छत्तीसगढ़ राज्य के धमतरी ज़िले में स्थित गंगरेल बांध है ,लेकिन बांध के निर्माण के समय आदिवासी समुदायों की भूमि अधिग्रहण की गई थी और पुनर्वास वादा किया गया था। जो आज भी विवाद का कारण बने हुए हैं और लोग अपने पुनर्वास की माँग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं।
लेखन – रचना
क्या इस बात का यक़ीन किया जा सकता है कि छत्तीसगढ़ के धमतरी ज़िले में एक बांध से विस्थापित सैंकड़ों आदिवासी पिछले 57 सालों से अपने पुनर्वास और मुआवज़ों के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। इन विस्थापितों की एक पूरी पीढ़ी इस लड़ाई में मर के खप गई। अब दूसरी और तीसरी पीढ़ी भी अपने हक़ के लिए सड़कों पर है लेकिन लोकतांत्रिक तरीक़ों से की जा रही हर माँग को ख़ारिज करने वाली सरकारों ने ना पहले इन विस्थापकों की बात सुनी ना अब सुन रही है।
छत्तीसगढ़ के धमतरी ज़िले में एक बांध है, नाम है रविशंकर बांध जिसे आमतौर पर गंगरेल बांध के नाम से जाना जाता है। 15,000 क्यूसेट (यह पानी के प्रवाह की दर को मापने के लिए एक इकाई है) पानी की क्षमता वाले इस बांध के निर्माण का उद्देश्य था कि खेतों की सिंचाई और भिलाई स्टील प्लांट व रायपुर शहर को पानी की पूर्ति हो। इस बांध का निर्माण 1972 से 1978 के बीच पूरा हुआ। तब से इस बांध से विस्थापित ग्रामीण अपने पुनर्वास की माँग कर रहे हैं। मांग करते-करते कई आदिवासियों की मौत हो गई लेकिन इन 57 सालों में भी आदिवासियों का पुनर्वास पूरा नहीं हो पाया। राज्य सरकार ने तो पहले स्वीकार ही नहीं किया कि किसी का पुनर्वास बचा हुआ है। सरकार इसके लिए विस्थापन के समय पुनर्वास नियम नहीं होने का हवाला देती रही। यह सिलसिला अविभाजित मध्य प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ तक जारी रहा लेकिन मामला जब अदालत में पहुंचा तो इसकी परतें खुलने लगीं। अदालत ने साढ़े चार साल पहले ग्रामीणों के पक्ष में फैसला सुनाया था लेकिन सरकार ने अदालत के आदेश को भी ठेंगा दिखा दिया। वे वर्तमान में धमतरी ज़िले के गांधी मैदान में अनिश्चितकालीन धरना में बैठे हुए हैं जिसमें महिलाएँ, पुरुष, बुजुर्ग, युवा सभी आंदोलन में डटे हुए हैं।
बांध का निर्माण और विस्थापन
गंगरेल बांध का निर्माण 1970 के दशक में किया गया था। दैनिक भास्कर के एक रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में स्थित गंगरेल बांध लगभग 16,704 हेक्टेयर ज़मीन पर फैला है। यह बांध महानदी नदी पर बनाया गया है और 55 गांवों में रहने वाले 5,347 लोगों की 16,496.62 एकड़ निजी जमीन और 207.58 एकड़ आबादी जमीन सहित कुल 16,704.2 एकड़ जमीन डूब गई है। इस परियोजना (जल पूर्ति बांध निर्माण ) के लिए आसपास के कई गांवों की भूमि अधिग्रहित की गई, जिससे हजारों आदिवासी परिवार विस्थापित हुए। सरकार ने पुनर्वास के लिए योजनाएं बनाई थीं, लेकिन इन योजनाओं का क्रियान्वयन समय पर और प्रभावी ढंग से नहीं हो सका। नतीजा हुआ कि विस्थापित परिवारों को उचित पुनर्वास और मुआवजा नहीं मिल सका जिससे उनका जीवनयापन प्रभावित हुआ।
आंदोलन का प्रारंभ और कारण
आंदोलन का प्रारम्भ बांध निर्माण के बाद (1979-80) ही शुरू हो गया था क्योंकि किसी भी किसान को कोई भी मुआवजा नहीं मिल पाया था। विस्थापन के बाद, प्रभावित आदिवासी समुदायों ने अपनी भूमि और अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष शुरू किया जिसमें उनकी मुख्य मांगें हैं:
– विस्थापित परिवारों को उनकी भूमि के बदले पर्याप्त पुनर्वास और मुआवजा प्रदान किया जाए।
– बांध के जलाशय में मछली पालन करने का अधिकार उन्हें दिया जाए, जिससे उनकी आजीविका बनी रहे।
– उनकी पारंपरिक भूमि अधिकारों की रक्षा की जाए।
