वन्यजीवन को देखकर जलवायु परिवर्तन को समझा जा सकता है। वन्यजीव के बिना जंगल नहीं बढ़ सकता। अगर प्याज और बादाम की खेती चाहिए तो इसके परागन के लिए मधुमक्खी चाहिए। जो बड़े पेड़ हैं, उनके बीजों को फ़ैलाने के लिए हाथी और भालू चाहिए। जब ये नहीं होते तो अच्छे पेड़ नहीं आते, फूल नहीं आते और अच्छी सब्ज़ियां नहीं बढ़ती। जब ये सब चीज़ें नहीं होती तो तापमान का बढ़ना लाज़मी रहता है।
रिपोर्ट – संध्या, इलस्ट्रेशन – ज्योत्स्ना
“जब पेड़ काटा जाता है तो सिर्फ पेड़ नहीं कटता। उसके साथ छोटे पेड़,घास,कीट-पतंगे, उस मिट्टी के अंदर रहने वाले केंचुए और घोंघे, यह सब उसमें चले जाते हैं। अब दूसरी जगह मिट्टी खोदकर पेड़ लगाकर यह उम्मीद की जाए कि इससे जंगल पुनर्स्थापित हो जाएगा तो यह बहुत मुश्किल है। “
और इस तरह से जंगल के कटाव व वन्यजीवों को ख़त्म करने से शुरू होता है जलवायु परिवर्तन। वह जलवायु परिवर्तन जिसे आज हम अत्यधिक गर्मी,ठंडी और बरसात के रूप में देख रहे हैं और उसका सामना कर रहे हैं। खबर लहरिया से बातचीत के दौरान, छत्तीसगढ़ के एम सूरज ने बताया।
एम सूरज, छत्तीसगढ़ के नोवा नेचर वेलफेयर सोसाइटी के अध्यक्ष हैं। यह एक सिविल सोसाइटी है जिसका गठन 2004 में वन्य भैंस (wild buffalo) के संरक्षण को लेकर किया गया था। सूरज बताते हैं कि आज मध्य भारत में मुश्किल से 13-14 वन्य भैंस ही बचे हैं।
यहां पढ़ें फोटो स्टोरी – वन्यजीव और जलवायु परिवर्तन का संबंध
वन्यजीवों, जंगल से जलवायु संतुलन
क्लाइमेट चेंज यानी जलवायु परिवर्तन को अगर हमें समझना है तो वन्य जीवन को देखकर ही हम इसे समझ सकते हैं। सूरज का कहना है, छत्तीसगढ़ का लगभग 44 प्रतिशत भू-भाग आज भी जंगल है पर आज जो संसाधन की लड़ाई है, वह बहुत जटिल है। जहां पहले,’’तुम भी खाओ हम भी खाते हैं’ कि प्रणाली थी आज वह चीज़ नहीं है।
आज मनुष्य और वन्यजीव के बीच विवाद बहुत बढ़ गया है। यह दृश्य सिर्फ छत्तीसगढ़ नहीं बल्कि पूरे देश का है। मनुष्य और वन्यजीव के बीच असंतुलन का असर सीधे तौर पर पर्यावरण पर होता है। वह बताते हैं, वन्यजीव के बिना जंगल नहीं बढ़ सकता। अगर प्याज और बादाम की खेती चाहिए तो इसके परागन के लिए मधुमक्खी चाहिए। जो बड़े पेड़ हैं, उनके बीजों को फ़ैलाने के लिए हाथी और भालू चाहिए। जब ये नहीं होते तो अच्छे पेड़ नहीं आते, फूल नहीं आते और अच्छी सब्ज़ियां नहीं बढ़ती। जब ये सब चीज़ें नहीं होती तो तापमान का बढ़ना लाज़मी है।
‘वन्यजीव नष्ट होने का प्रभाव हमारे क्लाइमेट पर पड़ता है।’
भारतीय वन सर्वेक्षण 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय वन अपने वाष्पोत्सर्जन के माध्यम से स्थानीय जलवायु को नियंत्रित करने में मददगार होते हैं। उनकी मौजूदगी से तापमान में कमी आती है। विशेष रूप से छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे वन संपन्न राज्य इसमें योगदान करते हैं। यह भी जानकारी दी गई कि साल 2030 तक बढ़ते तापमान और बदलती जलवायु से भारत के 45-64% वन प्रभावित होंगे।
वन्यजीव और वन का बचाव
छत्तीसगढ़ का एक राजकीय वृक्ष है ‘साल’ जिसे यहां रहने वाले आदिवासी कल्पवृक्ष भी कहते हैं। सूरज बताते हैं, साल के पेड़ का जंगल के तापमान और जलवायु परिवर्तन से गहरा संबंध है।
