खबर लहरिया जवानी दीवानी दलित महिला प्रधानों ने बदली गाँव की तस्वीर पर क्या उन्हें बराबरी का दर्जा मिला?

दलित महिला प्रधानों ने बदली गाँव की तस्वीर पर क्या उन्हें बराबरी का दर्जा मिला?

“एक तरफ हमारा देश विभिन्न क्षेत्रों में पूरी दुनिया में नित नए प्रतिमान गढ़ रहा है, वहीं देश की आधी आबादी समाज में समानता के लिए संघर्षरत है। गैर बराबरी की यह सोच, घर-परिवार समेत समाज के हर हिस्से में इस कदर बैठी हुई हैं कि तमाम कोशिशों के बावजूद महिलाएं, पुरुषों के समान स्थान और सम्मान नहीं हासिल कर पा रही हैं। ऐसे में महिलाओं के सशक्तिकरण की राह में सबसे प्रमुख बाधा के रूप में मौजूद लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए बहुस्तरीय प्रयास जरूरी हैं। ”

इस दुनिया की पहली नारीवादी चिंतक सिमोन द बोउआर ने कहा था, ‘पहले औरत के पंखों को काट दिया जाता है और फिर उस पर इल्जाम लगाया जाता है कि उसे उड़ना नहीं आता।’ आज भी यह कथन उतना ही सत्य है, जितना पिछली सदी के मध्य में था। आज भी हमारे मस्तिष्क में स्त्री की छवि, दूसरों पर निर्भर एक अबला की बनी हुई है। मां के रूप में भले ही समाज में उसको पूजा जाता हो, लेकिन एक स्त्री के रूप में अधिकांशत: उसे मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। यह हमारे समाज की भयावह सच्चाई है।”

आज महिलाएं हर क्षेत्र में आने के लिए पूरी ईमानदारी से जद्दोजहद मेहनत कर रही हैं लेकिन समाज उनको पीछे धकेलने के लिए बहुतायत प्रयासरत है पर ये महिलाएं भी कम नहीं।

जिला चित्रकूट, ब्लाक मऊ, गांव कोलमज़रा की प्रधान सुशीला देवी और बांदा जिला, ब्लाक तिंदवारी, सुमित्रा श्रीवास, ग्राम प्रधान महुई कहना है कि वह पढ़ी लिखी होने के बावजूद भी प्रधान के काम में कई तरह की दिक्कतें खड़ी करने के लिए लोग तैयार रहते हैं। पर इन सबको पर करके मैंने अपने पंचायत के सारे काम पूरे किए हैं। लोग व्यकित गत कीचड़ उछालते हैं जब जीत नहीं पाते मैंने हर तरह की दिक्कतें झेली है। समाज में कुछ अच्छे लोग हैं तो कुछ बुरे भी। बुरे का काम बुराई करना है। दलित होने के नाते और बहुत परेशान किया जाता है।