वहाँ की किसान आदिवासी तब से लेकर आज तक अपने माँगों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इन मुद्दों पर आंदोलन धीरे-धीरे तेज़ होता गया और विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इसका समर्थन किया जैसे पंजाब का किसान मोर्चा जो पंजाब में किसानों का एक बड़ा संगठन है।
कोर्ट का आदेश और सरकार की चुप्पी
योगेश्वर यादव नामक एक किसान जो धमतरी से हैं, ने बताया कि इस बांध का निर्माण कार्य पाँच मई 1972 तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा कराया गया था। इंदिरा गांधी द्वारा आदेश दिया गया था कि लोगों को पुनर्वास किया जाएगा, नई जगह पर ज़मीन दी जाएगी, मुआवजा दिया जाएगा और भिलाई स्टील प्लांट (बीएसपी), एक बहुत बड़ा कारख़ाना जिसमें स्टील और लोहे का जैसे रेलों का सामान निर्माण किया जाता है) में परिवार के किसी एक सदस्य को नौकरी देने की बात कही थी। समय बिताता गया लोग उम्मीद लगाए बैठे थे। 1978 में सरकार दवा करती रही कि एक मंगलु नामक व्यक्ति के अलावा सब को मुआवजा दिया जा चुका है। इतना ही नहीं आंदोलन शुरू होने के कुछ साल बाद आंदोलन को ख़त्म करने और किसानों के आवाज़ों को दबाने के लिए किसानों के ऊपर सरकार द्वारा लाठीचार्ज भी करवाया गया। योगेश्वर यादव वो व्यक्ति हैं जो आंदोलन करते हुए जेल भी भेजे गए। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में पुनर्वास के मामले कई साल तक चले। इस बांध से प्रभावित 8,560 परिवारों ने जबलपुर हाईकोर्ट, 2004 में पुनर्वास और मुआवज़े के माँग के साथ याचिका दायर की थी। बाद में बांध से विस्थापित लोगों ने थक हर कर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में 2008 और फिर 2016 में अलग-अलग याचिकाएँ दायर की लेकिन उसके बाद भी किसानों को ज़मीन देने की बात फ़ाइल में बंद होकर इधर से उधर इस सरकार से उस सरकार होती रही। 16 दिसम्बर 2020 को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में जस्टिस ऐमऐम श्रीवास्तव ने फ़ैसला सुनते हुए कहा कि सभी किसानों को जिसकी ज़मीन बांध में डूबी है उन्हें पुनर्वास किया जाना चाहिए लेकिन अदालत के आदेश के बावजूद सरकार किसानों की आवाज़ को नज़रंदाज़ कर रही है। ये सवाल है कि आख़िर सरकार क्या चाहती है ?
वर्तमान स्थिति और आंदोलन की निरंतरता
वर्तमान में, गंगरेल बांध से प्रभावित आदिवासी समुदाय अपनी मांगों को लेकर सक्रिय हैं। वे समय-समय पर प्रदर्शन, धरना और अन्य शांतिपूर्ण आंदोलनों के माध्यम से अपनी आवाज़ उठा रहे हैं और वर्तमान में गांधी मैदान में पिछले एक महीने से धरने पर बैठे हुए हैं। इन आंदोलनों में स्थानीय संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता और अन्य नागरिक समाज के सदस्य भी शामिल होते हैं। हाल ही में चल रहे अनिश्चितकालीन धरने को सात दिनों के लिए स्थगित ग़र दिया गया है। ईटीवी की खबर के अनुसार धमतरी महापौर रामू रोहरा से मुलाकात के बाद आंदोलन को स्थगित किया गया है। महापौर ने प्रभावितों को मुख्यमंत्री से मिलवाने और चर्चा करवाने का आश्वासन दिया है। प्रभावितों को मुख्यमंत्री से चर्चा के बाद मांगें पूरी हो जाने की उम्मीद है।
हालांकि सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं लेकिन प्रभावित समुदायों का कहना है कि उनकी मुख्य मांगों का समाधान अभी तक नहीं हुआ है। वे लगातार अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं। गंगरेल बांध का निर्माण और उसके बाद का विस्थापन एक जटिल और संवेदनशील मुद्दा है। यह दर्शाता है कि विकास परियोजनाओं के दौरान आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा कितनी महत्वपूर्ण है। सरकार और संबंधित अधिकारियों को चाहिए कि वे प्रभावित समुदायों की समस्याओं का समाधान जल्द और प्रभावी ढंग से करें ताकि उनके जीवन स्तर में सुधार हो सके और वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें।
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