इसी आंदोलन के दौरान सामाजिक कार्यकर्ता रिनचिन को कल यानी 16 दिसंबर 2025 पुलिस ने उठा लिया और शाम को उन्हें मुचलके पर छोड़ दिया गया। इस दौरान पुलिस द्वारा सुबह से शाम तक कार्यकर्ता रिनचिन पुलिस के गिरफ़्त में रही वो इस लिए क्यों कि वे ग्रामीणों के जल जंगल बचाने के लड़ाई में पूरा समर्थन दे रही हैं। वे पिछले कई वर्षों से रायगढ़ के ग्रामीणों के साथ कोयला खदानों के विरोध में काम कर रही हैं
जनसुनवाई जिसने विवाद को जन्म दिया
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की तमनार तहसील स्थित धौराभाठा गांव में जिंदल कंपनी की गारे पेलमा सेक्टर–1 कोयला खनन परियोजना के लिए 5 से 8 दिसंबर तक प्रस्तावित जनसुनवाई ने पूरे इलाके में भारी विवाद खड़ा कर दिया है। यह परियोजना सीधे तौर पर 14 गांवों की ज़मीन, जंगल और आजीविका को प्रभावित करती है। इसी कारण ग्रामीण शुरू से ही एकजुट होकर इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं।
ग्रामीणों के अनुसार यह विरोध कोई अचानक शुरू हुआ आंदोलन नहीं है बल्कि पिछले छह महीनों से लगातार चल रहा संघर्ष है। लोगों का कहना है कि वे अपनी ज़मीन और जीवन को बचाने के लिए हर स्तर पर आवाज़ उठा रहे हैं लेकिन उनकी बात सुनी नहीं जा रही। 5 दिसंबर को जब जनसुनवाई शुरू होनी थी तो ग्रामीणों ने पंडाल और टेंट लगाने तक नहीं दिया। भारी विरोध के चलते पहले ही दिन जनसुनवाई पूरी तरह रुक गई। हालांकि ग्रामीणों का आरोप है कि इसके बाद कंपनी और प्रशासन ने मिलकर जनसुनवाई को जनता की इच्छा के खिलाफ आगे बढ़ाने का रास्ता खोज लिया। ग्रामीणों का कहना है कि 8 दिसंबर को जिंदल कंपनी और प्रशासन ने मिलकर जनसुनवाई को चुपचाप किसी दूसरी जगह आयोजित कर लिया और बिना ग्रामीणों की मौजूदगी के इसे पूरा घोषित कर दिया। जिस स्थान की सूचना जनता को दी गई थी वहां कोई जनसुनवाई नहीं हुई। इस पूरे मामले की पुष्टि कांग्रेस विधायक विद्या वती सिदार के बयान से भी होती है। उन्होंने कहा कि जनसुनवाई उस स्थान पर हुई ही नहीं जिसकी जानकारी जनता को दी गई थी।
जनता की भागीदारी के बिना लोकतंत्र?
इस कथित गुप्त जनसुनवाई के बाद ग्रामीणों में भारी आक्रोश फैल गया। लोगों का कहना है कि यह सिर्फ़ उनके अधिकारों का हनन नहीं है बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ सीधा धोखा है। ग्रामीणों ने इस जनसुनवाई को मानने से इनकार कर दिया है। इसके विरोध में अब ग्रामीण फिर से रायगढ़ के गांव लिबरा स्थित सीएसपी चौक पर आंदोलन कर रहे हैं। यह आंदोलन सिर्फ़ कोयला खदान के खिलाफ़ नहीं बल्कि गुप्त रूप से कराई गई जनसुनवाई के विरोध में भी है।
हज़ारों लोग, एक जगह, एक संघर्ष
आंदोलन को दिशा देने वाली ग्रामीण महिला अम्बिका चौधरी बताती हैं कि इस समय आंदोलन में करीब डेढ़ से दो हज़ार लोग शामिल हैं। प्रदर्शनकारी अपने घर नहीं लौट रहे हैं। धरना स्थल पर ही पंडाल लगाकर रहना, खाना बनाना, खाना और सोना सब कुछ वहीं हो रहा है। इस विरोध भरी आंदोलन में महिलाएं, पुरुष, बच्चे, बुज़ुर्ग, यहां तक कि गर्भवती महिलाएं भी इस आंदोलन में शामिल हैं। अम्बिका चौधरी कहती हैं “इतनी ठंड में भी लोग अपने घर छोड़कर यहां बैठे हैं क्योंकि सवाल हमारी ज़मीन का है।”
आंदोलन के बीच सामाजिक कार्यकर्ता रिनचिन की गिरफ़्तारी