साल का पेड़ जंगल के तापमान को कम करने और नदी-नालों को बचाने का काम करता है। जब हम साल के जंगल काट देते हैं तो इससे पहली समस्या यह होती है कि इस तरह फिर से साल का जंगल बनाने में सफ़लता नहीं मिलती। साल का पेड़ हमें हिमालय की श्रृंख्ला से लेकर छत्तीसगढ़ मिलता है।
साल के पेड़ उत्पत्ति को लेकर सूरज बताते हैं कि साल के पेड़ के अंकुरण का समय बहुत कम होता है, लगभग सात से आठ दिन। अगर साल का बीज ज़मीन पर गिरा तो उसी समय से उसके अंकुरण का समय शुरू हो जाता है और अगर यह सात या आठ दिन में अंकुरित नहीं होता तो फिर यह कभी नहीं होता।
साल के पत्ते जब मिट्टी में आते हैं तो “Mycorrhiza” (मायकोराइजा) नाम का एक फंगस होता है जो मिट्टी में रहता है और ऐसी ही मिट्टी में साल के बच्चे यानि बीज बढ़ते हैं।
बता दें, “Mycorrhiza” (मायकोराइजा) एक प्रकार का फंगस (राइजोमाइसेट) होता है जो पौधों की जड़ों के साथ परस्पर लाभकारी संबंध बनाता है। यह फंगस पौधे और मिट्टी के बीच पोषक तत्वों का आदान-प्रदान करता है। मायकोराइजा फंगस पौधों की जड़ों से जुड़कर, मिट्टी में से पोषक तत्व जैसे फास्फोरस, नाइट्रोजन और अन्य सूक्ष्म तत्वों को सोखता है और बदले में पौधे को कार्बोहाइड्रेट (जो पौधों के लिए ऊर्जा का स्रोत होते हैं) देता है।
“हमारे यहां के पुराने लोग कहते थे कि साहब! साल के बच्चे साल की छाँव में ही उगते हैं और उसकी वैज्ञानिक वजह मायकोराइजा फंगस है। साल सदाबाहर पेड़ है, वह जहां भी रहता है, वह बाकी जगह के तापमान से उधर का तापमान कम करके ही रखता है। तापमान कम होने से नदी,नालों का पानी जल्दी वाष्पित नहीं होता है।”
साल का जंगल तापमान को कम करने और नदी-नालों को बचाने का काम करता है। जब हम साल के जंगल काट देते हैं तो इससे पहली समस्या यह होती है कि इस तरह फिर से साल का जंगल बनाने में नाकामयाबी मिल रही है और पर्यावरण में गर्मी बढ़ रही है और पानी सूख रहा है।
साल के पेड़ को लेकर लोकल में एक कहावत भी है, “सौ साल खड़ा,सौ साल पड़ा।”
सूरज बताते हैं कि जंगल व वन्यजीवों के संतुलन के लिए बाघ Apex Predator/अपेक्स प्रिडेटर के रूप में काम करता है, मतलब वह अन्य जानवरों को कण्ट्रोल करने का काम करता है। बाघ यहां पारिस्थितिकी तंत्र में संतुलन बनाने की भूमिका में रहता है।
अगर जंगल में बाघ नहीं होगा तो भालू,तेंदुआ,चीता इत्यादि जैसे मांसाहारी जानवर बढ़ेंगे। जहां बाघ नहीं होते वहां हम यह देखते हैं कि वहां हाथी और तेंदुओं की संख्या बढ़ती है जिससे वह जंगल से बाहर निकलते हैं और लोगों को चोट पहुंचते हैं। वहीं जहां बाघ होते हैं, वहां संख्या काबू में रहती है।
प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि जुलाई 2024 तक, भारत में बाघों की अनुमानित संख्या 3,682 है, और इसकी अधिकतम सीमा 3,925 तक हो सकती है।
आगे बताया, अगर हम ‘कांकेर भालू, कांकेर तेंदुआ’ सर्च करेंगे तो हमें उनके और मनुष्य की बीच झड़प और मारे जाने की बहुत सारी खबरें मिल जाएंगी। पहले पूरे बस्तर क्षेत्र में बाघ हुआ करते थे लेकिन आज वहां बाघ नहीं है जिससे भालू और तेंदुएं की संख्या बड़ी है। यह हम महासमंद,धमतरी में देख सकते हैं।
आगे कहा, पहले जंगलों में 12 टन का इंडियन बाइसन होता था जिसे हम ‘गौर’ भी कहते हैं। गौर, शाकाहारी (घासाहारी) जानवर होते हैं। इसका शिकार करने वाला सिर्फ एक ही जानवर है बाघ। बलौदा बाज़ार के पास एक सैंक्चुरी है, ‘बारनवापारा वन्यजीव अभयारण्य।’ यहां 2010 के आस-पास आखिरी बाघ देखा गया था। इसके बाद यहां गौर की संख्या इतनी बढ़ गई कि सिर्फ 244 स्क्वायर किलोमीटर में यहां 1200 गौर है और यह सरकारी आंकड़ा बताता है।
