खबर लहरिया Blog शिक्षा तोड़ सकती है गरीबी की ज़ंजीर – मैं भी पत्रकार सीरीज़

शिक्षा तोड़ सकती है गरीबी की ज़ंजीर – मैं भी पत्रकार सीरीज़

यह एक प्रवासी मजदूर सुंदरी सोनू और उसकी बेटियों की कहानी है। यह कहानी जयपुर जिले के कलावर गाँव के एक सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाने और उनकी लड़ाई पर आधारित है। आधार कार्ड न होने की वजह से उनके बच्चों का स्कूल में दाखिला नहीं हो पा रहा है।

“एजुकेशन- ए ब्रेक अवे फ्रॉम जेनरेशनल पॉवर्टी” Education- A Break Away From Generational Poverty

राजस्थान : जयपुर जिले का कलवार गाँव

28 साल की सुंदरी सोनी अपनी तीन बेटियां खशी,ज्योति और गुंजन के साथ कलवार गाँव में रहती हैं। कोविड से पहले वह अपने परिवार के साथ दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करने के लिए जयपुर जिले के कलवार गाँव में आकर रहने लगी। वह भारत देश के करोड़ों दिहाड़ी मज़दूर में से एक है।

सोनी ने बताया, वह 10 साल की उम्र में ही दिहाड़ी मज़दूर बन गयी थीं। सोनी की ज़िंदगी मुश्किलों से भरी रही। वह अशिक्षित थीं और वह यही ज़िन्दगी अपनी बेटियों को नहीं देना चाहती इसलिए उसने अपनी बेटियों के लिए शिक्षा का रास्ता चुना।

वह अपनी तीनों बेटियों का प्राथमिक स्कूल में दाखिला कराने के लिए दो बार जाती है। वह तीसरी और चौथी बार भी अपनी बेटियों का स्कूल में दाखिला कराने की कोशिश करती है पर फिर इसके बावजूद भी दाखिला नहीं हो पाता। वह अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखकर कुछ बनाना चाहती है।

बिना किसी सुविधा व आवश्यक वस्तुओं के वह पिछले सात सालों से कलवार गाँव में रह रही हैं। सोनी को लगता है कि शिक्षा ही ऐसा ज़रिया है जिससे की वह गरीबी के ज़ंजीर से निकल सकती हैं। आगे कहा, उसकी बेटियों को स्कूल में दाखिला देने से इसलिए मना कर दिया क्यूंकि उसके पास ‘आधार कार्ड’ नहीं है। शिक्षा के अधिकार के तहत शिक्षा प्राप्त करने के लिए आधार कार्ड का होना बेहद ज़रूरी है।

सोनी व उसका पति दोनों ही दिहाड़ी मज़दूर है। अगर उन्हें काम मिल जाता है तो वह कर लेते हैं, अगर नहीं मिलता तो घर वापस आ जाते हैं। बस वह यही सोचती हैं कि एक बार उनका आधार कार्ड बन जाए ताकि उसकी बेटियों का स्कूल में दाखिला हो सके।

कलवार गाँव के प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर नवाल जी पिछले 15 सालों से पढ़ाने का काम कर रहें हैं। राजस्थान सरकार की तरफ से उन्हें बेस्ट टीचर का भी अवार्ड मिला है। उन्होंने बताया कि वह पलायन करके आये हुए बच्चों का दाखिला बिना किसी पहचान पत्र के लेते हैं।

आगे कहा, कई दिहाड़ी मज़दूरों के बच्चे स्कूल नहीं आ पाते क्यूंकि उनके परिवारों द्वारा आर्थिक मदद के लिए उनसे थोड़ा-बहुत काम कराया जाता है। यही वजह से है कि वह अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते।

नवाल जी ने यह भी कहा कि उन्होंने सबसे कम आय वाला प्रोफ़ेशन इसलिए चुना क्यूंकि वह अपने छात्रों के जीवन को बदलना चाहते थें।

सोनी अपनी बेटियों के जीवन को बदलने की जद्दोजहद ज़ारी रखती है। कहती, ‘स्कूल में बार-बार दाखिले के लिए आधार कार्ड की मांग की जाती है। जब आधार कार्ड बनवाने जाते हैं तो दस्तावेज़ मांगे जाते हैं। अब वह कहाँ से लाये जब आधार कार्ड से ही सब बनता है।’

गाँव में किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं है। न आर्थिक तौर पर और न ही सामाजिक। घर में पुरुषों द्वारा महिलाओं को शराब पीकर मारा-पीटा जाता है।

सोनी का पति भी उसके साथ रोज़ मारपीट करता है। 10 सालों से सोनी बस यह सोचकर चुप है कि शायद अब उसका पति सुधर जाएगा लेकिन हर दिन के साथ प्रताड़ना बढ़ती जा रही है। पति कहता, ‘ उसके न खुश न होने की वजह वह (सोनी) है।’ पति को बेटे की लालसा थी।

