खबर लहरिया Blog महाकुंभ का क्या है इतिहास? क्या सच, क्या झूठ, जानें क्या कहते हैं इतिहास व अध्ययनकर्ता 

महाकुंभ का क्या है इतिहास? क्या सच, क्या झूठ, जानें क्या कहते हैं इतिहास व अध्ययनकर्ता 

प्रोफेसर दुबे ने अपनी किताब ‘कुम्भ मेला, पिलग्रिमेज टू दि ग्रेटेस्ट कॉस्मिक फेयर’ में मुग़ल काल से लेकर संन्यासी अखाड़ों द्वारा रखे गए रिकॉर्ड्स का हवाला देते हुए कई चीज़ों के बारे में लिखा है। “कुंभ मेला बारहवीं सदी के बाद कहीं न कहीं आयोजित होने लगा। इस धार्मिक त्योहार को आयोजित करने की परंपरा भक्ति आंदोलन के दौर में विकसित हुई, जो हिंदू संतों और सुधारकों द्वारा शुरू किए गए सामाजिक-धार्मिक सुधारों का एक आंदोलन था।”

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यूपी के प्रयागराज जिले में लगने वाले ‘महाकुंभ मेला 2025’ की शुरुआत आज 13 जनवरी 2025 को पौष पूर्णिमा स्नान के साथ होगी। यह महाकुंभ 26 फरवरी 2025 को महाशिवरात्रि के साथ खत्म हो जाएगा।

महाकुंभ, इस साल यूपी के प्रयागराज जिले में आयोजित किया जा रहा है। महाकुंभ हर 12 साल में एक बार होता है। महाकुंभ की शुरुआत कैसे, कहां,कब हुई, इसे लेकर कई कहानियां हैं। वहीं कई पौराणिक कथाओं में इसका ज़िक्र भी है पर सच क्या है, इसे लेकर आज भी दावा कर पाना मुश्किल है। आज हम यही देख रहे हैं कि हज़ारों-करोड़ों लोगों की आस्था महाकुंभ से जुड़ी है। इस महाकुंभ में सिर्फ भारत के लोग ही नहीं बल्कि विश्वभर से लोग आते हैं। 

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कुंभ की उत्पत्ति से जुड़ी पौराणिक कथा 

‘कुंभ’ संस्कृत का एक शब्द है जिसका अर्थ है, कलश,घड़ा,मटका या प्याला। 

कुंभ का कल्पित गाथा पुराणों शास्त्र के समुन्द्र मंथन में उल्लेख है। कुंभा मेले शब्द का सबसे पहले ज़िक्र 1695 व 1759 में खुल्सात-उत-तारीख और चाहर गुलशन के हस्तलेख में मिलता है। प्रयाग-दि साइट ऑफ कुंभ मेला के लेखक डीपी दुबे बताते हैं – प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में से किसी में भी प्रयागराज के कुंभ मेले का ज़िक्र नहीं है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार यह कहा जाता है कि महर्षि दुर्वासा के श्राप की वजह से देवताओं की शक्ति खत्म होने वाली थी। तब भगवान विष्णु ने देवताओं को समुन्द्र मंथन की सलाह दी थी। बताया कि क्षीरसागर (दूध के सागर) के मंथन से उन्हें अमृत मिलेगा लेकिन देवता ये काम अकेले नहीं कर सकते थे। अमृत के लालच में असुर भी उनका साथ देने के लिए तैयार हो गए। इससे शुरू हुआ सबसे बड़ा समुन्द्र मंथन। 

समुन्द्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को बनाया गया मथानी। नागराज वासुकी से बनी रस्सी। वासुकी की पूँछ की तरफ देवता खड़े थे और मुख की तरफ असुर। दोनों ने हज़ार सालों तक समुन्द्र मंथन किया। इसके बाद धन्वंतरि वैद्य (हिंदू पौराणिक कथाओं में देवताओं के चिकित्सक) अमृत का कुंभ लेकर प्रकट हुए। अमृत को असुरों से बचाने के लिए इंद्र देव के बेटे जयंत अमृत कलश लेकर भाग गए। उनके साथ के लिए सूर्य, उनके पुत्र शनिदेव, बृहस्पति (ग्रह बृहस्पति) और चंद्रमा भी गए।

जब जयंत भाग रहे थे, तब अमृत चार स्थानों पर गिरा: हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक। जयंत 12 दैवीय दिनों तक दौड़े अर्थात मानवीय समय के मुताबिक़ लगभग 12 साल। इसलिए कुंभ मेला इन चार स्थानों पर हर 12 साल में मनाया जाता है जो सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति के स्थिति के आधार पर तय होता है।

मौजूदा जानकारी के अनुसार, प्रयागराज में कुंभ आयोजित होने के लिए मेष में बृहस्पति और मकर में सूर्य और चंद्रमा की ज़रूरत होती है। 

प्रयागराज और हरिद्वार में हर 6 साल में अर्ध-कुम्भ (अर्ध का मतलब आधा) मेला आयोजित होता है। जबकि 12 साल बाद जो मेला होता है, उसे पूर्ण कुम्भ या महा कुम्भ कहा जाता है।

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महाकुंभ के इतिहास को लेकर किसने क्या कहा?

