खबर लहरिया Blog समाज में एक Hearing impairment व्यक्ति का अनुभव व संघर्ष

समाज में एक Hearing impairment व्यक्ति का अनुभव व संघर्ष

“विकलांगता को लेकर जो 40% वाला बेंच मार्क है वह मुझे बहुत विवादित लगता है। जब हमें इस वर्ग में देखा जाता है तो यह बहुत ही अनुचित/unfair हो जाता है जो बिलकुल बॉर्डर लाइन पर होते हैं। जिनकी विकलांगता 38 %, 39% है उन्हें 40 प्रतिशत तक के बेंचमार्क तक आना पड़ता है ताकि वह उसके प्रावधान (provision) का इस्तेमाल कर सकें। अगर मैं एक छात्र की समझ से इस बारे में बताऊं तो एक मूल्यांकन परिषद (assessment council)  होना चाहिए जो बता सके कि इसकी क्या ज़रूरते हैं।”

                                                           27 वर्षीय चंद्रेश की तस्वीर जो इस समय दिल्ली युनिवर्सिटी के लॉ फैकल्टी से विकलांगता के विषय पर पीएचडी कर रहे हैं 

रिपोर्ट व लेखन – संध्या 

“घर पर एक बंदा आया है। घंटी बजा रहा है। देख रहा है कि पंखा चल रहा है लेकिन कोई दरवाज़ा नहीं खोल रहा। अरे! मैं नहीं खोलूंगा दरवाज़ा क्योंकि नहीं आएगी आवाज़ मुझे…..तो मैं कैसे खोलूंगा। अगली बार के लिए मैंने उसे अपना नंबर दे दिया कि वो मुझे नंबर पर कॉल करे क्योंकि मेरा डिवाइस फोन से लगा हुआ है। अब वो जब भी आता है तो मुझे कॉल करता है” – 

उस दिन के बाद अगर पंखा न भी चले, घंटी की आवाज़ सुनाई न भी दे लेकिन कॉल जो डिवाइस से जुड़ा हुआ है वह उसे बता देता है कि घर के दरवाज़े पर कोई आया है। 

जीवन के अनुभव का यह किस्सा 27 साल के चंद्रेश की ज़िन्दगी की उन चुनौतियों में से एक है जो उन्हें hearing impairment (सुनने की क्षमता कम होना), उनकी विकलांगता की वजह से हर दिन लड़ना पड़ता है। अपनी पहुंच के रास्ते बनाने के लिए, किसी तक पहुंचने के लिए…… 

शरीरिक रूप से उन्हें कानों से 90 प्रतिशत hearing impairment है जिसकी वजह से समाज में उनकी चुनौतियाँ भी सबसे ज़्यादा हैं। उनकी विकलांगता उनकी पहचान से अलग नहीं है बल्कि भिन्न-भिन्न पहचानों में से एक पहचान है, जिसे उन्होंने अपनाया है लेकिन समाज आज भी विकलांगता की पहचान को बाहरी तौर पर देखता है। एक तरह से सोचता है। इसकी वजह से उनकी चुनौतियां और उसे पार करने की मेहनत अन्य लोगों के मुकाबले दोगुना हो जाती है। 

Hearing impairment के साथ शिक्षा,रोज़गार,सार्वजनिक जगहों इत्यादि तक अगर पहुँच की बात की जाये तो यहां भी उनकी चुनौती और संघर्ष एक विकलांग व्यक्ति होने के तौर पर सबसे ज़्यादा है।  

 “आप नार्मल क्लास में पढ़ रहे हो, आपको क्लास में भी सुनाई देता है। हमें किताबों में ही पढ़कर सुनना पड़ता है। हमारी चुनौतियां हर जगह से दोगुनी है। हम किसी चीज़ को करने के लिए दोगुना मेहनत करते हैं जो अन्य आराम से कर लेते हैं।

शिक्षा तक पहुँच, उसे प्राप्त करना और समझना सबके लिए समान नहीं है, न ही उस तक पहुँचने का रास्ता सबके लिए एक-जैसा है। 

