आज 6 दिसंबर है। यह तारीख हर साल जब आती है तो पुरानी यादें ताज़ा हो जाती हैं। भारत के इतिहास में 6 दिसंबर एक ऐसी तारीख है जो दो विपरीत घटनाओं को समेटे हुए है। 1956 में इसी दिन डॉ. भीमराव अम्बेडकर का निधन हुआ जिन्हें दलित-बहुजन समाज महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में याद करता है जबकि 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ जिसने देशव्यापी सांप्रदायिक तनाव पैदा किया। यह दिन गर्व, दुःख, सीख और चेतावनी का प्रतीक बन गया है जो आज भी समाज को दो ध्रुवों के बीच खींचता है।
लेखन – मीरा देवी
अम्बेडकर का 6 दिसंबर: समानता का दीपक
डॉ. भीमराव अम्बेडकर का निधन 6 दिसंबर 1956 को मुंबई में हुआ। वे भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता थे और जाति प्रथा के खिलाफ जीवन भर संघर्ष किया। उनके विचार आज भी बराबरी, न्याय और अधिकारों पर आधारित समाज की नींव हैं। हर साल इस दिन लाखों लोग मुंबई, नागपुर और अन्य शहरों में श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं जो उनके संघर्ष की याद दिलाता है। अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था को सामाजिक गुलामी का प्रतीक बताया और बौद्ध धर्म अपनाकर इसका विरोध किया। उनके अनुसार, संविधान के माध्यम से भारत समानता की राह पर चल सकता है। आज सरकारी प्रयास जैसे आरक्षण और शिक्षा सुविधाएं उनकी विरासत को मजबूत करती हैं लेकिन दलितों पर अत्याचार के मामले बढ़ रहे हैं।
1992 का 6 दिसंबर: तनाव की छाया
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बड़ी भीड़ ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया। इसे राम जन्मभूमि विवाद से जोड़ा गया लेकिन परिणाम स्वरूप देश में व्यापक दंगे भड़क उठे। हजारों जानें गईं, संपत्ति नष्ट हुई और सामाजिक ताने-बाने को गहरा आघात लगा। यह घटना राजनीति और भीड़ की मिली भगत का उदाहरण बनी।
इसके बाद लिब्रहान आयोग गठित हुआ जिसने प्रशासनिक विफलता पर सवाल उठाए। कई नेता दोषी ठहराए गए लेकिन राजनीतिक प्रभाव से कार्रवाई सीमित रही। आज राम मंदिर निर्माण के बाद शांति है लेकिन वह तनाव की याद बरकरार है।
वर्तमान स्थिति: जाति प्रथा और सामाजिक चुनौतियां
2025 में भारत में जाति का असर अभी भी बहुत गहरा है। साल दर साल राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के डेटा से पता चलता है कि खासकर गांवों में दलितों के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं। आरक्षण और पढ़ाई-लिखाई के बावजूद पिछड़ापन कम नहीं हुआ। जाति जनगणना की बात इसलिए हो रही है ताकि दलित और OBC जैसी पिछड़ी जातियों की आवाज़ और प्रतिनिधित्व बढ़ सके लेकिन डर ये भी है कि इससे समाज में जातियों के बीच और दरार या झगड़े भी बढ़ सकते हैं।
आरक्षण नीतियां: अनुसूचित जाभारत में अनुसूचित जाति (SC) अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को मिलाकर कई राज्यों में कुल आरक्षण 50% से अधिक हो गया है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इंड्रा साहनी (1992) केस में सामान्यतः कुल आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय की थी इसलिए 50% से अधिक आरक्षण को लेकर संवैधानिक और कानूनी बहस लगातार जारी है। कई राज्य इस सीमा को विशेष परिस्थितियों के आधार पर पार करने की कोशिश करते हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट इस सीमा को मूलभूत सिद्धांत के रूप में मानता है कि आरक्षण संतुलित हो और समान अवसर के अधिकार का उल्लंघन न हो।
राजनीतिक प्रभाव: जाति वोट बैंक बन गई। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे दल जाति आधारित राजनीति करते हैं जो जातिगत पहचान को मजबूत करती है।
