“हमारा उद्देश्य यह नहीं था कि सारी लड़कियां पत्रकार बन पाएं पर हमारा मकसद यह ज़रूर से था कि सभी लड़कियां अगर अपनी डिजिटल ताकत को पहचान कर अपने लिए ही आवाज़ उठा पाएं, अपने हक़-अधिकार अपनी ताकत, अपनी हिम्मत, हुनर को समझ पाएं तो इस टेक्नोलॉजी के बदलते ज़माने में वे अपने आपको सक्षम बना पाएंगी।”
मार्च का महीना था, तेज धूप के साथ सुबह का सूरज निकला था, एक कच्चे से घर में मैं और मेरे दो भाई थे। मम्मी-पापा किसी काम से गांव गए हुए थे, तभी मेरे घर में कुछ अनजान महिलाएं आई जिन्हें देखकर हमें घबराहट हो गई। ये कौन हैं? अंदर क्यों आ रही हैं? हमने पूछ आप कौन हैं? तो बुंदेली भाषा में लिखा हुआ गांव की समस्या बताने वाला न्यूज़ पेपर खबर लहरिया बाहर निकालकर हाथों में थमा दिया। मैनें पूछा,
ये कौन-सा न्यूज़ पेपर है? न्यूज़ पेपर तो हिंदी में लिखा होता है और बहुत बड़ा होता है। फिर वह हमसे हमारे आस-पास में हो रहे प्रदूषण के बारे में बात करने लगी। हमने जल्दी से मोहल्ले की कई महिलाओं को बुलाकर इकट्ठा कर लिया। बातचीत के बाद पता चला कि महोबा जिले में संचालित खबर लहरिया में महिलाओं व लड़कियों की ज़रूरत है। उसने जुड़ने का, काम करने के लिए हमे मौक़ा मिल रहा है। हमने न सोचा, न समझा बस हां कर दी।
“मैं सुनीता प्रजापति हूँ और मैं बुंदेलखंड के एक-छोटे से गांव से आती हूँ। पिछले दस साल मैंने खबर लहरिया में अलग-अलग पदों पर काम किया। अब पिछले दो सालो से मैं चम्बल अकादमी में कोर्डिनेटर और ऑपरेशन मैनेजर के पद पर काम कर रही हूँ।” – यह मेरा वर्तमान और मैं हूँ।
डिजिटल पहुंच
खबर लहरिया 2002 में ग्रामीण महिलाओं द्वारा शुरू किया गया एक न्यूज पेपर था, खबर लहरिया 2015 में प्रिंट से डिजिटल हो गया। इसमें ग्रामीण व हासिये से आने वाली दलित,एससी,एसटी,मुस्लिम,आदिवासी इत्यादि सभी महिलाएं काम करती हैं। ये महिलाएं गांव-गांव जाकर दबी आवाजों को सामने लेकर आती हैं और न्यूज़ के माध्यम से उजाकर उन आवाज़ों को करती हैं।
जब हम प्रिंट से डिजिटल हुए तो पता चला कि लाखों लोगों तक हमारी खबरें पहुंच रही है। हमें डिजिटल का बहुत फायदा हुआ है। ऐसी कई स्टोरियां हैं जिनका ट्विटर के माध्यम से तुरंत समाधान भी हुआ है, खासकर लॉकडाउन के समय।
हमने अपनी कहानी,अपनी मुश्किलों को महसूस किया कि एक महिला और एक लड़की को पढ़ाई और बाहर निकलने के लिए किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है। पढ़-लिखकर भी वे दूसरे के सहारे रहने को क्यों मज़बूर रहती हैं।
इसी सोच के साथ चम्बल अकादमी की शुरुआत की। हर किसी को आगे बढ़ने के लिए एक मौका और उसके साथ-साथ हिम्मत की ज़रूरत होती है। हमने सोचा क्यों न हम वो मौका और वो हिम्मत उन लड़कियों व महिलाओं के लिए बनें।
चंबल अकादमी से रिज़वाना फैलोशिप तक