ये एक लूपहोल (बचने का रास्ता) है। अगर हम पढ़ेंगे नहीं तो भी गरीबी में जाएंगे और अगर हम गरीब है तो हम वैसे ही नहीं पढ़ पाएंगे। हम फंसे रहते हैं इसमें।”

शिक्षा ही कहीं न कहीं उन्हें आगे लेकर जा सकती है। इससे उनकी चुनौतियां खत्म तो नहीं होती पर हाँ लड़ने के लिए एक ज़रिया, एक सहयोग ज़रूर से मिल जाता है। 

ज़रा सोचिये, हम अपने आस-पास अपने कॉलेज,स्कूल व युनिवेर्सिटी में कितने विकलांग लोगों को देखते हैं? कितने ऐसे लोगों को देखते हैं जो शिक्षा ले रहे हैं? अगर नहीं देखते तो वह कहां है? अगर ऐसा है तो क्या हम एक समाज में रहते हुए उनकी पहुंच के रास्तों के बारे में सोचते हैं? 

जवाब यह है कि यह पहुँच के रास्ते भी वे खुद बनाते हैं जैसे की चंद्रेश ने बताया। 

“जब मैं कॉलेज पहुंचा तो मेरी दुनिया ही बदल गई। पहले दिन से ही क्लास होना शुरू हो गई। सब मेरे सिर के ऊपर से निकल रहा था।” मानों जो पढ़ाया जा रहा है वह उसे छोड़कर सबके लिए है। 

उसे सुनाई नहीं देता, अनजान लोगों के बीच यह कह पाने के बारे में भी सोचना उसे डरा देता था। वह खुद से डेढ़ सालों तक लड़ता रहा और आखिर में तय किया की अब बता देना है। टीचर को बताया तो ज़िन्दगी में पहली बार उसे hearing-aid के बारे में पता चला और इसके बाद…..

पहली बार मुझे लगा कि मैं भी बात कर सकता हूँ। मेट्रो की आवाज़ पहली बार सुनाई दी कि अच्छा! मेट्रो में आवाज़ भी आती है गेट बंद होने की, खुलने की। 

कॉलेज आने से पहले, टेक्नोलॉजी के बारे में जानने से पहले, आवाज़ों को पता उसके कॉपी के नोट्स में हुआ करता था। “स्कूल में पांचवीं क्लास से नोट्स बनाने का सिस्टम शुरू हो गया था। उस टाइम मुझे हॉस्टल में डाल दिया था। मुझे ये चीज़ समझ में आ गई थी कि जो पढ़ाया जा रहा है, और जो भाग लिखने को कहा जा रहा है उसे बस मुझे टीपना ही तो है तो मैं वह कर देता था। 11वीं-12वीं क्लास में मुझे एक दोस्त मिला। वह मेरे साथ बैठता था। क्लास में मैम नोट्स पढ़ाती थी। वह कॉपी की एक तरफ लिखता था और मैं उससे टीप रहा होता था। सबको पता था कि मुझे दिक्कत है। मेरे दोस्तों ने ही मेरी मदद की, आगे तक आने के लिए।”

कॉलेज आने के बाद डिवाइस के बारे में पता तो चला लेकिन उसे इस्तेमाल करने और पहुँच की चुनौती अब भी मौजूद थी। 

पैसे कम थे तो आवाज़ भी सिर्फ एक तरफ से आती। डिवाइस बैटरी वाला था, इतना कुछ खास नहीं था बस काम चल जाता था। आवाज़ तो नहीं लेकिन शोर ज़रूर से सुनाई देता था इतना की सिर में दर्द हो जाता था। दिक्कत सिर्फ इतनी नहीं थी।

