हजारों हेक्टेयर जंगल खत्म हो चुके हैं जिससे हाथियों का पारंपरिक इलाका लगातार सिकुड़ रहा है। भोजन के स्रोत घटने और पानी की कमी के कारण हाथी अब अपने सुरक्षित स्थान से बाहर निकलने को मजबूर हो गए हैं जिससे ग्रामीण परेशान हैं कि जान बचाएं या फसल।
रायगढ़/बलौदा बाजार –
रिपोर्टिंग – पुष्पा, पिंकी लेखन – खबर लहरिया
छत्तीसगढ़ के घने जंगल जो कभी हाथियों के शांतिपूर्ण और सुरक्षित आश्रय थे अब तेज़ी से सिमटते जा रहे हैं। जहां कभी इन जंगलों की गहराइयों में हाथियों के झुंड निश्चिंत होकर चरते-घूमते थे आज वहां पेड़ों की जगह खदानें, उद्योग और सड़कों का जाल बिछ चुका है। हर दिन होती पेड़ों की कटाई और पहाड़ों का सीना चीरती खनन मशीनें हाथियों के घर को धीरे-धीरे खत्म कर रही हैं। नतीजा ये निकल रहा है कि अपने प्राकृतिक आवास से विस्थापित ये विशाल जीव अब गांवों और खेतों की ओर बढ़ने को मजबूर हैं। यह बदलाव न केवल उनके अस्तित्व के लिए खतरा है बल्कि ग्रामीणों के जीवन और आजीविका के लिए भी गंभीर चुनौती बन चुका है। अब इन हाथियों के झुंड से ग्रामीण लोगों का जीना हाराम है। ग्रामीण हाथियों से अपने जान को बचाएं या अपने फसलों को?
हाथियों का पारंपरिक घर अब खतरे में
छत्तीसगढ़ के रायगढ़, सरगुजा, कोरबा और कटघोरा जिलों के घने जंगल हमेशा से हाथियों के निवास रहे हैं। इन जंगलों में उन्हें भरपूर भोजन, पर्याप्त पानी और शिकारियों से सुरक्षित वातावरण मिलता था। लेकिन साल 2022 से अब तक में जंगलों की अंधाधुंध कटाई, खनन परियोजनाओं और औद्योगिक विस्तार ने इन इलाकों की स्थिति को असंतुलित और डर का माहोल बना दिया है। वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि खनिज संपदा के दोहन और लकड़ी की अवैध कटाई से हजारों हेक्टेयर जंगल खत्म हो चुके हैं जिससे हाथियों का पारंपरिक इलाका लगातार सिकुड़ रहा है। भोजन के स्रोत घटने और पानी की कमी के कारण हाथी अब अपने सुरक्षित स्थान से बाहर निकलने को मजबूर हो गए हैं।
गांवों में बढ़ रहा हाथियों का प्रवेश
जिला रायगढ़, ब्लॉक खरसिया गांव के कटईपाली में जाकर इन घटनाओं के बारे में जानने की कोशिश की गई। वहां के किसान गंगाराम सिदार बताते हैं कि पहले हाथियों का गांव में आना एक मौसमी घटना होती थी। गर्मी और बरसात में वे आते, थोड़ा-बहुत खाते-पीते और वापस लौट जाते थे। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। हाथी बार-बार और कभी भी गांव में आ जाते हैं। ग्रामीण डर के मारे मशाल, डंडे और पटाखों का सहारा लेकर उन्हें भगाने की कोशिश करते हैं लेकिन यह प्रयास कई बार उल्टा पड़ जाता है। हाथी गुस्से में आकर फसलों को रौंद देते हैं और कभी-कभी घरों को भी नुकसान पहुंचाते हैं। बलौदा बाजार के कसडोल ब्लॉक के पूर्व सरपंच धनेश्वर यादव बताते हैं कि पहले जहां एक झुंड में 5-10 हाथी आते थे अब एक साथ 30-35 हाथियों का गांव में घूमना आम बात हो गई है। गंगाराम जी का कहना है की “हाथियों का झुण्ड जब आते है तो वो बहुत शांति से आते है शोर – शराबा नहीं करते इस लिए गांव के लोगों को हाथी आने का पता जल्दी नहीं लग पाता है। इसलिए गांव के लोग अपने बचाव के लिए पेड़ों के ऊपर झाला बनाकर