– सामाजिक बदलाव: शहरीकरण और शिक्षा से अंतर्जातीय विवाह बढ़े लेकिन गांवों में अस्पृश्यता के रूप बने हुए हैं। मतलब कि शहरों में रहने और पढ़ाई-लिखाई बढ़ने से अलग-अलग जातियों में शादी करना आम होता जा रहा है लेकिन गांवों में अब भी छुआ-छूत और पुराने भेदभाव कई जगह वैसे ही बने हुए हैं।
– आर्थिक असमानता: OBC/SC में गरीबी दर ऊंची, रोजगार में भेदभाव जारी। OBC और SC समुदायों में गरीबी अभी भी ज़्यादा है, और नौकरी-रोज़गार में भेदभाव भी आज तक पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है।
– सोशल मीडिया पर 6 दिसंबर को अम्बेडकर जयंती और बाबरी विध्वंस दोनों ट्रेंड करते हैं। लोग अलग-अलग समूहों और विचारों में बंट जाते हैं जिससे समाज में ध्रुवीकरण होता है मतलब कि दो पक्षों के बीच दूरी और टकराव बढ़ जाता है। वर्तमान सरकार जाति जनगणना पर विचार कर रही है लेकिन आलोचक इसे राजनीतिक शोषण मानते हैं।
ऐतिहासिक विश्लेषण: दो घटनाओं का प्रभाव
अम्बेडकर की विरासत बातचीत, कानून और बराबरी अधिकारों पर टिकी है। 1932 के पूना पैक्ट में उन्होंने दलितों के लिए अलग निर्वाचन की मांग छोड़कर समझौता किया था। इसके उलट 1992 की बाबरी मस्जिद घटना ने दिखाया कि कई बार भीड़ की भावनाएं कानून से भी ऊपर चली जाती हैं। इन दोनों बातों ने राजनीति को अलग-अलग दिशा दी अम्बेडकर से दलित राजनीति बनी और बाबरी घटना के बाद हिंदुत्व की राजनीति तेज हुई।
महत्वपूर्ण सवाल और टिप्पणियां
6 दिसंबर कई सवाल खड़े करता है:
– क्या भारत भावनाओं या कानून पर चल रहा है?
– जाति प्रथा समाप्त हुई या रूप बदल ली?
– भीड़ की ताकत व्यवस्था से बड़ी कैसे हो जाती है?
– अम्बेडकर का समतामूलक भारत कब बनेगा?
टिप्पणी: ये घटनाएं दिखाती हैं कि हमारा देश भारत विविधता में एकता का दावा करता है लेकिन दरारें गहरी हैं। वर्तमान में जाति राजनीति चुनाव जीताती है लेकिन लबे समय तक विकास की रफ़्तार को रोकती है। जबकि असली बदलाव का रास्ता शिक्षा और आर्थिक रूप से सभी को साथ लेकर चलने में ही है।
गहराई से देखें तो अम्बेडकर समझते थे कि पुरानी वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे जातियों में बदल गईं। भक्ति और सूफी आंदोलनों ने इसे चुनौती दी लेकिन अंग्रेज़ों की जनगणनाओं ने जातियों को और मजबूत कर दिया। मंडल आयोग OBC को सरकारी नौकरी और पढ़ाई में आरक्षण देने की सिफारिश करता है और इन्हें राजनीतिक ताकत देता है।
आज का संबंध: चुनौतियां और संभावनाएं
भारत में आज पहचान की राजनीति जाति और धर्म के इर्द-गिर्द है। गरीब और दलितों के लिए जमीन, पढ़ाई और नौकरी के सवाल अब भी बहुत बड़े-बड़े हैं। अम्बेडकर ने दिखाया कि इन समस्याओं का हल कानूनी रास्ते और न्याय से होता है। जैसे कि SC/ST एक्ट (एससी/एसटी कानून) दलित और आदिवासी लोगों को भेदभाव और हिंसा से बचाता है और POSCO एक्ट (पोस्को कानून) बच्चों के खिलाफ हिंसा को रोकता है। लेकिन कभी-कभी राजनीतिक खेल और वोट बैंकिंग के कारण इन कानूनों और आरक्षण का सही फायदा लोगों तक नहीं पहुंच पाता। भविष्य में जाति जनगणना से नीतियां बनाई जा सकती हैं लेकिन भाईचारे और एकजुटता हमेशा पहले रखनी चाहिए।
निष्कर्ष: भारत का चुनाव
6 दिसंबर इतिहास में एक बड़ा मोड़ है। अम्बेडकर का रास्ता हमेशा समानता और न्याय की ओर ले जाता है जबकि 1992 की घटना यह दिखाती है कि टकराव और हिंसा भी हो सकती है। आज भारत को आगे बढ़ने के लिए समावेशी (सभी को साथ लेकर) विकास का रास्ता चुनना होगा। समाज, राजनीति और कानून मिलकर ही बराबरी का भारत बना सकते हैं। यह दिन हमें याद दिलाता है कि समाज बदल सकता है, संघर्ष और भाईचारे से लेकिन नफरत और राजनीति के गलत इस्तेमाल से टूट भी सकता है।
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