खबर लहरिया Blog भारत में कोविड-19 से मुस्लिमों,दलित व वंचित समूहों की जीवन प्रत्याशा में आई सबसे ज़्यादा कमी | Covid-19 Mortality Rate in India

भारत में कोविड-19 से मुस्लिमों,दलित व वंचित समूहों की जीवन प्रत्याशा में आई सबसे ज़्यादा कमी | Covid-19 Mortality Rate in India

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण पर आधारित शोध के अनुसार, 2019 और 2020 के बीच मुसलमानों की जीवन प्रत्याशा 5.4 वर्ष कम हो गई। वहीं सवर्ण जाति से आने वाले हिंदुओं की जीवन प्रत्याशा में सिर्फ 1.3 वर्ष की गिरावट देखी गई। अन्य सामाजिक रूप से वंचित समूह जैसे अनुसूचित जनजातियों के लिए 4.1 वर्ष और अनुसूचित जातियों के लिए 2.7 वर्ष की गिरावट देखी गई। 

 देश में कोरोना का सबसे ज़्यादा प्रभाव सामाजिक रूप से पिछड़े व कमज़ोर वर्ग के लोगों पर हुआ है। वहीं वे लोग जो सवर्ण समाज से आते हैं व आर्थिक मज़बूती रखते हैं, उन पर महामारी का सबसे कम असर हुआ है। (फोटो साभार- Adnan Abidi/Reuters)

Covid-19 Mortality Rate in India:  भारत में कोरोना के प्रभाव से मुस्लिम,दलित,एससी,एसटी व आदिवासी समुदाय से आने लोगों की जीवन प्रत्याशा (mortality risk) में सबसे ज़्यादा कमी देखी गई है। इनमें भी मुस्लिम समुदाय ऐसा था जिनकी जीवन प्रत्याशा कोविड-19 महामारी (Covid-19 pandemic) के पहले साल में सबसे ज़्यादा कम हुई। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey) पर आधारित एक नए शोध में यह निकलकर सामने आया। 

2019 और 2020 के बीच मुसलमानों की जीवन प्रत्याशा 5.4 वर्ष कम हो गई। वहीं सवर्ण जाति से आने वाले हिंदुओं की जीवन प्रत्याशा में सिर्फ 1.3 वर्ष की गिरावट देखी गई। अन्य सामाजिक रूप से वंचित समूह जैसे अनुसूचित जनजातियों के लिए 4.1 वर्ष और अनुसूचित जातियों के लिए 2.7 वर्ष की गिरावट देखी गई। 

यह डाटा ये बताने के लिए काफी है कि देश में कोरोना का सबसे ज़्यादा प्रभाव सामाजिक रूप से पिछड़े व कमज़ोर वर्ग के लोगों पर हुआ है। वहीं वे लोग जो सवर्ण समाज से आते हैं व आर्थिक मज़बूती रखते हैं, उन पर महामारी का सबसे कम असर हुआ है। 

साथ ही कोरोना महामारी के दौरान हमने यह भी देखा कि महामारी का दोष तब्लीगी जमात के लोगों को दिया गया कि वे ही भारत में कोरोना महामारी को लेकर आये हैं और उन्होंने ही देश में इसे फैलाया है। इसके बाद से ही देश में एक बार फिर मुस्लिम समुदाय के प्रति रोष, भेदभाव और बड़े पैमाने पर हिंसा के मामले सामने आने लगे। 

बता दें, जीवन प्रत्याशा का अर्थ है एक व्यक्ति के जीने की उम्मीद किये जाने वाले वर्षों की औसत संख्या। जब किसी समूह में मृत्यु दर बढ़ती है, तो जीवन प्रत्याशा कम हो जाती है।

कोरोना के बाद लोगों की जीवन प्रत्याशा में आई कमी 

जुलाई 2024 में साइंस जर्नल में प्रकाशित हुए Science Advances/ साइंस एडवांसेस पेपर में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों का इस्तेमाल करते हुए साल 2019 में भारतियों के बीच जन्म के समय की जीवन प्रत्याशा की तुलना साल 2020 से की गई। जिसमें यह बताया गया कि यह भारत की लगभग एक-चौथाई आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। 

Scroll.in की रिपोर्ट के अनुसार, रिसर्च में यह पाया गया कि भारतीयों में जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 2.6 वर्ष कम थी वहीं 2019 के मुकाबले 2020 में मृत्यु दर 17 प्रतिशत ज़्यादा थी। 

रिसर्च यह बताती है कि 2020 में 11.9 लाख अत्याधिक मौतें हुई हैं। रिपोर्ट ने इस बात को बताया कि अत्यधिक मौतें एक मीट्रिक है जिसका इस्तेमाल एक महामारी वर्ष और सामान्य वर्षों में सभी कारणों से होने वाली मौतों के बीच अंतर की गणना करके कोविड -19 मृत्यु दर का विश्लेषण करने के लिए किया जाता है।

पेपर में कहा गया कि 2020 में भारत में अतिरिक्त मौतों का यह अनुमान आधिकारिक तौर पर कोविड-19 से होने वाली मौतों की संख्या का लगभग आठ गुना है, और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा उस वर्ष के दौरान अनुमानित अतिरिक्त मौतों का 1.5 गुना।

इसके आलावा पेपर यह भी बताता है कि भारत में महिलाओं की जीवन प्रत्याशा 2020 में पुरुषों की तुलना में एक वर्ष अधिक घटी है। 

हाशिये व कमज़ोर समुदाय से आने वाले लोगों में सबसे ज़्यादा जीवन प्रत्याशा में कमी 

रिसर्च पेपर में यह बताया गया कि सबसे ज़्यादा अधिक मृत्यु दर और जीवन प्रत्याशा में तेज़ी से कमी उन जनसंख्या समूहों में सबसे ज़्यादा है जो लिंग,धर्म,जाति और उम्र के मामले में कमजोर और हाशिये पर मौजूद है। 