ऊपर से देखते है की हाथियों का झुंड किधर से आ रहा है।” सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम न होने से ग्रामीणों और हाथियों के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है। धनेशवर यादव ने बताया कि “हाथी नुकसान तो इतना नहीं करते हैं। जब तक उनको गांव के लोग हानि पहुंचाने की कोशिश ना करें तब तक और वन विभाग के द्वारा कोई भी सुरक्षा व्यवस्था नहीं की जाती है इसलिए हाथियों का झुंड और गांव के लोगों के बीच में आमना-सामना होता रहता है।”
मादा हाथियों का गांवों में बच्चे जनना
जिला बलौदा बाजार ब्लॉक कसडोल गांव गिडोला की पिंकी पारधी 26 वर्षीय युवा है। पिंकी जन संगठन जल, जंगल,जमीन को बचाने के ऊपर काम करती है इसके साथ ही वे दलित आदिवासी मंच संगठन से जुड़कर भी काम करती हैं। पिंकी कहती है कि “हमने पहले हाथियों के झुंड टीवी या फोटो में देखा करते थे लेकिन अब लगातार हाथियों का झुंड अपने गांव में देख रही हूं। ये 2015 से अभी तक यहीं आसपास नजर आते हैं। पिछले साल हाथियों का झुंड अपने बच्चों के बिना गांव में आते थे और अब अपने बच्चों को साथ लेकर आते हैं।” पिंकी के मुताबिक हाल के वर्षों में मादा हाथियों ने गांव के पास ही बच्चे जनना शुरू कर दिया है। शायद उन्हें अब जंगल की तुलना में गांव के किनारे अधिक सुरक्षित महसूस होता है। पिंकी का कहना है कि ये देख उसे अच्छा लगता है कि हाथी को उसका गांव पसंद आया, हाथी यहां खूद को सुरक्षित महसूस करते हैं। हालांकि ग्रामीणों के मन में यह डर भी बना रहता है कि कहीं हाथी अचानक हमला न कर दें। गांव की महिलाएं कहती हैं कि जब हाथी शांतिपूर्वक जा रहे हों तो उन्हें छेड़ना नहीं चाहिए। यह मानव और हाथी दोनों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है।
हाथियों के आने का कारण: जंगलों की कटाई और पानी की कमी
हाथियों के गांवों की ओर रुख करने के पीछे सबसे बड़ा कारण है जंगलों का खत्म होना और पानी के स्रोतों का सूख जाना। गर्मियों में जंगल के भीतर तालाब और छोटे जलाशय सूख जाते हैं जिससे हाथियों को गांवों के तालाब, नहर और बांध आकर्षित करते हैं। बरसात के समय खेतों में उग रही फसलें उन्हें आसानी से भोजन देती हैं। पहले जंगलों में बांस, फलदार पेड़ और कई प्रकार के पौधों की प्रचुरता थी लेकिन अब वहां बंजर जमीन और खनन के गड्ढे दिखाई देते हैं।
नरेश पेकर जी ने बताया कि हाथियों का झुंड अर्जुनी परिक्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सभी गांवों में आता है। यह झुंड लगातार हर वर्ष इन इलाकों में विचरण करता रहता है जिससे जन और धन दोनों के नुकसान की संभावना बनी रहती है। हालांकि अगर उनका इरादा नुकसान पहुंचाने का होता तो वे ज़रूर लोगों को हानि पहुंचाते लेकिन ऐसा नहीं है। हमारे गांव में आने वाला हाथियों का यह झुंड जसपुर, सरगुजा और महासमुंद होते हुए बलौदा जिले में प्रवेश करता है। यहां का मैदानी क्षेत्र और जंगल उनके लिए उपयुक्त है इसलिए वे यहां स्थायी रूप से विचरण करते रहते हैं। जंगलों में उन्हें पर्याप्त मात्रा में भोजन मिल जाता है इसीलिए हाथियों का झुंड इन गांवों के आसपास अक्सर दिखाई देता है। पहले की तरह अब इस इलाके में कूप कटिंग का काम नहीं होता (कूप कटिंग का मतलब है जिस क्षेत्र में बांस के पेड़ लगे होते हैं, उस क्षेत्र को कूप कहते हैं)। इस वजह से यहां के पेड़-पौधे अच्छे से बढ़ रहे हैं। साथ ही गांव वाले अब लकड़ी का अधिक उपयोग नहीं करते इसलिए जंगल घना और हरा-भरा बना हुआ है।
