खबर लहरिया Blog Chhattisgarh Raygarh: पेड़ों की कटाई के बीच हर साल जारी है जीवन की लड़ाई 

Chhattisgarh Raygarh: पेड़ों की कटाई के बीच हर साल जारी है जीवन की लड़ाई 

एक ओर जहां खदानों और उद्योगपतियों के लिए सैकड़ों साल पुराने जंगलों को नष्ट किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर ग्रामीणों द्वारा हर साल वृक्षारोपण की परंपरा को निभाना, पर्यावरणीय चेतना की सबसे जीवंत मिसाल है।

Rural women carrying saplings

ग्रामीण महिलाओं द्वारा पौधे लिए हुए (फोटो साभार: पुष्पा)

रिपोर्ट – पुष्पा, लेखन – रचना

विकास के नाम पर हुए विनाश की कहानियों से भारत भी अनछुआ नहीं है। भारत में एक राज्य है छत्तीसगढ़, जहां पिछले कई सालों से लगातार जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई चल रही है। छत्तीसगढ़ के कुछ क्षेत्र जैसे कोरबा, हसदेव, रायगढ़ और कांकेर इन जंगल से घिरे क्षेत्रों में जंगल खत्म (काट कर) कर कोयला खदान या बड़ी-बड़ी कंपनियां बनाई जा रही है। जिसके विरोध में लोग (वहां के आदिवासी) डटे हुए हैं। अपने जंगल और जीवन को बचाने के लिए वहां के लोग लड़ रहे हैं, संघर्ष कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में कोयला खदानों का जाल फैलता ही जा रहा है। इसके लिए जगह-जगह के जंगल को उजाड़ा जा रहा है। इसी कड़ी में अगर बात करें तो हाल ही में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के तमनार तहसील के मुड़ागांव और सरायटोला गांवों में लोगों के लाख विरोध करने पर भी 26 और 27 जून 2025 को कम से कम 5,000 पेड़ काटे गए। 

इन गाँवों में गारे पाल्मा सेक्टर II कोयला ब्लॉक में कोयला खदान स्थापित करने के लिए बड़े पैमाने में पेड़ों को काटा जा रहा है। यह खदान महाराष्ट्र राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी लिमिटेड (महाजेनको-MAHAGENCO) के लिए अडानी समूह द्वारा संचालित की जाएगी। 

वहीं दूसरी ओर मुडागांव के ग्रामीणों द्वारा पौधे लगाया जा रहा है। ये पौधारोपण पेड़ों की कटाई के विरोध और उनकी गांव के परम्परा में शामिल है। एक ओर लगातार पेड़ कटाई और दूसरी ओर पौधे लगाना एक उम्मीद और लोगों के संघर्ष की कहानी है। 

 

Villagers planting trees

ग्रामीणों द्वारा पौधे लगाते हुए (फोटो साभार: पुष्पा)

पेड़ कटाई के दौरान सैंकड़ों पुलिस थे तैनात 

दरअसल मुडागांव में एक उद्योग समूह की एक परियोजना के लिए जंगल की कटाई शुरू की गई है। इस कार्य के लिए सैकड़ों पुलिस बल की तैनाती की गई थी। स्थानीय ग्रामीणों का कहना था कि इस क्षेत्र में घने जंगल और जैव-विविधता से भरपूर वन क्षेत्र हैं, जो न केवल पर्यावरणीय संतुलन के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि स्थानीय आदिवासी समुदायों की आजीविका का भी आधार है। इसमें ग्रामीणों का आरोप है कि कटाई के लिए उनकी सहमती नहीं ली गई और न ही इसकी पर्याप्त जानकारी दी गई। 

द वायर के रिपोर्ट के अनुसार, अनुमान है कि इस खदान से कम से कम 655 मिलियन मीट्रिक टन कोयला प्राप्त होगा, लेकिन परियोजना से 14 गांव सीधे प्रभावित होंगे और इसके लिए लगभग 2,584 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया जाना है। इसमें लगभग 215 हेक्टेयर वन भूमि है जिसमें पेड़ों और अन्य वनस्पतियों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया जाएगा। इस क्षेत्र में छह अन्य कोयला खदानें पहले से ही चालू हैं तथा चार और खदानों पर काम चल रहा है। स्थानीय पुलिस ने 26 जून को एक दिन के लिए सात लोगों को अवैध रूप से हिरासत में रखा। इसके बाद भी वहां के निवासियों द्वारा विरोध प्रदर्शन जारी रखा गया। 

trees in the forest were cut down

जंगल के पेड़ों को काटा गया (फोटो साभार: पुष्पा)

