खबर लहरिया Blog काम के तनाव-दबाव से हो रही मौतों को क्या ‘आत्महत्या’ कहना सही है?

काम के तनाव-दबाव से हो रही मौतों को क्या ‘आत्महत्या’ कहना सही है?

सर्वेक्षण यह सामने आया कि जब कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य की बात आती है तो उनके मैनेजर का उन्हें सबसे कम साथ मिलता है। भारत में मैनेजर द्वारा समर्थन करने का अनुपात 2022 में 80 प्रतिशत रहा जो 2023 में घटकर 71 प्रतिशत हो गया। वैश्विक स्तर पर, यह संख्या 2022 में 70% से गिरकर 2023 में 64% हो गई है।

                                                 26 साल की अन्ना सेबेस्टियन पेरायिल (Anna Sebastian Perayil) की तस्वीर ( फोटो साभार – इंडियन एक्सप्रेस)

काम के प्रेशर/तनाव से अगर किसी की मौत हो रही है, यह प्रेशर किसी के दिलों की धड़कनें रोक रहा है, उसे अपनी ज़िंदगी खत्म करने की ओर धकेल रहा है तो क्या इसे ‘आत्महत्या’ कहना सही है? अगर उस व्यक्ति पर काम का दबाव उसके जान लेने की वजह है तो क्या उसे क्राइम या अपराध नहीं कहा जाना चाहिए?

व्यक्ति को यह कहकर मज़बूर किया गया है कि ज़्यादा काम, दबाव में काम करना, छुट्टी में काम करना, नियमित काम के घंटों के आलावा काम करना, अपनी सेहत को नज़रअंदाज़ कर काम को प्राथमिकता देना “सफलता की सीढ़ी है”, “एक अच्छे employee यानी कर्मचारी” की निशानी है। अगर कोई व्यक्ति यह सब नहीं सहेगा और करेगा तो वह जीवन में कहीं नहीं जा सकता। कंपनी में उसे प्रमोशन नहीं मिलेगा। उसकी सैलरी नहीं बढ़ेगी। कोई कंपनी उसे नौकरी नहीं देगी क्योंकि यह मांग तो हर एक कंपनी,संस्था इत्यादि की है। ऐसी कोई भी काम करने वाली जगह नहीं है जहां यह बाते व विचारधारा न हो।

लेकिन इन कार्यों को एक व्यक्ति की ज़िन्दगी के खतरे के मानक के रूप में नहीं देखा जाता, जो धीरे-धीरे उस व्यक्ति को धकेल रहा है, अपनी ज़िंदगी खत्म करने की तरफ। टेंशन, टेंशन, टेंशन, बस काम की टेंशन, डेडलाइन खत्म करने की टेंशन, अधिकारियों और बॉस की इच्छाओं को पूरी करने की टेंशन, वह भी खुद को झकझोर कर, क्योंकि अगर ये नहीं किया तो आपमें काम करने की योग्यता नहीं है। आपमें सहने की क्षमता नहीं है। अगर सहोगे तो आगे बढ़ जाओगे, अगर नहीं सहा और कह दिया तो नौकरी से बाहर निकाल दिए जाओगे, अकेले छोड़ दिए जाओगे फिर क्या? आगे क्या ? इतना भी नहीं सह सकते,अपने परिवार और भविष्य के लिए? और अगर हम ही नहीं रहे तो भविष्य, क्या वह रहेगा?

वही टेंशन,दबाव……. कॉर्पोरेट की ज़िन्दगी, सरकारी कर्मचारियों की ज़िन्दगी, इंटर्न की ज़िन्दगी, कंसलटेंट की ज़िन्दगी, उन सभी की ज़िंदगियां जिनसे मांग की जाती है अपनी खुद की ज़िंदगी को रबर से मिटाकर उसमें बस भागती-दौड़ती कंपनियों को आसमान की ऊंचाई तक पहुँचाने की इच्छा पूरा करने की। लोगों के स्वास्थ्य को, उनकी परेशानियों को और उनकी ज़िन्दगियों को दरकिनार कर, उन्हें मार कर।

इन सब चीज़ों को छोड़ पाना उनका विकल्प नहीं है क्योंकि बिना नौकरी के भी मौत है, नौकरी के साथ भी लेकिन यहां नौकरी के नाम, किसी को अपनी सेवा देने के नाम पर उन्हें उनकी दैनिक ज़िंदगी से दूर करना, जीने ही न देना, इसे क्यों नहीं देखा जा रहा?