गांव वालों का कहना है कि हाथियों के झुंड में कई छोटे हाथी भी शामिल होते हैं जो जंगल से सटे इलाकों में मस्ती करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। वन विभाग ने गांव वालों को सतर्क रहने के निर्देश दिए हैं क्योंकि हाथियों के बच्चों की मौजूदगी में झुंड अधिक आक्रामक हो सकता है।
ग्रामीणों की चिंता और समाधान की जरूरत
गांव के लोग हाथियों से डरते भी हैं और उनका आदर भी करते हैं। लेकिन लगातार हो रहे टकराव से जान-माल का नुकसान बढ़ता जा रहा है। कई बार हाथी गुस्से में पूरी की पूरी फसल तबाह कर देते हैं जिससे किसानों की सालभर की मेहनत मिट्टी में मिल जाती है। वन विभाग ने कई जगह “हाथी सूचना ग्रुप” बनाए हैं जो गांव वालों को सतर्क रहने की जानकारी देते हैं। लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि यह पर्याप्त नहीं है। असली समाधान तभी संभव है जब जंगलों की कटाई पर रोक लगे पुराने जलस्रोत बहाल किए जाएं और हाथियों के लिए पर्याप्त और सुरक्षित वन-क्षेत्र बनाए जाएं।
पिंकी अपना अनुभव बताते हुए कहती है कि “मैं दलित आदिवासी संगठन की कोऑर्डिनेटर हूं जिसमें मैं काम करती हूं और मैं ऐसे कई जंगल से जुड़े आंदोलन में गई हूँ जैसे हसदेव अंबिकापुर वहां पर मैंने देखा कि अपने जंगल को बचाने के लिए गांव वाले एकजुट होकर संघर्ष कर रहे हैं। वहां हाथियों का झुंड जहां रहते थे वहां के जंगल कटने के बाद दूसरे जंगलों में जाकर रहने लगे। जब हाथियों का झुंड गांव के तालाब के किनारे आते हैं तो गांव के लोग उन्हें भगा देते हैं और इसी व्यवहार को देखते हुए मैंने फॉरेस्ट वालों से भी बात किया कि उनके लिए जंगलों के अंदर पानी का व्यवस्था कराया जाए लेकिन उन्होंने मुझे यह कहकर चुप कर दिया की जंगलों में पानी की व्यवस्था है।” जब हाथी के आने का आवाज सुनाई पड़ता है तो लगता है कि कोई उन्हें परेशान करता है गांव वालों को नहीं पता है कि हाथी कहां से आ रहे हैं बस इतना पता होता है कि हाथी आ रहे हैं। हाथियों की सुरक्षा व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए ताकि कहीं से उन्हें भागना ना पड़े और सुरक्षित रहे उनके लिए जंगलों में पानी की व्यवस्था होनी चाहिए क्योंकि पानी के लिए ही गांव के पास आते हैं। शासन प्रशासन इनके जीवन के लिए किसी भी प्रकार से व्यवस्था नहीं कर रहे हैं इसलिए हाथी की झुंड अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। हाथियों को लग रहा है कि कहीं ना कहीं से उनके ऊपर किसी भी प्रकार से हमला हो सकता है।”
50 एकड़ का प्लाट का जंगल