उदाहरण के लिए,अध्ययन में 2019 और 2020 के बीच जीवन प्रत्याशा में कुल मिलाकर 2.6 वर्ष की गिरावट पाई गई। वहीं महिलाओं के बीच जीवन प्रत्याशा में कमी 3.1 वर्ष की थी, जोकि पुरुषों के बीच 2.1 वर्ष देखी गई। रिसर्च में बताया गया है कि यह वैश्विक प्रवृत्ति के विपरीत है क्योंकि अधिकांश देशों में महिलाओं की तुलना में पुरुषों की जीवन प्रत्याशा में ज़्यादा कमी पाई जाती है। 

आशीष गुप्ता, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पोस्ट-डॉक्टोरल रिसर्च फेलो और शोध के सह-लेखकों में से एक हैं। उन्होंने Scroll.in को बताया कि सामान्य वर्षों में, भारत में महिलाएं पुरुषों से अधिक जीवित रहती हैं। जब महामारी आई, तो लिंग आधारित सामाजिक परिस्थितियों की वजह से महिलाओं में जीवन प्रत्याशा की कमी ज़्यादा पाई गई।

गुप्ता ने कहा, “हमें यह ध्यान रखने की जरूरत है कि महामारी के दौरान जब हर चीज आपकी जेब पर भारी पड़ रही है, भारतीय घरों में किस चीज को प्राथमिकता दी जाती है। जब आपके पास पैसे की कमी है और स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच सीमित है, तो आप 40 से 60 वर्ष की आयु के पुरुष को प्राथमिकता देंगे जो संभवतः परिवार में कमाने वाला सदस्य है।”

एक अन्य कारक के बारे में बताते हुए कहा कि नागरिक पंजीकरण प्रणाली जैसे आधिकारिक रिकॉर्ड में महिला मृत्यु की कम रिपोर्टिंग थी और यह कमी महामारी से पहले भी थी। 

आगे कहा, “यदि आप सीरो सर्वेक्षणों को देखें [जो वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी के स्तर को मापते हैं], तो आप पाएंगे कि संक्रमण का स्तर पुरुषों और महिलाओं में समान है, लेकिन पुरुषों में मौतों की संख्या अधिक है।” राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चलता है कि ऐसा नहीं है कि अधिक पुरुषों की मृत्यु हुई है, बल्कि बात यह है कि इनकी मृत्यु की रिपोर्टिंग अधिक हो रही है क्योंकि कोविड मृत्यु पंजीकरण इस बात पर काम करता है कि आप टेस्ट करा रहे हैं या नहीं और इसे अस्पताल में मृत्यु के रूप में गिना जाता है।”

अंततः रिपोर्ट में यही सामने आया कि महिलाओं की तरह भारत में विशेषाधिकार प्राप्त सामाजिक समूहों की तुलना में वंचित जाति और धार्मिक समूहों के बीच जीवन प्रत्याशा में अधिक गिरावट पाई गई है। 

गुप्ता ने यह भी कहा कि इससे यह साफ़ होता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बीच जीवन प्रत्याशा में गिरावट कथित तौर पर सवर्ण जाति के हिंदुओं की तुलना में अधिक तेज क्यों है। उन्होंने कहा, “तथ्य यह है कि इन हाशिए पर रहने वाले समूहों में अतिरिक्त मृत्यु दर अधिक थी और इसकी कम रिपोर्ट की गई, जिससे पता चलता है कि इन समूहों के साथ जो हो रहा है वह राष्ट्रीय बातचीत में शामिल नहीं होता है।”

मुस्लिम समुदाय के बारे में बात करते हुए कहा कि हाल के सालों में मुस्लिम समुदाय और भी ज़्यादा हाशिये पर चला गया है। उदाहरण के तौर पर, साल 2020 की शुरुआत में जब दिल्ली में दंगे हुए तो उसके बाद से उन्हें और भी ज़्यादा हाशिये पर रख दिया गया। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को स्वास्थ्य देखभाल से पूरी तरह से काट दिए जाने की खबरें सामने आने लगीं।”

कहा कि दिल्ली में तब्लीगी जमात मण्डली महामारी के दौरान मुसलमानों को हाशिए पर धकेलने का एक उदाहरण थी।

पूरे देश में लॉकडाउन से पहले मार्च 2020 में दिल्ली के निजाम्मुद्दीन इलाके में एक धार्मिक मंडली हुई थी। जब केंन्द्र ने इस समूह को कोरोना-19 संक्रमण फैलाने के हॉटस्पॉट के रूप में घोषित कर दिया तो अफवाहों और झूठी ख़बरों ने कोरोना को साम्प्रदायिक रंग देने में देर नहीं लगाई। 

पूरी रिपोर्ट में हमने यही पाया कि कोरोना जैसी महामारी का असर उन पर ही सबसे ज़्यादा हुआ है जिनके पास खुद को सुरक्षित रखने के सबसे कम संसाधन थे,सुविधाओं तक पहुंच नहीं थी, वह हाशिये पर मौजूद वंचित समुदाय से आते थे जिन्होंने उनकी स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच को और भी जटिल कर दिया। लिंग व जातीय तौर पर असमानताओं के कारण समाज में वह सभी सुविधाओं से तटस्थ रहे। वहीं तथाकथित सवर्ण व विशेषाधिकार समाज ने इस दौरान सबसे कम चुनौतियों का सामना किया जो रिपोर्ट साफ़ तौर पर बताती है। 

(यह खबर मूलतः Scroll.in व Science Advances द्वारा दी गई जानकारी के अनुरूप लिखी गई है।)

 

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