्त निर्देशों के कार्यान्वयन पर रोक लगाने के लिए एक अंतरिम आदेश पारित करना उचित समझते हैं। दूसरे शब्दों में, प्रभावित मालिकों को भोजन का प्रकार प्रदर्शित करना होगा, लेकिन नाम नहीं।”
Kanwar Yatra nameplate controversy क्या है?
कांवड़ यात्रा व दुकानदारों द्वारा उनका नाम सामने दिखाने का पूरा मामला पिछले हफ्ते से शुरू हुआ। जानकारी के अनुसार, उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और सहारनपुर जिलों के अधिकारियों ने तीर्थयात्रा के दौरान मांस और शराब से परहेज करने वाले श्रद्धालुओं के बीच “शंका” को खत्म करने के लिए तीर्थयात्रा मार्ग पर भोजनालयों को अपने मालिकों के नाम प्रदर्शित करने के लिए कहा।
बता दें, कांवड़ यात्रा (वार्षिक तीर्थयात्रा) हिन्दू कैलेंडर के अनुसार हिन्दू पवित्र महीने सावन के दौरान होती है जोकि आज 22 जुलाई से शुरू है। इसमें भगवान शिव को मानने वाले हिन्दू भक्त धर्म ग्रंथों के अनुसार पवित्र गंगा नदी के किनारे स्थित धार्मिक स्थलों तक पैदल यात्रा करते हैं। जिसमें कभी-कभी कई दिन व हफ्ते लग जाते हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार, इन तीर्थयात्रियों में अमूमन युवा पुरुष दिखाई देते हैं, जो मंदिर शहरों की ओर आते-जाते समय उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान जैसे राज्यों से होकर गुजरते हैं।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने इस साल की शुरुआत में कथित तौर पर भक्तों के “सम्मान” के प्रतीक के रूप में तीर्थयात्रा मार्गों पर खुले में मांस की बिक्री और खरीद पर प्रतिबंध लगा दिया था।
उत्तराखंड राज्य और मध्य प्रदेश के उज्जैन शहर ने भी रेस्तरां को अपने बोर्ड पर मालिकों और कर्मचारियों के नाम प्रदर्शित करने का आदेश दिया था।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने हवाला देते हुए कहा कि “कुछ होटल और ढाबा [भोजनालय] संचालकों द्वारा अपनी असली पहचान छिपाने के कारण” आपराधिक घटनाएं होती हैं और इस आदेश का उद्देश्य भविष्य में ऐसे मामलों को रोकना है।
विपक्षी व भाजपा सहयोगियों ने भी की Nameplate फैसले की आलोचना
विपक्षी दलों ने भाजपा की सत्ता वाले राज्य सरकारों के इस फैसले को “विभाजनकारी” बताया। आरोप लगाया कि सत्तारूढ़ भाजपा मुसलमामों को आर्थिक रूप से बहिष्कृत कर रही है। मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि रविवार, 21 जुलाई को संसद के बजट सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक में यह मुद्दा उठाया गया था।
इसके साथ ही भाजपा अधिकृत राज्य सरकारों के इस संयुक्त फैसले की आलोचना उसके सहयोगियों ने भी की।
भाजपा के सहयोगी जनता दल (यूनाइटेड) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने सत्तारूढ़ दल से आदेश की समीक्षा करने का आग्रह करते हुए कहा कि “इससे भी बड़ी कांवर यात्रा [उत्तर प्रदेश में] बिहार में होती है। ऐसा कोई आदेश वहां प्रभावी नहीं है।”
वहीं भाजपा के एक अन्य सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख चिराग पासवान ने कहा, “जब भी जाति या धर्म के नाम पर इस तरह का विभाजन होता है, मैं बिल्कुल भी इसका समर्थन नहीं करता या इसे प्रोत्साहित नहीं करता।”
Nameplate विवाद को लेकर दुकानदारों ने क्या कहा?
मुजफ्फरनगर के खतौली इलाके में एक लोकप्रिय चाय की दुकान, लवर्स टी पॉइंट के मालिक वकील अहमद ने कहा कि उन्होंने पुलिस के दौरे के बाद अपने दुकान का नाम बदलकर वकील साहब चाय रख दिया – बीबीसी अंग्रेजी की रिपोर्ट।
आगे कहा, “लेकिन पुलिस ने दोबारा दौरा किया और तर्क दिया कि नाम से यह स्पष्ट नहीं होता कि मैं मुस्लिम हूं। उन्होंने मुझे वकील अहमद नाम से एक और साइनबोर्ड लगाने के लिए मजबूर किया।” आगे कहा कि उनके लिए अपने दुकान की दशकों पुरानी पहचान को बदलना बहुत दर्द देने वाला था।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि कई दुकानदारों ने पुलिस के दबाव व डर में आकर ही अपने दुकानों के सामने बड़े-बड़े अक्षर में अपने नाम लगाए हैं।
वहीं मुज़फ़्फ़रनगर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अभिषेक सिंह ने इन आरोपों का कोई जवाब नहीं दिया बल्कि बीबीसी को पुलिस द्वारा ज़ारी एक बयान का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि दुकानदारों को अपनी इच्छा से नाम प्रदर्शित करने के लिए कहा गया था।
रेस्तरां मालिकों का कहना है कि वे पिछले साल से ही दबाव में हैं, जब एक स्थानीय हिंदू धार्मिक नेता ने हिंदू देवी-देवताओं के नाम पर मुस्लिम स्वामित्व वाले भोजनालयों को बंद करने की मांग शुरू कर दी थी।
मामले की शुरुआत से लेकर अंत तक जहां ये हवाला दिया गया कि सभी फैसले धार्मिक आस्था को आहत होने से बचाने के लिए हो रहे हैं, वे फैसले एक व्यक्ति को धार्मिक तौर पर अपनी पहचान सामने रखने के लिए मज़बूर कर रहे हैं। इस मानसिकता के साथ कि विशेष समुदाय ही मांस का व्यवसाय करता है व इन्हें सामने रखने से किसी अन्य/ फैसले के अनुसार धार्मिक आस्था को बचाया जा सकता है। ऐसे में अन्य धार्मिक पहचानों और उनकी सुरक्षा का क्या? इस फैसले को अलग-अलग तरह भेदभावपूर्ण कहा गया है जिसे लेकर आगे चर्चा 26 जुलाई को होनी है।
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