हमें लगा की दुनिया डिजिटल के क्षेत्र में प्रगति कर रही है, उससे फायदे भी हैं तो हमने एक कदम और डिजिटल की दुनिया में रखा। “हमने चंबल मीडिया के अंतर्गत चंबल अकादमी की शुरुआत की और पहला डिजिटल रूरल मोबाईल जर्नलिजम कोर्स जुलाई 2021 में पायलट के रूप में यू.पी, एम.पी और बिहार राज्यों में शुरू किया। चम्बल अकादमी के द्वारा अभी तक 465 लड़कियों और महिलाओं को प्रशिक्षित किया जा चुका है, जिसमें हाल ही में शुरू हुआ रिजवाना फैलोशिप शामिल है।”
रिज़वाना फैलोशिप के तहत 7 राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान, उत्तराखंड, हरियाणा और छत्तीसगढ़ से 145 एप्लिकेशन आई थीं, जिसमें से 30 स्टूडेंट (महिलाएं, लड़कियां, ट्रांस महिलाएं) को सेलेक्ट किया गया था। ये ऐसे स्टूडेंट्स थे जो ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं जिनकी शिक्षा तक उनकी पहुंच नहीं थी। ये दलित,आदिवासी व मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाली महिलाएं, लड़कियां थीं। हमारी कोशिश थी कि हम इन महिलाओं और लड़कियों को डिजिटल दुनिया की ताकत को समझा पाए। साथ ही हम कैसे अपने और अपने आस-पास के दबी आवाजों को बाहर लाने में डिजिटल की मदद ले सकते हैं, उसके ज़रिये के बारे में भी उन्हें रूबरू करवाएं।
चंबल मीडिया की बात करें तो वह एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है, जिसके दो वर्टिकल हैं। खबर लहरिया और चम्बल अकादमी। चम्बल अकादमी एक ऑनलाइन शिक्षण का माध्यम है जिसका रूप इस समय विस्तृत हो चुका है।
रिज़वाना फैलोशिप के ज़रिये पहुंच व ताकत की पहचान
‘रिज़वाना फैलोशिप’ हमारे दिल से जुड़ा हुआ है। इस फैलोशिप का नाम हमने अपनी टीम की सदस्य के नाम पर रखा। रिजवाना हमारी टीम की वह युवा निडर पत्रकार थीं जो पिछड़े कहे जाने वाले समुदाय से आती थीं, जिसने घर-समाज की उन पितृसत्तात्मक विचारों को तोड़ा, जो उसे आगे बढ़ने से रोकती आ रही थी।
रिज़वाना फैलोशिप को शुरू करने का हमारा मकसद ही यही था कि हम रिज़वाना जैसी उन सभी लड़कियों को पिछड़े इलाकों से निकालकर बाहर लाएं, जो अपनी आवाज को बुलंद कर अपने आस-पास की कहानियों को बता सकें।
“हमारा उद्देश्य यह नहीं था कि सारी लड़कियां पत्रकार बन पाएं पर हमारा मकसद यह ज़रूर से था कि सभी लड़कियां अगर अपनी डिजिटल ताकत को पहचान कर अपने लिए ही आवाज़ उठा पाएं, अपने हक़-अधिकार अपनी ताकत, अपनी हिम्मत, हुनर को समझ पाएं तो इस टेक्नोलॉजी के बदलते ज़माने में वे अपने आपको सक्षम बना पाएंगी।”
स्टूडेंट्स के लिए पहले रिज़वाना फैलोशिप का चयन करना और फिर उसे निभाना, दोनों ही चुनौती रही। अगर मैं हमारी रिज़ फैलो आयुषी मौर्या की बात करूं जिसकी उम्र 19 साल है। वह सुल्तानपुर के एक गांव की रहने वाली है। आयुषी ने हमारा मोबाईल जर्नलिज्म कोर्स करने के लिए अपने घर वालों से पहली बार मोबाईल फोन मांगा और उसके बाद इस कोर्स को पूरा भी किया।
हमारी फैलो शाक्षी और रितुरानी जो हरियाणा राज्य के एक छोटे-से गांव से आती हैं, पहली बार अपने घर से निकल कर उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में ट्रेनिंग के लिए आईं।
