खबर लहरिया Blog महोबा की शादियों में उड़द की दाल से बने ‘दही बड़े’ के बिना शादी है अधूरी

महोबा की शादियों में उड़द की दाल से बने ‘दही बड़े’ के बिना शादी है अधूरी

यूपी के जिला महोबा का एक गांव है बम्हौरी खुर्द जहां शादियों में उड़द दाल के बड़े बनाने का रिवाज़ है। वहां की हर शादी में आपको बड़े जरूर मिलेंगें। माना जाता है कि उड़द की दाल के बड़े के बिना शादी अधूरी मानी जाती है।

                                                                                                                 उड़द की दाल साफ़ करते हुए महिलाओं की तस्वीरें

प्रत्येक देश, राज्य, शहर, क्षेत्र गांव के अपने रीति-रिवाज होते हैं। इन रीति रिवाजों को मनाने का ढंग भी हर क्षेत्र में अलग-अलग होता है और हाँ प्रत्येक रस्म की अपनी एक अलग खासियत होती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन से जुड़ें हिस्सों को एक अलग ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। रिवाजों से जुड़ें पलों को समेट कर यादों में रखने के लिए ही तो हम इन्हें सदियों से निभाते चले आ रहें हैं। शादियों को यादगार बनाने के लिए कई तरह की रस्में की जाती हैं। शादियों में सजावट से लेकर खाने के इंतजाम तक, शादियों में शुरुआत से लेकर अंत तक, रस्मों में गाए जाने वाले गीत हमारी यादों में कभी धुंधलें नहीं पड़ते।

ग्रामीण क्षेत्रों के भी अपने अलग रीति-रिवाज होते हैं। गांव से जुड़ें व्यक्ति जब गांव के किस्से और रस्मों को पढ़तें, देखते, सुनते है तो उन्हें अपना घर-गांव याद आने लगता है। ऐसे ही यूपी राज्य के जिला महोबा का एक बम्हौरी खुर्द गांव जहां शादियों में उड़द दाल के बड़े बनाने का रिवाज़ है। वहां की हर शादी में आपको बड़े जरूर मिलेंगें। माना जाता है कि उड़द की दाल के बड़े के बिना शादी अधूरी मानी जाती है।

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उड़द दाल की सफाई

                                                                           छिलके वाले उड़द दाल की तस्वीर जिसे साफ़ करने के लिए बांस की टोकरी में रखा गया है

बम्हौरी खुर्द गांव की भूरी नाम की महिला बताती है, “हमारे गांव की पुरानी परंपरा है। कम से कम 15 किलो उर्द की दाल शादी के मंडप के दो दिन पहले से ही दाल को पानी में भिगोने के लिए रख दिया जाता है। फिर दाल को हैंडपंप पर महिलाएं दाल को अच्छी तरह से साफ करती हैं। पहले महिलाएं तालाबों में जाती थी। जैसे गेहूं को धोने के लिए जाती थी पर अब तालाब का पानी गन्दा हो गया है तो हैंडपंप से ही धोना पड़ता है। उसके बाद जब दाल साफ हो जाती है तो घर में सूती के कपड़े में दाल को फैला देते हैं। उसका पानी सुख जाने के बाद दाल को छोटी चक्की से पिसवाते हैं और पिसवाकर घर लाते हैं। बड़ा बनाते हुए सारी महिलाएं गाना गाती हैं।”

                                                                                                               उड़द की दाल साफ़ करते हुए महिलायें

जब पूछा गया की इतने सारे बड़ा बनाने की क्या जरूरत है? तो महिलाओं ने बोला कि “पहले तो हम 25 से 30 किलो उर्दू की दाल के बड़ा बनाते थे। अब तो कम हो गया है लेकिन 15 किलो से कम नहीं बनाते। बड़ा शादियों में शुरू से बनाते आ रहे हैं इसलिए बनाया जाता है। हमारे शादियों में अगर कम बड़े हो जाएंगे तो बाद में खाने के लिए रिश्तेदार ताने मरते हैं कि इन्होंने कंजूसी किया है। ज्यादा बडा नहीं बनाया है। सभी रिश्तेदारों को बड़ा खिलाया जाता है जब तक बहू घर नहीं आ जाती है। लड़का-लड़की दोनों की ही शादियों में इसे बनाने का रिवाज है।

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शादियों में दही बड़े

उड़द की दाल तो शादियों के खाने में होती ही है। शहरों में भी शादियों के खाने में दही बड़े जरूर होते हैं। इनका स्वाद जो इतना लाजवाब होता है इसके बिना शादी कहां पूरी मानी जाती है। खाने की तो चर्चा शादियों में अधिक होती हैं। अगर कोई कमी होती है तो शिकायत हमारे कानों तक पहुंच ही जाती है या तो हम करते हैं या कोई और शिकायत करता है कि फलाने के शादी में तो अच्छा खाना था फलाने के में नहीं।

दही बड़े शादियों के लिए हैं शुभ

पहले के बुजुर्ग लोग शादी में दही बड़े को बहुत शुभ मानते थे। खेतों में उड़द की पैदवार भी बहुत होती थी। इसलिए वे हमेशा शादियों में जरूर दही बड़े बनवाते थे और चीनी के साथ खाते थे।

खेतों में उड़द नहीं तो बाजार से खरीद

                                                                                       साफ़ किये हुए उड़द दाल की तस्वीर जिसका अब छिलका उतर चुका है

लाडपुर की रहने वाली मुरलीबाई कहती हैं कि, “हमारे क्षेत्र की रीति-रिवाज है। हमने भी अपने लड़के-लड़कियों की शादी में 25-25 किलो के बड़ा बनवाया था। खेतों में उड़द की पैदावारी नहीं हुई तो बाजार से मोल (खरीद) लेकर शादी में बड़ा बनवाया। अब अंतर इतना ही आया है पहले और अब में कि पहले नाउन को बुलाते थे और नाउन से बड़ा की दाल पिसवाते थे और अब दाल को चक्की से पिसवाते हैं।”

जैसे-जैसे तकनीक का विकास हो रहा है वैसे-वैसे बनाने के ढंग में भी बदलाव आया है। अब कौन जाए सिलबट्टे से पीसने, अब तो मशीन आ गई है। सिलबट्टे पर पीसने में मेहनत भी तो है। कहा जाता है कि उड़द की दाल बड़ी चिकनी होती है आसानी से पीस नहीं पाते। इसलिए नई पीढ़ी इन सब झंझटों से बचने के लिए मिक्सी का इस्तेमाल करती है फिर भी गांव देहात में आज भी पत्थर के सिलबट्टों पर मसालें और अन्य खाद्य साम्रगी को पीसकर ही बनाया जाता है। इसलिए तो जो स्वाद गांव के खानों में हैं वो शहर के खानों में नहीं।

इस खबर की रिपोर्टिंग श्यामकली द्वारा की गई है। 

 

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