पहले जब जंगलों की कटाई नहीं होती थी तब हाथियों को अपने घरों से बेघर नहीं होना पड़ता था। घने जंगल में उन्हें खाने के लिए पर्याप्त भोजन और पीने के लिए पानी आसानी से मिल जाता था इसलिए वे गांव की ओर नहीं आते थेलेकिन अब गांव के जंगलों में उन्हें अपना चारा और पानी ढूंढना पड़ता है। जंगल में लगभग 50 एकड़ का प्लांट है जिसमें बांस के पौधे लगाए गए हैं। हाथी बांस को अपने भोजन के रूप में खाते हैं और इसे इस तरह से चबाते हैं कि देखने पर लगता है जैसे कुल्हाड़ी से छीला गया हो। गर्मी के मौसम में जब चारे की कमी होती है तो वे पेड़ों की जड़ों को खाने लगते हैं जैसे तेंदू की जड़, केले की जड़, और अटायन की जड़। इस मौसम में कभी-कभी वे सुगंधित मिट्टी भी खाते हैं। इनके भोजन में कटहल, करील, केला और कटहर जैसे फल भी शामिल हैं।
“हाथी सूचना ग्रुप”
सर्दियों में हाथियों का रहन-सहन भी खास होता है। मादा हाथी अपने बच्चों को पेट के नीचे एक तरह का घोंसला बनाकर रखती हैं और जन्म से लेकर 10 साल तक दूध पिलाती हैं। वे अपने बच्चों को अपनी नजरों से दूर नहीं जाने देतीं। जब तक बच्चा लंबी दूरी चलने लायक नहीं हो जाता, मादा हाथी ज्यादा दूर नहीं जातीं। अब तो वे गांव के पास ही बच्चों को जन्म देती हैं ताकि आसपास उन्हें चारा और पानी आसानी से मिल सके। यही वजह है कि गांव वालों को असुरक्षा महसूस होती है जबकि हाथियों को यहां अपने बच्चों के साथ रहना सुरक्षित लगता है। यह स्थिति हाथियों और मनुष्यों दोनों के लिए अलग तरह की चुनौती बन गई है। इस समस्या से निपटने के लिए वन विभाग ने “हाथी सूचना ग्रुप” बनाया है जिसमें 6 पंचायत शामिल हैं। इस ग्रुप में वन विभाग के एडमिन यरावत पैकरा, ललित कुमार वर्मा (ग्राम पंचायत सचिव), पूर्व सरपंच धनेश्वर यादव और गांव के कई युवा सदस्य जुड़े हैं। इस ग्रुप के जरिए पंचायत और गांव वालों को समय पर सतर्क रहने की सूचना दी जाती है। जैसे समय से पहले घर लौटना, जंगल में ज्यादा अंदर न जाना, रात में बाहर न निकलना, और हाथियों के पास न जाना। अगर वन विभाग को पता चलता है कि जंगल से हाथियों का झुंड आ रहा है तो तुरंत सूचना भेजी जाती है कि गांव में शांति बनाए रखें और हाथियों के पास न जाएं।
सरकार और समाज की जिम्मेदारी
जंगलों से हाथियों का गांव की ओर आना कोई साधारण बात नहीं है। यह सोचना जरूरी है कि आखिर जानवरों को जंगल में असुरक्षित क्यों महसूस हो रहा है। सालों-साल तक जंगल में रहने वाले हाथियों के झुंड अपनी जगह छोड़कर क्यों भटक रहे हैं यह सवाल हमें और सरकार, दोनों को गंभीरता से समझने की जरूरत है।
यह संकट सिर्फ हाथियों का नहीं बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र का है। जंगल कटने से केवल हाथी ही नहीं बल्कि अनगिनत पक्षी, जानवर और पौधों की प्रजातियां प्रभावित हो रही हैं। अगर यही हाल रहा तो भविष्य में हमें और भी कई वन्य जीव गांव और शहरों में शरण लेते दिखाई देंगे। हाथी न केवल हमारे पर्यावरण का बल्कि सांस्कृतिक विरासत का भी अहम हिस्सा हैं। उन्हें उनका घर वापस दिलाना सामूहिक जिम्मेदारी है। इसके लिए सरकार को सख्ती से अवैध कटाई और अनियंत्रित खनन रोकना होगा। उद्योगों पर नियंत्रण लगाना चाहिए और जंगलों में भोजन-पानी की व्यवस्था करनी चाहिए वरना वह दिन दूर नहीं, जब हाथी जिन्हें हम कभी जंगल का राजा कहते थे हमारे खेतों और आंगनों में भूखे, प्यासे और बेघर खड़े दिखाई देंगे।
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