उनके लिए अपने परिवार से फोन मांगने के लिए हिम्मत इकठ्ठा करवाना,अपने लिए घर से बाहर निकलने की लड़ाई लड़ना और फिर कोर्स के लिए ट्रेनिंग अटेंड करना, जो हम इस कोर्स के ज़रिये चाहते थे वह तो इन सब ने कोर्स सीखने से पहले ही कर दिया। यही हमारी भी जीत रही।
मैनें इनके जीवन के हर पड़ाव पर आने वाली मुश्किलों-चुनौतियों में खुद को खड़ा हुआ पाया। मेरा सफर भी यही था, मैं भी ऐसे ही निकलकर आई। मुझे भी एक ज़रिया मिला बाहर निकलने का जैसा इन्हें रिज़वाना फैलोशिप के ज़रिये मिला।
रिज़वाना फैलोशिप को मिला GNI का स्पोर्ट
डिजिटल की दुनिया में ‘गूगल न्यूज़ इनिशिएटिव’, के रूप में हमें एक साथी मिला। जीएनआई की मदद से ही हमने चम्बल अकादमी में रिजवाना फैलोशिप प्रोग्राम चलाया था। जीएनआई ने हमें हौसला और साथ दिया, सभी कहानियों को बड़े स्तर पर पहुंचाने का।
मैं फैलोशिप से जुड़ी एक स्टूडेंट ज्योति की कहानी यहां ज़रूर से बताना चाहूंगी, इसलिए भी क्योंकि यही हमारा काम है ‘उन कहानियों को कहना जिसे कोई कहता नहीं, उन कहानियों को लिखना जिसे कोई लिखता नहीं और कहानियां उनके द्वारा ही सामने लाना जिनकी यह कहानियां हैं। ‘
ज्योति हरियाणा राज्य के जींद जिले के एक छोटे से गांव से आती हैं। परिवार में एक बहन है। माँ बाप का साथ बचपन में ही छूट गया था। परवरिश नानी ने की। पहले वह आधारकार्ड सेंटर में काम करती थी। पहली बार अपने घर से किसी नौकरी के लिए बाहर निकली थी। उसके मन में बहुत कुछ सीखने की चाह थी जो उसकी आंखों में दिखाई देती।
कोर्स के प्रति लगन, काम की समझ और काम की पकड़ बहुत थी। मन में बहुत सवाल भी होते थे। जब भी हम हफ्ते में ऑनलाइन मिलते तो वह सबसे पहले आ जाती। शायद उसको भी इस मुलाकात का इंतज़ार रहता था।
उसके अंदर वो जज़्बा, वो जूनून दिखता बस उसे सपोर्ट की ज़रूरत है। मुझे उसकी हिम्मत और हुनर को देखकर अपनी पत्रकारिता का सफर याद आता है। मैं भी बुंदेलखंड के एक छोटे से गांव से आती हूँ जहां लड़कियों को बाहर निकलने की आज़ादी नहीं होती।
मैं ज्योति में अपने आपको देखती हूँ। जैसे इन 21 सालों में हम यहां पहुंचे हैं, आने वाले समय में ज्योति मुझसे भी आगे जायेगी। उन्होंने एक कदम फैलोशिप की तरफ तो बढ़ाया, लेकिन चुनौतियां हमेशा की तरह उनके सामने खड़ी थी जो वह हमेशा से लड़ती आई हैं।
देखिये रिज़वाना फैलो ज्योति की स्टोरी
रिज़वाना फैलोशिप की चुनौतियां
रिजवाना फैलोशिप प्रोग्राम चलाना हमारे लिए इतना आसान नहीं था। स्टूडेंट कोर्स को लॉगिन नहीं कर पाते थे। हम स्क्रीन रिकॉर्डिंग भेजकर उनको कोर्स लॉगिन करवाते थे। जो कोर्स के साथ नहीं चल पा रहे थे, हम उनका अलग से ट्रैक रख रहे थे। उनके साथ हम अलग से कॉल करके बात करते थे।