गर्मियों में पसीना होता तो डिवाइस खराब हो जाता। डिवाइस की बैटरी घड़ी की बैटरी की तरह एकदम छोटी। डिवाइस रुकता तो लगता सब रुक गया। बार-बार ठीक करना ज़रूरी हो जाता। लोगों को लगता कि घड़ी रुकी है तो उसकी सुइयों की तरह उनकी निगाहें भी यहीं चिपक जातीं। कोई उसे hearing-aid नहीं कहता। लोगों को लगता कि ब्ल्यूतुथ लगा रखा है। वो पूछते ही नहीं है। 

“चश्मा लगता है, वैसे ये लगता है, नार्मल है। चश्मे को फैशन बना दिया और इसे बस ब्ल्यूतुथ ही बना दिया।”

सभी चुनौतियों से लड़ते हुए आज अपनी शिक्षा की वजह से वह दोनों कानों से सुन पाते हैं। कानों में सुनने के लिए बेहतर डिवाइस लगा रखा है। महंगा है पर पहले से बेहतर है। अभी वह NET JRF क्लियर करने के बाद फैकल्टी ऑफ़ लॉ, दिल्ली यूनिवर्सिटी से विकलांगता के मुद्दे पर पीएचडी कर रहे हैं। 

पीएचडी व अन्य कामों से जो पैसे आये, उसी से hearing-aid लिया। हाँ, आज भी अगर अगर कोई पीछे से बोलता है तो पीछे मुड़कर ही उन्हें सुनना पड़ता है कि कौन, क्या बोल रहा है। दिल्ली यूनिवर्सिटी के किरोड़ी मल कॉलेज से बीए पॉलिटिकल साइंस की है और गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी से LLM.

Hearing-aid से अब सुनना पहले से आसान हो गया लेकिन उसे ब्ल्यूतुथ समझने की समाज की मानसिकता उसमें कोई बदलाव नहीं आया। Hearing-aid पहनकर परीक्षा केंद्र जाने का अनुभव सांझा करते हुए कहा…. 

“मुझे फर्क नहीं पड़ता वह उसे (डिवाइस) निकाल कर ले जाएँ लेकिन उसकी सेफ्टी होनी चाहिए। इसके लिए मुझे हमेशा अपने पेरेंट्स को लेकर आना ही है। अगर यहां-वहां हो गई तो मैं तो वहीं ब्लैंक हो जाऊँगा। मुझे समझ नहीं आएगा क्या करूँ। बात ही कैसे करूँ। मुझे सुनने में 90 प्रतिशत विकलांगता है तो मुझे यह चाहिए ही चाहिए। 

मैं पेपर देने बैठ गया। परीक्षा के बीच में आकर मुझसे कहा जाता है कि आप सर्टिफिकेट दिखाइये। ये चीज़ थोड़ी अजीब लगती है। उन्हें पता है,hearing-aid निकालकर मैं बैठ चुका हूँ। वह मम्मी के पास में है। अब वह क्या मांग रहे हैं, मुझे समझ नहीं आ रहा। मेरा सारा ध्यान सवाल को पढ़ने में है। मैनें कहा, ये फाइलें हैं आप देख लीजिये। फिर कभी आधार कार्ड देख रहे हैं, कुछ चीज़ें मैच कर रहे हैं तो कभी कुछ बोल रहे हैं।”

बहुत दिक्कत और चिड़चिड़ाहट भी हुई।

“पता नहीं हम पर ही क्यों शक किया जाता है कि हमारे पास ही ब्ल्यूतुथ है।”

“सबसे पहले महत्व उन्हें देते हैं जो able bodies हैं”

मैनें फैकल्टी ऑफ़ लॉ में दाखिले के लिए परीक्षा दी थी और मेरा पहले ही एग्जाम में हो गया। मेरे दोस्त ने मुझे कहा, तुम्हारी तो कटेगोरी है और ये मुझे हिट कर गया। कोई ये नहीं सोचता कि हमें कैसा महसूस होता है। हम नहीं समझा सकते हर किसी को। हमारी केटेगरी में मुझे आरक्षण इसलिए justified (सही) लगता है क्योंकि आगे जाकर भी काम में हमारी limitation (सीमा) वही रहेगी। limitation नहीं बदलेंगे।”