पेड़ लगाने की परम्परा 

एक तरफ तेजी से पेड़ों की कटाई की जा रही वहीं दूसरी तरफ रायगढ़ जिले के तमनार तहसील के मुड़ागांव के लोग जंगल कटाई के विरोध के साथ नई उम्मीद लेकर पेड़ लगाने का भी काम कर करे हैं। बता दें मुड़ागांव के लोग हर साल पेड़ लगाने का काम करते हैं। अब पेड़ लगाना उनके संस्कृति और परम्परा का हिस्सा बन चुका है। यह मेहनत और उम्मीद भी एक चुनौतिपूर्ण संघर्ष और हिम्मत से कम नहीं कि एक तरफ मशीन और उद्योगपति जंगल को दीमक की तरह खाते जा रहे हैं और दूसरी तरफ गांव के लोग उस खदान और उद्योगपति के खिलाफ सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं, अब वो चाहे रोड की लड़ाई हो या फिर कोर्ट की। इनकी ख़ासियत यह है कि ये बाक़ियों की तरह बस फोटो के लिए पेड़ लगाते नहीं दिखते हैं बल्कि मुड़ागांव के सभी लोग बारी- बारी से पेड़ के बड़े होने तक उसका खयाल रखते हैं, उस पेड़ को बड़े होने में पूरी मदद देते हैं। 

tree is being planted

पेड़ लगाया जा रहा है (फोटो साभार: पुष्पा)

ग्रामीण हर साल क्यों लगाते हैं पौधे?

स्थानीय ग्रामीणों का कहना है कि यह जंगल उनके पूर्वजों की बीरासत का है और उनकी जीविका का एकमात्र स्त्रोत है। गांव के महिला ग्रामीण राजमुनि भगत बताती हैं कि वे हर साल इस तरह से पौधे लगाती हैं। पेड़ कटे चाहे न कटे। वे यह भी बताती हैं कि यह काम एकजुटता के साथ गांव के सभी लोग मिल-जुल कर करते हैं। पेड़ लगाने के ठीक एक दिन पहले गांव में सूचना दे दी जाती है कि अगले दिन किस जगह पर पौधे लगाए जाएँगे और फिर गांव के महिला, बुजुर्ग और बच्चे सभी एक साथ वृक्षारोपण का काम करते हैं।

 जहर लाल भगत जो उसी गांव के निवासी हैं, बताते हैं कि “पेड़ लगाने का कारण है कि गांव के आसपास में कई कोयला खदानें और बड़ी कारखाने बन गई हैं जिससे प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है और उसी के रोकथाम के लिए हम हर साल पौधे लगाते हैं। हर साल पौधे लगाने का कारण यह भी है कि पेड़ों से ऑक्सीजन मिलता है।” 

ग्रामीणों द्वारा कई तरह के पौधे लगाए जाते हैं 

राजमुनि भगत बताती हैं कि वे कई तरह के पौधे लगाते हैं जिनसे उन्हें उनके जीवन चलाने के लिए कुछ मिल पाए जैसे चार का पेड़ (एक फल का पेड़), महुआ का पेड़, डोरी का पेड़, पान का पेड़, आम का पेड़ आदि। वे इन पेड़ों को इस लिए लगाते हैं ताकि उस पेड़ से निकले फलों,पत्तों और जड़ों से कुछ लाभ मिल सके। वे पान के पत्तों को  तोड़कर पत्तल या फिर बीड़ी बनाते हैं। इन्हें बनाकर वे शहरों में बेचकर कुछ पैसे कमा लेते हैं। शहरों के साथ साथ वे दूसरे-दूसरे गावों में भी पत्तल बेचते हैं। चार और महुआ भी एक फल का पेड़ है उस फल को भी शहर में बेचते हैं। वे हर साल पौधे तो लगा रहे हैं लेकिन पेड़ लगाने के बदले में तेजी से पेड़ काटे जा रहे हैं। जिनसे मुक़ाबला करना बेहद ही मुश्किल है क्यों कि पौधों को पेड़ बनने में सालों लग जाते हैं। 

leaf plate made of betel leaves

पान के पत्तों का पत्तल बनाया हुआ (फोटो साभार: पुष्पा)

बारी-बारी से करते हैं पौधों का देखभाल 

मुड़ागांव के लोग बारी-बारी से लगाए हुए पौधों का देखभाल करते हैं। ग्रामीण बताते हैं कि गांव के सभी लोग एकजुट होकर पौधे लगाते हैं इसी कारण वे सभी एक साथ पौधे का ध्यान भी रखते हैं। गांव में हर दिन के लिए पांच या छह लोगों का ग्रुप बनाया जाता है जो हर दिन जितने भी पौधे लगे होते हैं उसका देख-भाल करते हैं। जानवरों से बचा कर रखने के लिए वे पेड़ों को चारो तरफ से लोहे के तारों में बांध कर रखते हैं। 

छत्तीसगढ़ के मुड़ागांव और सरायटोला जैसे गांवों की कहानी केवल जंगल और ज़मीन की लड़ाई नहीं है, यह एक सभ्यता, संस्कृति और जीवनशैली की रक्षा की लड़ाई है। विकास के नाम पर जिस विनाश को बार-बार जायज़ ठहराया गया है, वहां के स्थानीय आदिवासी समुदायों ने यह दिखा दिया है कि वे केवल विरोध नहीं कर रहे, बल्कि प्रकृति के साथ जीने की परंपरा को ज़िंदा रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। एक ओर जहां खदानों और उद्योगपतियों के लिए सैकड़ों साल पुराने जंगलों को नष्ट किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर ग्रामीणों द्वारा हर साल वृक्षारोपण की परंपरा को निभाना, पर्यावरणीय चेतना की सबसे जीवंत मिसाल है। 

 

यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’

If you want to support  our rural fearless feminist Journalism, subscribe to our  premium product KL Hatke