शाकाहारी गौर की ज़्यादा जनसंख्या का असर वहां की वनस्पति पर देखने को मिलता है. ज़्यादा होने से ये गौर पार्क से निकलकर खेतों में चले जाते हैं जिससे मनुष्यों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ये उनके खेत बर्बाद कर देते हैं।
इससे यह पता चलता है कि जंगल के संतुलन के लिए वन्यजीव कितने ज़रूरी है।
इंडियन एक्सप्रेस की नवंबर 2024 की रिपोर्ट बताती है, छत्तीसगढ़ में वर्तमान में 30 बाघ हैं, जिनमें तीन उप-वयस्क (sub-adults) और दो शावक शामिल हैं। यह जानकारी राज्य के मुख्य वन्यजीव संरक्षक (CWLW) सुधीर कुमार अग्रवाल ने दी। वर्तमान में गुरु घासीदास-तमोर पिंगला टाइगर रिजर्व में 5 से 6 बाघ हैं।
राज्य में बाघों की संख्या 2014 में 46 से घटकर 2022 में 17 हो गई। इस बारे में साल 2023 में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) द्वारा जारी किए गए बाघ स्थिति रिपोर्ट में बताया गया है।
जंगल का कटाव, सिर्फ जलवायु परिवर्तन पर ही नहीं बल्कि जंगल के जीवन और वहां के वन्यजीवों को प्रभावित करता है। हम वन्यजीवन को देखे बिना जलवायु परिवर्तन के बारे में बात नहीं कर सकते इलसिए यहां वन्यजीवों के संघर्षों को भी हमारे लिए समझना ज़रूरी है।
सूरज ने हाथी का उदाहरण देते हुए बताया कि जहां हाथी रहते हैं, वहां खनन की सबसे बड़ी समस्या है और छत्तीसगढ़ खनन के लिए ही जाना जाता है। वह बताते हैं कि
झारखंड और ओडिशा में होते खनन की वजह से हाथी धीरे-धीरे दक्षिण की तरफ आ गए हैं। छत्तीसगढ़ में अभी इस समय 400 से 450 जानवर है। ये जानवर अधिक दूरी तय करने वाले जानवर होते हैं जिन्हें हम एक जगह बंद करके नहीं रख सकते। इन्हें एक जंगल से दूसरे जंगल तक जाने के लिए गलियारे चाहिए यानि जंगल। लेकिन आज जंगल के कटाव से उनके यह गलियारे खत्म हो गए और इसलिए दूसरे जंगल तक जाने के लिए वह गांवो,खेतों का इस्तेमाल करते हैं। इस मामले में कई लोगों और हाथियों की मौत भी हुई है।
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है, जनवरी 2024 तक, छत्तीसगढ़ के उत्तर और पूर्व-मध्य वन क्षेत्रों में लगभग 20 झुंडों में 275 से अधिक हाथी हैं। छत्तीसगढ़ में हाथियों की संख्या बढ़ रही है और इस संख्या का संबंध ओडिशा और झारखंड राज्य से आने वाले हाथियों से जुड़ा हुआ है।
जब हमने पूछा कि वन विभाग वन्यजीव व जंगल के लिए क्या कर रहा है तो उनका कहना था कि छत्तीसगढ़ वन विभाग ने अपने तरीकों में बहुत बदलाव किया है। उन्होंने एकल फसल प्रणाली की जगह अब बहु फसल प्रणाली को अपनाया है। वन्य जीवों के लिए उनके द्वारा अब फलदार वृक्षों को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। चीज़ें हो रही है लेकिन बहुत धीरे हो रही हैं लेकिन चीज़ों का दोबारा पहले जैसे होना बहुत मुश्किल है।
जंगल ही शहर के लिए ऑक्सीजन बना रहा है, और उसे ठंडा कर रहा है। शहर में आज इतनी ज़मीन नहीं बची है कि वहां पेड़ लगाकर जंगल बनाया जा सके। उन्होंने कहा,
“संरक्षण हम तब तक नहीं कर सकते जब तक आप विज्ञान को स्थानीय लोगों के साथ नहीं जोड़ते।”
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