इसी आंदोलन के दौरान सामाजिक कार्यकर्ता रिनचिन को कल यानी 16 दिसंबर 2025 पुलिस ने उठा लिया और शाम को उन्हें मुचलके पर छोड़ दिया गया। इस दौरान पुलिस द्वारा सुबह से शाम तक कार्यकर्ता रिनचिन पुलिस के गिरफ़्त में रही वो इस लिए क्यों कि वे ग्रामीणों के जल जंगल बचाने के लड़ाई में पूरा समर्थन दे रही हैं। वे पिछले कई वर्षों से रायगढ़ के ग्रामीणों के साथ कोयला खदानों के विरोध में काम कर रही हैं। पुलिस ने थाने में उन्हें बताया कि उनके खिलाफ कोई पुराना मामला है। ग्रामीणों और कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस तरह की कार्रवाई का उद्देश्य आंदोलन में डर पैदा करना और लोगों को कमजोर करना है।
मुड़ागांव से धौराभाठा तक जुड़ी लड़ाई
कुछ दिन पहले एक खबर चल रही थी जिसमें रायगढ़ के ही एक गांव के ग्रामीण एक बड़ा चेकबुक के पोस्टर के साथ नजर आ रहे थे। जिसमें ये कहा जा रहा था कि वहां के ग्रामीणों ने अपनी ज़मीन सात करोड़ में अडानी को दे दिया है जो सही तो है लेकिन कुछ हद तक। इसी से संबंधित और पूरी जानकारी के साथ रिनचिन बताती हैं कि रायगढ़ के ही मुड़ागांव, गारे पेलमा सेक्टर–2 में 2019 की जनसुनवाई के दौरान भी भारी विरोध हुआ था। उस समय पथराव हुआ लोग घायल हुए और ज़बरदस्ती जनसुनवाई कराई गई। उस समय भी मुड़ागांव के लोग ऐसी ही एक जनसुनवाई का और पेड़ कटाई का विरोध कर रहे थे। 2023 में उस परियोजना को पर्यावरणीय स्वीकृति मिली जिसके खिलाफ़ रिनचिन कन्हाई पटेल, सरपंच प्रेमशिला और नारद ने एनजीटी में केस दायर किया। इसके बाद वे इस केस में वे जीते और पर्यावरणीय स्वीकृति रद्द कर दी गई। कहा गया कि पूरी प्रक्रिया जनसुनवाई के स्तर से दोबारा शुरू होनी चाहिए।
हालांकि इसके बावजूद 2024 में पर्यावरण मंत्रालय से तीन–चार महीने के भीतर फिर से स्वीकृति मिल गई जिसके खिलाफ़ एनजीटी में मामला अब भी चल रहा है। फिर दिसंबर 2024 में जब पेड़ कटाई फिर से शुरू हो गई तो ग्रामीणों ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि गांव को सामूहिक वन अधिकार मिला हुआ है और ग्रामसभा की अनुमति के बिना पेड़ कैसे काटे जा सकते हैं। ग्रामीणों ने इस मामले में हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया और लगभग एक साल तक अपने संघर्ष से पेड़ कटाई रोके रखी लेकिन 2025 में पुलिस बल की मदद से ज़बरदस्ती जंगल काट दिए गए। उस दौरान भी कई लोगों को डिटेन किया गया जिनमें रिनचिन भी शामिल थीं।
दबाव, थकान और ‘समझौते’ की मजबूरी
इसके बाद ग्रामीणों पर समझौते का भारी दबाव डाला गया। लोगों से कहा गया कि ज़मीन बचने वाली नहीं है इसलिए मुआवज़ा ले लें। कई लोग डर, थकान और लगातार लड़ाई और सुनवाई कुछ भी नहीं होने के कारण मजबूर हो गए। मुड़ागांव में ज़मीन के बदले मिला मुआवज़ा लगभग सात करोड़ रुपये बताया जा रहा है जिसे ग्रामीण ‘बेचना’ नहीं बल्कि ‘कंपनसेशन’ मानते हैं। रिनचिन का कहना है कि इतनी ज़मीन के बदले यह राशि बहुत कम है। खबर यह फैली कि लोगों ने अपनी ज़मीन बेंच दी जबकि वो बेची नहीं गई वे एक कंपनसेशन के रूप में है।
सवाल ये है कि अगर लोग लड़ते रहें और सरकार या न्यायपालिका जिनसे लोग उम्मीद रखते हैं जिन्हें लोगों के हित में काम करना चाहिए वे ही अगर लोगों के साथ नहीं देंगे तो ग्रामीणों के पास आख़िर और कौन सा रास्ता बचता है?