इन सब चीज़ों से लड़ते हुए भी वह बस यही चाहती है कि उसकी बेटियां पढ़ पाएं। कहीं भी उनका दाखिला हो जाए। सोनी के जैसे ऐसे कई दिहाड़ी मज़दूर हैं जिनके पास आधार कार्ड नहीं है क्यूंकि वह न तो हस्ताक्षर कर पातें हैं और न ही अंगूठा लगा पाते हैं।

आरटीआई एक्ट और शिक्षा के लिए आधार कार्ड की बात की जाए तो ज़मीनी स्तर पर यह गरीब परिवारों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। आधार कार्ड न होने की वजह से मज़बूरी में उन्हें अपने बच्चों को काम पर लगाना पड़ता है।

सोनी कहती, बच्चे दिन भर सफ़ेद मिट्टी में खेलते हैं जिसकी वजह से कुछ समय बाद उनके हाथों के निशान मिट जाते हैं। इसलिए जब भी आधार कार्ड के लिए अंगूठा लगाना होता है तो अंगूठे का निशान नहीं आता। यही वजह है कि उनका आधार कार्ड नहीं बन पा रहा।

गाँव का सरपंच कहता है कि क्यूंकि दिहाड़ी मज़दूर गांव के स्थायी निवासी नहीं है तो उनकी परेशानियों को देखना, उनकी चिंता का विषय नहीं है।

गाँव की आंगनवाड़ी महिला पिंटू सहनी ने बताया कि सरकार आंगनवाड़ी में किसी भी तरह का फंड नहीं देती कि वह लोगों की मदद कर पाए। उन्होंने आगे कहा, शिक्षा के बिना गरीबी नहीं दूर की जा सकती।

कोविड के दौरान शिक्षा पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा। उस समय सरकार द्वारा योजना चलाई गयी और व्हाट्सप्प ग्रुप व समूह के ज़रिये बच्चों को पढ़ाई की सामग्री भेजी गयी।

पिंटू सहनी ने कहा, शिक्षा के संसाधनों को बढ़ाने की ज़रुरत है और उसमें सोनी जैसे दिहाड़ी मज़दूरों के परिवारों को प्राथमिकता देनी चाहिए।

(नॉएडा से डोर्जी वांग्मो की यह डॉक्यूमेंट्री खबर लहरिया के 20वें साल के उपलक्ष्य में चलाई जा रही सीरीज़ ‘मैं भी पत्रकार’ के तहत चयनित की गयी है।)

 

“मैं डोर्जी वांग्मो शिमला की रहने वाली हूँ। वर्तमान में नोएडा में रह रही हूँ। मैं इंडियन एक्सप्रेस में एक ट्रेनी पत्रकार हूँ। फर्स्ट पोस्ट के लिए मेरी पिछली कहानियों से तिब्बती निर्वासन के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया है।

एक पत्रकारिता की छात्रा होने के नाते मुझे खबर लहरिया के बारे में सोशल मिडिया के ज़रिये पता चला। मुझे मेरे प्रोफ़ेसर गोपिका अजय, जो की एशियन कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज्म (चेन्नई) में प्रोफ़ेसर हैं, सुझाव दिया था कि मैं अपनी डॉक्यूमेंट्री खबर लहरिया में सबमिट करूँ।

मैं खबर लहरिया को पिछले 6 महीने से अपने इंस्टाग्रम प्रोफाइल के ज़रिये फॉलो कर रही हूँ।

मुझे खबर लहरिया की “टू द पॉइंट”, “नो बकवास” पत्रकारिता की शैली पसंद है। इसमें कोई सनसनी या नाटक जैसी चीज़ें नहीं होती। खबरों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की खबरों को हाइलाइट किया जाता है। मुझे यह भी पसंद है कि यह कहानीकारों के बीच विविधता लाता है। मुझे लगता है कि हाशिए के मुद्दों का सबसे अच्छा प्रतिनिधित्व तब मिलेगा जब हाशिए के लोगों को खुद एक मंच मिलेगा और खबर लहरिया यह मंच दे रही है। विशेष रूप से, ग्रामीण महिलाओं को आधुनिक भूमिकाएं देना और उन्हें “रूढ़िवादी रसोई जीवन” से बाहर निकालना वास्तव में ग्राउंड ज़ीरो से एक मज़बूत बदलाव है।

यह तथ्य कि केएल 20 साल से बिना किसी बड़े निजी या सरकारी समर्थन के चल रहा है, प्रेरणादायक है। केवल अंग्रेजी माध्यम के जे-स्कूलों के अंग्रेजी वर्ग पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, केएल की टीम ग्रामीण बोलियों में खबरों को कवर करती है जो की प्रशंसा के योग्य है। विकेंद्रीकृत पत्रकारिता के इस मॉडल को आने वाले सालों में निश्चित रूप से और अधिक समर्थन मिलना चाहिए।”

 

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