डिजिटल रूप में तीन महीनें तक सभी स्टूडेंट्स के अंदर कोर्स को लेकर जागरूकता और जोश बनाये रखना हमारे लिए आसान नहीं था। ऐसा इसलिए भी क्योंकि सब सिर्फ डिजिटल रूप में ही मिल रहे थे। ऐसे में हम हर मीटिंग में उन्हें जोड़ने के लिए, बताने के लिए दो से तीन बार कॉल करते थे। जिन्हें ज़ूम के ज़रिये जुड़ना नहीं आता था, हम उन्हें अलग से उसे इस्तेमाल करना, माइक व कैमरे को बंद व चालू करने के बारे में बार-बार बताते थे।
रिज़वाना फैलोशिप की शुरुआत करने से पहले हमने बुंदेलखंड में इंट्रोडक्शन सेशन के लिए दो दिन की ट्रेनिंग रखी थी। इसलिए ताकि फैलोशिप के बारे में सभी स्टूडेंट्स को और गहराई से और विस्तार से जानकारी दी जा सकें। अगर उनके मन में कोई सवाल या कोई शंका है तो उसे भी सुलझाया जा सके।
जैसे की हमने कुछ स्टूडेंट्स के बारे में पहले बताया, उनके लिए अपना घर छोड़कर दूसरे राज्य आना आसान नहीं था और फिर दो दिन की ट्रेनिंग वो भी बाहर। ऐसे में हमने भी स्टूडेंट्स के परिवारों से बात की। हमने उनसे रिक्वेस्ट की, हमने कहा सारी ज़िम्मेदारी हमारी होगी।
जब स्टूडेंट ट्रेवल कर रहे थे तो हम रात भर जागकर उनके साथ कोर्डिनेट करते थे। उन्हें बताते थे कि कौन-सी ट्रेन कहां पर मिलेगी, कितने समय पर आएगी। स्टूडेंट्स को ट्रेनिंग में लाने के लिए हमने उनके परिवारों को भी उनके साथ आने को कहा। हम स्टूडेंट्स को किसी भी तरह से उस घेरे से बाहर निकालना चाहते थे जिसमें हम कई मुश्किलों के बाद कामयाब भी हुए।
जब कभी सोचती हूँ कि आखिर वह क्या चीज़ है जो महिलाओं-लड़कियों को बांधे हुए है, उन्हें बाहर निकलने से रोकती है तो एक ही शब्द ख्याल में आता है, ‘पितृसत्ता।’ कहीं खुलकर घूम नहीं सकते, खा नहीं सकते, पहन नहीं सकते, किसी से बात नहीं कर सकते।
प्रमिला, जिसने खबर लहरिया के साथ काम किया हुआ है, ग्रेजुएट हैं शादी के बाद उन्हें वापस गृहस्थी में खुद को समेटना पड़ा। वह चाह कर भी वहां से नहीं निकल पाईं।
ज्योति जो अच्छी गायिका हैं। सोशल मीडिया पर गाने के रील्स बनाकर डालती हैं पर यह नहीं पता कि खुद को आगे कैसे बढ़ाये।
सुचित्रा जो दिल्ली में रहती हैं पर वह बिहार जाकर अपने गांव में रिपोर्टिंग करना चाहती हैं
सुनिए सुचित्रा की लिखी हुई कविता (यहां)
आयुषी मौर्या, जिसने कोर्स में भाग तो लिया पर जब फील्ड आने की बारी आई तो परिवार ने मना कर दिया। उसकी शादी तय कर दी और उसके हौसले को वहीं दबा दिया।
हमने प्रमिला,ज्योति, सुचित्रा, आयुषी इत्यादि जैसी कई लड़कियों और महिलाओं को बाहर निकालने की कोशिश की जिनके पास संसाधन की पहुंच नहीं है। जिनके पास ज़रिया नहीं है। हम वह ज़रिया बनकर उन तक पहुंचे और उन्हें खुद उनकी आवाज़ उठाने को लेकर प्रेरित किया, उन्हें शिक्षित किया।
रिज़वाना फैलोज़ के काम की झलक
आज हम अपने रूरल मोबाईल जर्नलिजम कोर्स से स्टूडेंट्स के जीवन में और उनमें बदलाव देख पा रहे हैं। उन्हें अपने अधिकारों,अपनी ज़रूरतों और उन्हें क्या करना है, वे उनसे रूबरू हो रहे हैं। अपनी आवाज़ उठाने के साथ-साथ अन्य लोगों की आवाज़ बन रहे हैं, खबर लहरिया के ‘संवाददाता’ के रूप में। वो कुछ इस तरह….