उनके लिए दी गई सुविधाओं के लिए भी उन्हें लड़ना पड़ता है। समाज में खुद को साबित करने की चुनौती और दोगुनी मेहनत हर कदम पर उन्हें जकड़ी रहती है। उन्हें कोई उनकी कैटेगिरी की वजह से कम न आंके, इसलिए वह अन्य के मुकाबले चार गुना मेहतन करते हैं। प्रतिस्पर्धा की यह जंग उम्र भर रहती है जहां आरक्षण को कभी उनकी सुविधा के तौर पर नहीं देखा जाता। 

“शुरुआत हमारी लोवर केटेगरी से होती है और यहां हम सबसे पहले महत्व उन्हें देते हैं जो able bodies हैं फिर इसके बाद उन्हें महत्व देते हैं जो able bodies (कथित तौर पर सक्षम) हैं पर अलग-2 जैसे एससी,एसटी वर्ग से आते हैं। हमसे तो बिलकुल आखिर में पूछा जाता है।”

2016 में लागू किये गए RpWD एक्ट में reasonable accommodation/ उचित समायोजन की बात कही गई है। जो यह कहता है कि जो उनकी (विकलांग लोगों की) बुनियादी ज़रूरतों हैं उसका प्रबंध किया जाएगा। समानता अधिनियम 2010 में भी यह साफ़ कहा गया है कि अगर किसी व्यक्ति के साथ उसकी विकलांगता,जाति,सेक्स इत्यादि के नाम पर भेदभाव किया जाता है तो वह गैर-क़ानूनी है। इन नियमों के बावजूद भी सामाजिक ढांचे में विकलांग लोगों के प्रति भेदभाव होते रहे हैं। 

2016 के एक्ट में कहा गया है कि सभी सरकार द्वारा संचालित उच्च शिक्षण संस्थानों और अन्य सरकारी सहायता प्राप्त उच्च शिक्षण संस्थानों में बेंचमार्क विकलांग व्यक्तियों के लिए 5 प्रतिशत आरक्षित सीटें होंगी। क्या आपको 1 प्रतिशत भी विकलांग लोग इन सीटों, इस एक्ट की सुविधा लेते हुए दिखाई देते हैं?

अगर नहीं दिखाई देते तो क्या यह एबलिज्म नहीं है? यह भेदभाव नहीं है जो यह Ableist (एबलिज्म अर्थात विलकांग व्यक्तियों के प्रति भेदभाव व पूर्वाग्रह) समाज करता है?

विकलांगता में बेंचमार्क कैसा?

अगर कोई व्यक्ति कह रहा है कि वह विकलांग है, उसे सुविधाओं की ज़रूरत है तो उसके सामने विकलांगता को लेकर बेंचमार्क की चुनौती आ जाती है। चंद्रेश ने कहा,

“विकलांगता को लेकर जो 40% वाला बेंच मार्क है वह मुझे बहुत विवादित लगता है। जब हमें इस वर्ग में देखा जाता है तो यह बहुत ही अनुचित/unfair हो जाता है जो बिलकुल बॉर्डर लाइन पर होते हैं। जिनकी विकलांगता 38 %, 39% है उन्हें 40 प्रतिशत तक के बेंचमार्क तक आना पड़ता है ताकि वह उसके प्रावधान (provision) का इस्तेमाल कर सकें। अगर मैं एक छात्र की समझ से इस बारे में बताऊं तो एक मूल्यांकन परिषद (assessment council)  होना चाहिए जो बता सके कि इसकी क्या ज़रूरते हैं।”

आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम, 2016 (The RPwD Act, 2016) “विकलांग व्यक्तियों” और “बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्तियों” के बीच अंतर की बात करता है। यह बताता है कि जिनके पास विकलांगता प्रमाण पत्र है, अधिनियम की अनुसूची के तहत निर्देशित विकलांगता 40 प्रतिशत से कम नहीं है। एक्ट के अनुसार, बेंचमार्क विकलांगता वाले व्यक्ति रोजगार और उच्च शिक्षा में आरक्षण के विशेष प्रावधानों के लिए पात्र हैं।