“काम और सफलता” की सीढ़ी को एक व्यक्ति की सीमितता से ज़बरदस्ती खींचकर दुनिया भर में glorify/ प्रकाशित किया गया है।

हाल ही में, केरल की 26 साल की अन्ना सेबेस्टियन पेरायिल (Anna Sebastian Perayil) की काम के प्रेशर ने जान ले ली जिसे दुनिया, मीडिया की हेडलाइंस ‘आत्महत्या’ का नाम दे रही है।

अन्ना चार बड़ी अकाउंटिंग फर्मों में से एक, अर्न्स्ट एंड यंग (Ernst & Young) पुणे में एस आर बटलीबोई में ऑडिट टीम का हिस्सा थीं। अन्ना ने इस कंपनी में चार महीने काम किया था। अन्ना की मौत के बाद उनकी माँ अनीता ने ईवाई इंडिया के चेयरमैन राजीव मेमानी को लंबा मेल लिखा जहां उन्होंने काम को glorify (बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना) करने के मुद्दे को रखा और बताया की उनकी बेटी किस तरह से काम के वजह से परेशान रहती थी।

कंपनी ने बुधवार,18 सितंबर को एक बयान में कहा कि 26 वर्षीय चार्टर्ड अकाउंटेंट अन्ना सेबेस्टियन पेरायिल की मौत ईवाई इंडिया के लिए “दुःखद” और “अपूरणीय क्षति” है। उन्होंने कहा कि कंसल्टेंसी ने परिवार को “सभी सहायता” प्रदान की है।

मेरा सवाल है कि क्या किसी भी प्रकार की बताई जाने वाली तथाकथित मदद क्या अन्ना की ज़िन्दगी लौटा सकती है? क्या उन सभी लोगों की ज़िंदगी वापस दे सकती है जिनकी ज़िंदगियाँ टॉक्सिक वर्क कल्चर (काम की संस्कृति) और उन्हें बढ़ावा देने वाले लोगों व विचारधारा ने ली है?

इकोनॉमिक टाइम्स की अगस्त 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, एडीपी रिसर्च इंस्टीट्यूट (ADP Research Institute) के एक सर्वेक्षण में बताया गया कि लगभग 76 प्रतिशत भारतीय कर्मचारियों ने यह बताया है कि तनाव ने उनके काम को प्रभावित किया है। वहीं 49 प्रतिशत लोगों ने मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अपनी भावनाएं रखी।

अन्ना की माँ अनीता ने भी अपने मेल में लिखा कि, उनकी बेटी ने हर जगह टॉप किया और जब उसे यह नौकरी मिली तो वह बिना सोये, बिना आराम किये बस काम ही कर रही थी। नया वातावरण, काम का दबाव, काम के लंबे घंटे, डेडलाइन और न खत्म होती मांगो ने उसे मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक तौर पर चोट पहुंचाया। कंपनी से जुड़ने के कुछ समय बाद ही वह अवसाद, नींद न आना और तनाव (स्ट्रेस) महसूस करने लगी लेकिन इसके बाद भी वह खुद को काम करने के लिए धक्का देती रही इस विश्वास के साथ की काम और सहनशीलता ही सफलता की चाभी है। जिसे हर दिन बड़े होने के साथ हमारे अंदर हवा-पानी की तरह भरा गया है।

अन्ना ने उन्हें यह भी बताया कि किस तरह से उसे ऑफिस के काम के आलावा अलग से काम दिया जाता था। किस तरह से उसे रात को अस्सिटेंट मैनेजर द्वारा कॉल करके अगली सुबह काम पूरा करने को कहा जाता है। जब वह इसके लिए आवाज़ उठाती है तो उसे कहा जाता है, “तुम रात में भी काम कर सकती हो क्योंकि हम सब यही करते हैं।” पर अब अन्ना नहीं है।

