छत्तीसगढ़: रायपुर जिले के सिलतरा औद्योगिक क्षेत्र की एक ऐसी मजदूर बस्ती जो चारू तरफ सैकड़ों कंपनियों से घिरी है। यहां पर लोग कंपनियों से निकली जहरीली गैस, प्रदूषित पानी और असहनीय आवाज में रहने को मजबूर हैं। विकास के नाम पर सिर्फ वोट लिए जाते हैं। ऊपर से जबरन लोगों को उनके घरों से निकालना, डराना, धमकाना भी किया जाता है।
22 साल की सोमा बताती हैं कि यह बस्ती 2004 में बसी थी। यहां पर जमीन खाली पड़ी थी उसमें वह रहने लगे। यह जमीन एकेबीएन की थी। मेरे मां बाप के साथ मैं और उनके दोस्त यहां रहने आये तब मैं बहुत छोटी थी। मेरे मां बाप पहले से ही छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जुड़े थे। यह बात जब यहां सरपंच, पंच, विधायक को पता चला तो बहुत ही ज्यादा परेशान करने लगे। रात में आते थे गुंडे लेकर डराते धमकाते थे। जब वह छोटी थी तो रोज पांच से छह किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ने जाती थी। कम्पनी में भाड़ा ढोने वाले डम्फर के गद्दों से छुपी छुप कर स्कूल जाती जाती थी। परेशान होकर उसके मां बाप और दोस्तों ने यहां पर रहना छोड़ दिया और वह कहीं और रहने लगे। सोमा फिर से उस बस्ती गई तो सारी यादें ताज़ा हो गई। कहती है कि जो स्थिति पहले थी उससे भी बदतर स्थिति हो गई है।
17 साल की वंदना निषाद बचपन से ही इस बस्ती में रहती है। इस साल 12वीं की पढ़ाई कर रही है। रोज तीन से चार किलोमीटर साइकिल से कॉलेज जाती हैं और उनकी सहेलियां भी। उनके बस्ती में कोई स्कूल नहीं हैं। बच्चे रोड़ पर करके स्कूल जाते हैं। छोटे छोटे बच्चों को एक्सीडेंट होने का डर बना रहता है फिर भी बच्चों को स्कूल तो जाना ही पड़ेगा।
20 साल के सुनील निषाद कहते हैं कि उन्होंने पढ़ाई नहीं की और बचपन से ही कम्पनी में काम करने लगे। पन्द्रह साल हो गए कम्पनियों में काम करते हुए मतलब कि पांच साल की उम्र से ही काम करना शुरू कर दिया। परिवार की आर्थिक जिम्मेदारी आ पड़ी। उनकी छोटी बहन सिलाई करती है। बड़ी बहन की शादी हो गई है। उनके बस्ती में पानी की भी व्यवस्था खराब है। गन्दा पानी आने से लोग बीमार रहते हैं। सर्दी, खांसी, बुखार हमेशा बना रहता है। अभी बरसात है तो सारी धूल बैठ गई है लेकिन गर्मियों में भट ज्यादा धूल भरी होती है।
50 साल की विमला बताती हैं कि वह यहां 20 साल से रह रही हैं। बहुत मुश्किल से यहां रह पाए रहे हैं। कम्पनी बनाने वाले लोगों और प्रधान ने उनको उनकी जमीन से निकालना चाह रहे थे लेकिन उन्होंने अपनी जमीन नहीं छोड़ी। बहुत लड़ाई लड़नी पड़ी यहां तक कि प्रधान ने भी साल नहीं दिया। अब हमें जल निकासी के लिए नाली, सड़क, बिजली, पानी, स्कूल, आवास, शौंचालय, राशन कार्ड जैसी सरकारी योजनाओं के लिए लड़ाई लड़नी पड़ रही है। चारो तरफ कम्पनियां हैं और बीच में उनकी बस्ती बसी हुई है।
36 साल की संगीता बताती हैं कि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा में काम करती हैं। 2010 से पहले वह भी इस बस्ती में रहती थीं और मजदूरी करती थीं। जब वहां के नेताओं को यह बात पता चली कि वह एक ऐसे संगठन से जुड़ी हैं जो कम्पनियों के द्वारा हो रहे अन्याय पर आवाज उठाती हैं तो उनको कम्पनी के काम से बाहर होना पड़ा। यहां तक कि 2010 में दूसरे शहर में रहने को मजबूर होना पड़ा।
16 साल से रहने वाली इन्द्रकुमारी कहती हैं कि वह कंपनियों में झाड़ू लगाने का काम करती हैं। दो सौ रुपये दिहाड़ी देते हैं। आठ से दस घण्टे की ड्यूटी करनी पड़ती है। उनके तीन लड़के कम्पनी में काम करते हैं। निर्मला एकल महिला हैं और वह भी फैक्टरी में काम करती हैं। ग्यारह से 12 घण्टा के ड्यूटी करती हैं।
19 साल की दुर्गामन की शादी अभी हाल में ही हुई है। उनको खुले में ही शौंच जाना पड़ता है। चारो तरफ कम्पनी के लोग दिखते हैं। उनको बहुत अजीब लगता है। दिखाने के लिए 15 सामुदायिक शौंचालय बने हुए हैं लेकिन इतने टूटे फूटे हैं कि उनमें कोई नहीं जा सकता। वह अपने पति सास सबसे पूंछती हैं कि यह व्यवस्था क्यों नहीं है तो वह भी चुप करा देते हैं।
यहां के पंच सविता, सरपंच रामकुमार और विधायक से फोन पर बातचीत करने की कोशिश की गई लेकिन सम्पर्क नहीं हो पाया। उनसे बातचीत नहीं हो सकी।