बता दें 16 दिसंबर को यानी बीते कल जो रिनचिन की गिरफ़्तारी हुई है वो मुड़ागांव वाले केस लिए ही था जिसे पुराना प्रकरण बता कर उन्हें पुलिस गिरफ़्तारी में रखा गया। यानी ये दोनों मामले कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ा है और दोनों मामले में लोग अपनी ज़मीन को बचाने के लिए लड़ाई और आंदोलन ही कर रहे हैं। मुड़ागांव वाले केस के कारण ही धौराभाठा के ग्रामीण भी इतने आक्रोश में हैं और ज़मीन नहीं देने की मांग कर रहे हैं।
महिलाओं की अगुवाई में ज़मीन बचाने की लड़ाई, अम्बिका चौधरी की ज़ुबानी
इस मामले में धौराभाठा गांव की ग्रामीण महिला अम्बिका चौधरी से भी बातचीत की गई जो इस पूरे आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी को संगठित करने के साथ-साथ नेतृत्व कर रही हैं। अम्बिका चौधरी बताती हैं कि वे पिछले कई महीनों से लगातार कोयला खदान के विरोध में संघर्ष कर रहे हैं। इसी दौरान कंपनी की ओर से जनसुनवाई की सूचना आई जिसका ग्रामीणों ने शुरुआत से ही पुरज़ोर विरोध किया।
वे बताती हैं कि 5 से 8 दिसंबर तक जनसुनवाई के खिलाफ आंदोलन चलता रहा लेकिन सरकार और कंपनी की मिलीभगत से जनता की मौजूदगी के बिना ही जनसुनवाई को गुप्त रूप से पूरा घोषित कर दिया गया। “हम उस जनसुनवाई को नहीं मानते। जब जनता ही मौजूद नहीं थी तो यह जनसुनवाई कैसे हो सकती है?”
धरना स्थल बना गांव का जीवन
अम्बिका चौधरी बताती हैं कि इस आंदोलन में 14 गांवों के लोग शामिल हैं। धरना स्थल पर लोग बारी-बारी से रह रहे हैं जिसमें महिलाएं, पुरुष, बच्चे, बुज़ुर्ग और गर्भवती महिलाएं तक शामिल हैं। लोग दिन और रात दोनों समय धरना स्थल पर मौजूद रहते हैं। वहीं सामूहिक रूप से खाना बनता है वहीं खाया जाता है और वहीं सोया जाता है। वे कहती हैं कि आंदोलन में किसी को बुलाना नहीं पड़ता लोग अपने आप आते हैं। “हम प्रशासन के लोगों और वहां तैनात पुलिस बल को भी खाना देते हैं” उनके अनुसार धरना स्थल पर दिन में भी और रात में भी हज़ारों लोगों की मौजूदगी रहती है।
सड़कें मौत का रास्ता बन चुकी हैं
अम्बिका चौधरी बताती हैं कि कोयला खदानों के लिए बड़ी-बड़ी गाड़ियां लगातार चलती रहती हैं जिससे इलाके की सड़कें पूरी तरह टूट चुकी हैं। इसका नतीजा यह है कि सड़क दुर्घटनाएं आम हो गई हैं। “हर हफ़्ते किसी न किसी की सड़क हादसे में मौत हो जाती है” उनके मुताबिक़ कई बार हर दो–तीन दिन में ही एक्सिडेंट के कारण लोगों की जान चली जाती है।
प्रदूषण, बीमारियाँ और बर्बाद होती खेती