हम सब, मैं भी, आप भी, हम सभी लोग यही करते हैं। काम के दबाव में आकर, मैनेजर के दबाव में आकर, कंपनी के दबाव में आकर क्योंकि हम अपनी नौकरियां नहीं खो सकते। वह नौकरियां जिससे परिवार चलते हैं, जिसे बहुत मुश्किल से पाया गया है पर यह दबाव, यह तनाव, यह काम की संस्कृति जो लोगों की जानें ले रही है, यह भी जैसे का तैसा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सफर करता रहता है। साल दर साल कई कंपनियां बढ़ती रहती है लेकिन काम की संस्कृति वैसी की वैसी पड़ी रहती है, जिसका नाम है ‘टॉक्सिक वर्क कल्चर।’ वह जगह जहां कर्मचारी अपनी बात नहीं रख पाते,दबाव में रहते हैं व आराम महसूस नहीं कर पाते।

“पीपल एट वर्क 2023: ए ग्लोबल वर्कफोर्स व्यू” (People at Work 2023: A Global Workforce View) ने एक सर्वेक्षण तैयार किया जिसमें वर्तमान में काम को लेकर कर्मचारियों के दृष्टिकोण और अपेक्षाओं की जांच की गई।

सर्वेक्षण यह सामने आया कि जब कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य की बात आती है तो उनके मैनेजर का उन्हें सबसे कम साथ मिलता है। भारत में मैनेजर द्वारा समर्थन करने का अनुपात 2022 में 80 प्रतिशत रहा जो 2023 में घटकर 71 प्रतिशत हो गया। वैश्विक स्तर पर, यह संख्या 2022 में 70% से गिरकर 2023 में 64% हो गई है।

तनाव और दबाव से हुई अन्ना की मौत के बाद कई कर्मचारियों ने अपने तनावों और परेशानियों के बारे में सोशल मीडिया पर अपनी बातें रखीं। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं था, जहां लोग तनाव न महसूस करते हो।

Deaths due to work stress

                              आकाश वेंकटसुब्रमण्यम द्वारा लिंक्डइन पर लिखी गई पोस्ट की तस्वीर

ईवाई इंडिया में ही काम करने वाली एक पूर्व कर्मचारी के पति ने अपनी पत्नी का अनुभव लिंक्डइन पर शेयर किया, जिसने तनाव और काम के दबाव की वजह से अपनी नौकरी छोड़ी थी।

आकाश वेंकटसुब्रमण्यम ने लिंक्डइन पर लिखते हुए कहा, “मेरी पत्नी ने सिर्फ टॉक्सिक वर्क कल्चर की वजह से ईवाई छोड़ा था। अगर उसने नहीं छोड़ा होता, तो मुझे नहीं पता कि उसके साथ क्या होता।”

उन्होंने यह भी लिखा कि पूरे भारत में कई प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों में दिन के 18 घंटे काम करने को गौरव और सम्मान की तरह देखा जाता है और अपने कर्मचारियों से भी इतने घंटे काम करने की अपेक्षा की जाती है।

स्ट्रेस/तनाव से व्यक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव | Impact of stress on youngsters

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, लंबे समय तक रहने वाला तनाव व्यक्ति को हृदय रोग की तरफ ले जाता है। इससे व्यक्ति टाइप-2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप और हाई लिपिड हो सकता है।

टाइप 2 मधुमेह में, शरीर या तो पर्याप्त इंसुलिन नहीं बना पाता या फिर वह इंसुलिन (यह रक्त से ग्लूकोज को शरीर की सभी कोशिकाओं में ले जाने का काम करता है) का प्रतिरोध करता है। इसमें ज़्यादा प्यास लगना, बार-बार पेशाब आना, भूख लगना, थकान और धुंधला दिखना जैसे लक्षण शामिल हैं।

हाइपरटेंशन यानी उच्च रक्तचाप में शरीर की धमनियों ( ये रक्त वाहिकाएं होती हैं, जो हृदय से रक्त को आगे पहुंचाती हैं) में रक्त का दबाव अधिक हो जाता है।

हाई लिपिड यानी हाइपरलिपिडिमिया (उच्च कोलेस्ट्रॉल) में व्यक्ति रक्त में लिपिड या वसा की अधिकता हो जाती है। यह दिल के दौरे और स्ट्रोक के जोखिम को बढ़ा सकता है जिससे खून धमनियों में आसानी से बह नहीं पाता।

रिपोर्ट के अनुसार, इससे बालों का झड़ना,मुंहासे, एलर्जी, अस्थमा, थायरॉइड, मासिक धर्म संबंधी समस्याएं, स्वप्रतिरक्षी रोग या कम प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया भी हो सकती है।