वहीं अधिनियम की धारा 20 कहती है कि विकलांगता प्रमाण पत्र के बिना भी इस सुविधा की मांग करने वाले कोई भी व्यक्ति उचित समायोजन के लिए हकदार होंगे। जैसे – व्यावसायिक परीक्षाओं के लिए एक लिखने वाले व्यक्ति की सुविधा देने का प्रावधान है ; एम्स के मेडिकल बोर्ड द्वारा मूल्यांकन की गई 6% विकलांगता की सीमा उसकी लोकोमोटर विकलांगता की सीमा से संबंधित है जो क्रोनिक न्यूरोलॉजिकल स्थिति के बारे में बताता है जिसमें व्यक्ति स्वयं किसी भी वस्तु को हिलाने/ एक-जगह से दूसरी जगह रखने में दिक्कत महसूस करते हैं। 

एक्ट में यह भी बताया गया है कि मूल्यांकन याचिकाकर्ता की लेखन की क्षमता से जुड़ी हुई नहीं है। इसके अलावा, मेडिकल रिपोर्ट अपीलकर्ता को जारी किए गए पूर्व मेडिकल प्रमाणपत्रों की पुष्टि करती है और प्रमाणित करती है कि अपीलकर्ता राइटर क्रैम्प (Writer’s Cramp) से पीड़ित है, जिसके भाग सी की वजह से लिखने में उन्हें मुश्किल का सामना करना पड़ता है। 

उदाहरण के तौर पर हम विकास कुमार बनाम यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन, 2021 (Vikash Kumar vs.Union Public Service Commission, 2021) का मामला देख सकते हैं। इसमें याचिकाकर्ता विकास कुमार को Dyslexia/डिस्लेक्सिया (इसमें व्यक्ति को लिखने व पढ़ने में परेशानी होती है) था। उनके मूल्यांकन के अंदर ये नहीं आया था कि उन्हें 40% विकलांगता है या नहीं, बल्कि उन्हें ये देखकर उचित सहायता दी गई कि उन्हें इसकी ज़रूरत है जिसके लिए उन्होंने अदालत में अपील की थी। इसमें उन्हें फैसले के बाद लिखने के लिए एक व्यक्ति सहायता के अनुरूप उपलब्ध कराया गया। 

वह कहते हैं, “अगर हम disabled हैं तो हैं।”

कई लोग हैं जिसे कई तरह की विकलांगता है। उन्हें पढ़ना भी है तो उसे कैसे मैनेज किया जाएग। उन्हें जॉब में किस तरह से जगह दी जाए, उसके लिए उचित समायोजन ज़रूरी है। यह भी समझना ज़रूरी है हर विकलांग व्यक्ति की अपनी एक चुनौती और समस्या है जिसे सिर्फ बेंचमार्क प्रतिशत के साथ नहीं समझा जा सकता। 

सभी विकलांगता दिखाई नहीं देती। सभी विकलांगता एक जैसी नहीं होती। अगर होती भी है तो उसके अनुभव हर व्यक्ति के लिए अलग होते हैं। बाहरी रूप से विकलांगता को नहीं समझा जा सकता। या तो उन्हें अपनी विकलांगता को साबित करना पड़ता है या फिर अपने आपको। यह ऐसे ही चलता चला जाता है। 

“हम आखिर में यही देखते हैं कि कितने ही disabled (विकलांग) लोगों की ज़िन्दगी यही है कि हमें प्रूफ करना है और यह उनके लिए एक अन्य तरह का भार है जिसका वह सामना कर रहे हैं। वह अन्य लोगों की तरह फ्री नहीं हो पाते बल्कि चुनौती में उलझ जाते हैं।”

 

 

‘यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’

If you want to support  our rural fearless feminist Journalism, subscribe to our  premium product KL Hatke