स्टूडेंट्स को दिल्ली ऑफिस और बुन्देखण्ड में एक हफ्ते की इंटर्नशिप कराई गई। हमने देखा लोगों ने बहुत ही जल्दी खबरों को पकड़ना, कैमरा चलाना, स्टोरी ढूंढ़ना, सवाल बनाना-करना सीख लिया। जो स्टूडेंट्स दिल्ली ऑफिस में थे उन्होंने मोबाइल एडिटिंग सीख कर वीडियोज़ एडिट किये जिसे बाद में सोशल मीडिया पर पोस्ट के रूप में भी डाला गया।
फिर यहीं से हमने 30 रिज़वाना फैलोज़ में से 6 स्टूडेंट्स को संवाददाता के रूप में चुना जिनमें हमें काम को लेकर रुचि और उत्सुकता देखने को मिली। ये 6 स्टूडेंट्स अब हमारे साथ काम करते हैं और उन आवाज़ों, उन कहानियों को सामने लेकर आते हैं जिसे देखा जाना, सुना जाना बेहद ज़रूरी है।
पहली बार स्टूडेंट्स का फोन पकड़ना, अपनी स्टोरी का चयन करना, उनमें सवालों को डालना,और एडीट के लिए कौन की शॉट कहा लगेगा, वीवो कैसे डालना है, या एक स्टोरी को परफेक्ट बनाने के लिए क्या क्या चाहिए होता है, ये समझना और सुझाव देना, और जब वह स्टोरी पब्लिश हो जाए तो उसे केएल की वेबसाइट पर देखना। स्टूडेंट्स के साथ-साथ हमने भी यह अनुभव किया।
ये खबर हमारी रिज़वाना फैलोशिप की फैलो प्रमिला देवी ने बनारस जिले से कवर की थी जिसमें उन्होंने दिखाया कि महिलाओं को किस तरह से शौच के लिए बाहर जाना पड़ता है। उन्हें सरकार की स्वच्छ भारत मिशन योजना का लाभ नहीं मिला है।
यह खबर हमारी रिज़वाना फैलोशिप की फैलो सुचित्रा ने की है, जो बिहार राज्य की रहने वाली है व इस समय दिल्ली में रह रही हैं। वह कोर्स करने के बाद बिहार गई। वहां उन्होंने रेलवे पटरी के किनारे रह रहे लोगों की समस्या को लेकर अपनी स्टोरी की।
बिहार राज्य के कोरवास गांव की रहने वाली रिज़वाना फैलोशिप की फैलो मुस्कान की यह खबर दलित बस्ती में पानी की कमी को दर्शाती है। इस बस्ती में एक साल से पानी नहीं आ रहा था। जब उन्होंने इस समस्या को कवर किया तो चैनल पर खबर पब्लिश हुई, उसके तुरंत बाद ही प्रधान और सचिव ने एक्शन लेते हुए पानी की समस्या को ठीक करवा दिया।
यह स्टोरी रिज़वाना फैलोशिप की फैलो मुस्कान द्वारा किये गए ‘खबर के असर’ की है।
राजस्थान की हमारी रिज़वाना फैलोशिप की फैलो यशोदा ने अजमेर से बाल विवाह को लेकर स्टोरी की। बाल विवाह आज भी कई राज्यों में हो रहा है। ये कहानियां बस हिम्मत और प्रेरणा देने का ज़रिया है।
चंबल अकादमी के तहत शुरू किया गया रिजवाना फैलोशिप प्रोग्राम हमारे लिए और शायद हर किसी के लिए कुछ न कुछ रहा। शुरू में तो यह सिर्फ एक ऑनलाइन शिक्षण का माध्यम था, जिसमें महिलाओ को रूरल मोबाईल जर्नलिजम का कोर्स कराया जाता था। अभी हम इसमें ऑनलाइन व ऑफलाइन, दोनों तरह से महिलाओं की अलग-अलग तरह की ट्रेनिंग करते है। अकादमी में अभी मोबाईल जर्नलिजम के अलावा डिजिटल सिक्योरिटी टूलकिट, रूरल रिपोर्टिंग टूलकिट, स्टोरीटेलिंग का प्रशिक्षण दिया जाता है।
मेरे सफर में मैनें समाज के हर रूप,रंग, रुकावटें देखीं। कभी लिंग के रूप में, कभी सुरक्षा के नाम, कभी पितृसत्ता, कभी पहुंच, परिवार, रिश्ते-नाते, समाज के खोखले नियम सब कुछ। ये सब, ये सभी समस्याएं आज भी हैं जो हमने रिज़वाना फैलोशिप की ट्रेनिंग के दौरान देखीं। मैंने उसे एक बार फिर जीया। मेरे सफर में जो मेरा संघर्ष है, जो लड़ाई है, वो कभी खत्म ही नहीं हुई और न मैनें कभी लड़ना छोड़ा। ये सफर साथ का है, एक साथ का है।
इस आर्टिकल को सुनीता देवी व संध्या द्वारा लिखा गया है।
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