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, कुंभ मेले की प्राचीनता को साबित करने के लिए स्कन्द पुराण का हवाला दिया जाता है। मौजूदा जानकारी के अनुसार, स्कंद पुराण हिन्दू धर्म के 18 महापुराणों में से एक प्रमुख पुराण है। इसे भगवान शिव द्वारा रचित माना जाता है और इसका नाम भगवान स्कंद (कुमार, जिन्हें हम कार्तिकेय के नाम से भी जानते हैं) के नाम पर रखा गया है। 

वहीं कुछ लोग चीनी तीर्थ यात्री सिलियन त्सांग (हुआन त्सांग) का जिक्र करते हैं, जिन्होंने सातवीं सदी में प्रयाग में एक मेला का वर्णन किया था।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) के ज्योतिष विभाग के प्रमुख प्रोफेसर गिरीजा शंकर शास्त्री ने बताया, “किसी भी शास्त्र में आज के कुंभ मेले का सीधे तौर पर उल्लेख नहीं मिलता है। समुंद्र मंथन के बारे में कई ग्रंथों में बताया गया है, लेकिन अमृत के चार जगहों पर गिरने के बारे में नहीं बताया गया है। स्कंद पुराण में कुंभ मेले की उत्पत्ति के बारे में बात है, लेकिन जिन संस्करणों का अब तक अध्ययन किया गया है, उनमें वह संदर्भ नहीं मिलते हैं।”

गोरखपुर की गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक “महाकुम्भ पर्व” जिसे दीपकभाई ज्योतिषाचार्य ने लिखा है, उसमें यह दावा किया गया है कि ऋग्वेद में कुम्भ मेले में भाग लेने के फायदों के बारे में बताया गया है। 

रिपोर्ट के अनुसार, कई लोग यह मानते हैं कि 8वीं सदी के हिन्दू दार्शनिक आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) ने बताये गए चार स्थायी मेलों की स्थापना की थी। उनके अनुसार, इस मेले के द्वारा हिन्दू संन्यासी और विद्वान मिल सकते थे, विचारों का आदान-प्रदान कर सकते थे और आम लोगों को मार्गदर्शन दे सकते थे।

कैमा मैक्लीन (Kama Maclean), जो ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय की दक्षिण एशियाई और विश्व इतिहास की सहायक प्रोफेसर हैं, उन्होंने लिखा कि चीनी तीर्थ यात्री हुआन त्सांग (Xuanzang) ने एक मेले के बारे में बताया था। वह मेला कुंभ था या नहीं, इसे लेकर कोई सबूत नहीं है। 

आगे कहा, प्राचीन समय में माघ मेले (जो हिन्दू महीने माघ में आयोजित होता था) का आयोजन प्रयाग में होता था, जिसे बाद में शहर में रहने वाले पंडितों ने 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिशों से बचने के लिए “कालातीत” (सदाबहार कुंभ मेले के रूप में नया नाम दे दिया।

रिपोर्ट के अनुसार, सभी इतिहासकार इस बात से सहमति नहीं रखते। प्रोफेसर डीपी दुबे, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास के प्रोफेसर थे और सोसाइटी ऑफ पिलग्रिमेज स्टडीज के महासचिव हैं – उन्होंने कुंभ मेले पर गहन काम किया है। उन्होंने लिखा कि हरिद्वार का मेला संभवतः पहला मेला था जिसे “कुंभ मेला” कहा गया, क्योंकि इस मेले में बृहस्पति कुंभ राशि में होते हैं।

उन्होंने बताया, “कुंभ की शुरुआत गंगा की पूजा से जुड़ी हुई है। पवित्र नदियों के किनारे मेलों का आयोजन करना एक प्राचीन हिंदू परंपरा है। धीरे-धीरे यात्रा करने वाले साधुओं ने चार कुंभ मेले का आयोजन करने का विचार फैलाया। वह जगह जहां साधू और आम लोग इकठ्ठा हो सकते थे।”

प्रोफेसर दुबे ने अपनी किताब ‘कुम्भ मेला, पिलग्रिमेज टू दि ग्रेटेस्ट कॉस्मिक फेयर’ (‘Kumbh Mela, Pilgrimage to The Greatest Cosmic Fair) में मुग़ल काल से लेकर संन्यासी अखाड़ों द्वारा रखे गए रिकॉर्ड्स का हवाला देते हुए कई चीज़ों के बारे में लिखा है। “कुंभ मेला बारहवीं सदी के बाद कहीं न कहीं आयोजित होने लगा। इस धार्मिक त्योहार को आयोजित करने की परंपरा भक्ति आंदोलन के दौर में विकसित हुई, जो हिंदू संतों और सुधारकों द्वारा शुरू किए गए सामाजिक-धार्मिक सुधारों का एक आंदोलन था।”

तो यह थी महाकुंभ के इतिहास और उसकी उत्पत्ति से जुड़ी कुछ बातें जो कितनी सच हैं और कितनी कल्पना, इसे लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। 

(स्त्रोत – History Tv 18, इंडियन एक्सप्रेस)

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