खबर लहरिया Blog दिवाली और उम्मीदों का रोजगार

दिवाली और उम्मीदों का रोजगार

जिला बांदा: एक दिन के लिए आई दिवाली, साल भर का इंतजार छोड़ गई, अगली दिवाली आने तक सब फिर से वेट करेंगे। साथ ही लगातार बढ़ते रहने वाला प्रदूषण का प्रसाद भी दे गई।
Diwali and expectations employment
दिवाली के त्यौहार में अपनी हैसियत भर लोग महीनों पहले से साफ-सफाई, रंगाई-पुताई, साज-सज्जा, खाना-पीना और फैंशन की प्लानिंग करते हैं। फिर भी कुछ न कुछ शौक़-शान की कमी रह ही जाती है। कुछ लोग पैसे खर्च कर शौक़ पूरे करते हैं तो कुछ लोग पैसे जुगाड़ते हैं।

बच्चे जुगाड़ते हैं खुशियां

शहर की बाज़ार और गलियों में छोटे-छोटे बच्चों को अपने घर की व्यवस्था के लिए काम करते देखा गया। आप कह सकते हैं कि यह कोई नई बात तो नहीं है क्योंकि बच्चे हमेशा काम करते देखे जाते हैं। मैं सहमत हूं और कह रही हूं कि हां वह तो है लेकिन इस त्योहार के समय कमाई करते बच्चे कुछ ज्यादा ही दिखते हैं। भैया… अगर दिवाली मनाना है तो किसी भी कीमत में व्यवस्था तो करनी ही पड़ेगी।

कूड़े के कबाड़ से बच्चों ने मनाई दिवाली

एक हफ्ते पहले मैं बांदा-बिसंडा रोड से गुजरी तो अचानक से हवा के झोंके के साथ बदबू आई इसलिए सड़क के किनारे लगे कूड़े के ढेर में नजर पड़ी। कोई मरा मवेशी पड़ा था और उसके बगल में तीन मासूम बच्चे बड़े-बड़े बोरे कंधे में टांगे कूड़े के ढेर में कुछ ढूढ रहे थे। मैं रुककर उनसे पूंछना चाही तो वह बच्चे बोरा लेकर भागने लगे। समझाने और भरोसा दिलाने पर बहुत मुश्किल से रुके। तीनों में जो सबसे बड़ा था उससे पूंछना शुरू की। उसने बताया कि वह शहर के गायत्री नगर का रहने वाला है।

उसके मां-बाप बहुत बुजुर्ग हैं और बहुत बीमार भी रहते हैं। उसके परिवार में और कोई नहीं है। वह अकेला ही दस सालों से जिंदगी गुजार रहा है। अब उसकी उम्र पन्द्रह साल है तो कमाई करने में उतनी दिक्कत नहीं होती। इसी तरह दूसरे लड़के की उम्र लगभग दस साल रही होगी और तीसरे की आठ साल। दूसरे के पिता नहीं हैं तो तीसरे के माता पिता दोनों नहीं हैं। वह दोनों मजदूरी करते हैं तब उनके घर का चूल्हा जलता है। अब दिवाली के लिए व्यवस्था करनी थी तो कूड़े से कबाड़ बिनकर पैसों का जुगाड़ कर रहे हैं। जब ये सवाल उनसे करी कि क्या क्या व्यवस्था करेंगे तो सोचते हुए बोले कि जितना हो सकेगा उतना तो करेंगे।

 अगले साल तक के लिए इंतज़ार और प्रदूषण

दिवाली के दिनों बाज़ार बहुत ही गुलजार दिखे। बहुत लोग खरीददारी करते दिखे तो कुछ बेचते हुए। इस भीड़ भरी बाज़ार में छोटे-छोटे बच्चे कुछ न कुछ बेचते दिखे। घूम-घूमकर कोई रुई बेच रहा था तो कोई मिट्टी के खिलौने। कोई दिए तो कोई मूर्तियों और छोटे-मोटे पटाखों की दुकान लगाए बैठा था इस उम्मीद के साथ कि उनका सामान आज तो पूरा बिक जाना चाहिए। कोई उनसे खरीद लेता तो कोई आगे बढ़ जाता। इन बच्चों को देखकर बहुत तरस आई और कर भी क्या सकते हैं। ये सब देखकर लगा कि जिसके पास इन बच्चों और उनके परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी है, बजट है, योजनाएं हैं लेकिन इन सब होने के बावजूद  क्या कुछ बदला? मतलब कि सरकार और प्रशासन क्यों कुछ नहीं कर पा रहे? हर साल दिवाली पर बच्चों की ये स्थिति क्यों देखने को मिलती है?