दीर्घकालिक तनाव (लंबे समय तक रहने वाला तनाव) मनोवैज्ञानिक बीमारियां जैसे अवसाद,पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (मानसिक स्वास्थ्य स्थिति जो किसी घटना से जुड़ी होती है),खान-पान संबंधी समस्या और यौन संबंधी समस्या को भी जन्म देता है।

बार-बार सिर में दर्द होना, हाइपरएसिडिटी (पेट में सामान्य से ज़्यादा मात्रा में एसिड होना), गैस्ट्रिक गड़बड़ी (पेट में सूजन और जलन का होना), चिड़चिड़ापन, मांसपेशियों में तनाव, माइग्रेन, जोड़ों में दर्द इत्यादि। इसके साथ ही सोने में दिक्कत, रात में बार-बार जगना, सुबह जल्दी उठना या ज़्यादा ज़ोना, लगातार थकान महसूस करना, कम ऊर्जा का होना, भूख या वज़न में बदलवा आदि कई चीज़ें तनाव की ओर संकेत करती हैं।

युवाओं में बढ़ते कार्डियक अरेस्ट के मामले | Cardiac arrest cases amongst youngsters

काम के दबाव व तनाव से युवाओं में साल दर साल कार्डियक अरेस्ट के मामले में बढ़े रहे हैं। बता दें, कार्डियक अरेस्ट, अचानक दिल की धड़कनों के रुकने से होता है जिसे सडन कार्डियक अरेस्ट (Sudden Cardiac Arrest) भी कहते हैं।

एनडीटीवी की जून 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिकी शोध बताता है कि 30 से 40 वर्ष के मध्य आयु वाले लोगों में अचानक कार्डियक अरेस्ट में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं इंडियन हार्ट एसोसिएशन (Indian Heart Association) के अनुसार, जब हृदय लोग भारतियों में होता है तो वह अन्य जनसांख्यिकीय (मानव आबादी का वैज्ञानिक अध्ययन है) लोगों की तुलना में काफी पहले ही शुरू हो जाता है वह भी बिना किसी चेतावनी के।

न्यूज़ 18 की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, गुड़गांव के आर्टेमिस अस्पताल (Gurgaon’s Artemis Hospital) में कार्डियोलॉजिस्ट और एंजियोप्लास्टी हार्ट सर्जन डॉ. मनजिंदर संधू के बताते हैं कि कार्डियक अरेस्ट का अनुभव करने वाले 30 प्रतिशत लोग 45 वर्ष से कम उम्र के पाए गए। डॉ. संधू ने दावा किया कि भारत में करीब 12 लाख युवाओं की मौत का कारण कार्डियक अरेस्ट है। यह भी कहा कि हाल के वर्षों में यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है।

स्ट्रेस/तनाव को मुख्य समस्या की तरह न देखना या नज़रअंदाज़ करना, आज भी सबसे बड़ी समस्या है। व्यक्ति के तनाव को कम और ज़्यादा में आंका जाता है। उन्हें कहा जाता है कि तुम जवान हो तो इतना तनाव, परेशानी, दोगुना काम तो तुम कर ही सकते हो क्योंकि कंपनियों के सीनियर,बॉस इत्यादि ने यह झेला है उनकी सफलता की सीढ़ी समझकर। आज भी इसी विचार के साथ अधिकतर कंपनियां अपने कर्मचारियों पर इन सब चीज़ों को अपनाने का दबाव बनाती हैं और जब वह आवाज़ उठाते हैं तो उन्हें अन्ना की तरह डांट लगाकर, तुलना करके और तनाव व दबाव देकर छोड़ दिया जाता है, अकेले… बिना किसी सहायता के। तनाव में, दबाव में काम करते रहने का यह वर्क कल्चर/संस्कृति जो लोगों की जानें ले रही हैं, इसके बाद भी कोई होश में क्यों नहीं आता? बदवाल कहां से और कैसे लाया जाए? क्या इसे समझने का प्रयास किया जा रहा है? कंपनियां सिर्फ कुछ डिनर, कहने को मानसिक स्वास्थ्य की वर्कशॉप, खुद को कमर्चारियों की निजी ज़िंदगी में घुसाकर, ज़रूरत न हो फिर भी, यह सब करके काम का एक कथित अच्छा वातावरण तैयार करने का दिखावा करती है, बस कहने के लिए!!

 

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