अम्बिका चौधरी कहती हैं कि रायगढ़ जिले के तमनार ब्लॉक में 35 से अधिक कंपनियां लगी हुई हैं। इन कंपनियों के प्रदूषण ने पूरे इलाके का जीवन तबाह कर दिया है। हर तरफ़ काला धुआं छाया रहता है। पेड़ हरे नहीं बल्कि काले दिखाई देते हैं। वे कहती हैं कि प्रदूषण के कारण तरह-तरह की बीमारियाँ फैल रही हैं। लोगों को शुद्ध हवा और शुद्ध पानी नहीं मिल पा रहा है। खदानों का असर ज़मीन के अंदर तक पहुंच चुका है। पीने का पानी भी अब काला और गंदा हो गया है। खेती पर भी इसका गहरा असर पड़ा है। “पहले जितनी उपज होती थी अब उसका आधा भी नहीं हो रहा” जंगलों से मिलने वाले महुआ, तेंदू, चार जैसे फल कटाई और प्रदूषण के कारण खत्म हो चुके हैं। वे आगे बताते हुए हैं कि कंपनियां आने से पहले रोज़गार देने का वादा करती हैं लेकिन हकीकत बिल्कुल अलग है। “इतना धूल और प्रदूषण सहने के बाद भी हमें कंपनी में झाड़ू-पोंछा, बाथरूम साफ़ करने या चाय बनाने जैसे काम ही दिए जाते हैं” उनका आरोप है कि कंपनियां बाहर के लोगों को नौकरी देती हैं ताकि स्थानीय लोगों को अंदर की सच्चाई पता न चले। “हमारे बच्चे बेरोज़गार घूम रहे हैं” भारी गाड़ियों की आवाजाही और प्रदूषण के कारण बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। “हमें डर लगा रहता है कि बच्चे सही-सलामत घर लौटेंगे या नहीं” उनके अनुसार सड़क पर चलती बड़ी गाड़ियां और खराब सड़कें बच्चों के लिए लगातार जान का खतरा बना होता है।
कंपनी आने के बाद से पानी की समस्या बेहद गंभीर हो गई है। “पहले एक कुएं से किसान की पूरी खेती हो जाती थी, अब थोड़ा सा पानी पाने के लिए ज़मीन खोदने पर काला और गंदा पानी निकलता है” गर्मी हो या बारिश, हर मौसम में पानी की किल्लत बनी रहती है। “650 फीट खोदने पर भी पानी नहीं मिलता”
ग्रामसभा की अनदेखी और ज़बरदस्ती के फैसले
अम्बिका चौधरी का कहना है कि इस पूरे मामले में ग्रामसभा से न तो पूछा गया है और न ही कोई प्रस्ताव पारित किया गया। इसके बावजूद जंगल काटे गए, खदानें खोली गईं और अब जनसुनवाई भी गुप्त रूप से कर दी गई। वे बताती हैं कि जिंदल कंपनी को इस इलाके में आए हुए करीब 25 साल हो चुके हैं और अब उसने पूरे क्षेत्र में अपना पैर फैला लिया है। वे कहती हैं “हमें पैसा नहीं चाहिए, हमें हमारी ज़मीन चाहिए” “हमें और पैसा नहीं चाहिए। हमारे पास जितनी ज़मीन है, हम उसी से खुश हैं, हम उसी से जी रहे हैं।”
उनका पूरा जीवन, खेती और भविष्य इसी ज़मीन से जुड़ा है। “हम अपने पूर्वजों के समय से यहां रह रहे हैं। अब अगर ज़मीन छोड़ दें तो जाएं कहां?” अंत में अम्बिका चौधरी कहती हैं कि यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक उनकी कोई सुनवाई नहीं होती और जब तक यह गुप्त जनसुनवाई रद्द नहीं की जाती।
रायगढ़ ज़िले के ग्रामीण पिछले कई वर्षों से कोयला खदानों के दुष्परिणाम झेल रहे हैं। एक ओर खदानों से फैलता प्रदूषण उनकी सांसें छीन रहा है, तो दूसरी ओर उनकी ज़मीनें, जंगल और आजीविका उनसे छीनी जा रही हैं। पहाड़ कट रहे हैं, जंगल उजड़ रहे हैं, पानी ज़हरीला हो चुका है और खेती लगातार बर्बाद होती जा रही है। ऐसे हालात में यह सवाल और भी गंभीर हो जाता है कि आखिर पर्यावरण को बचाया कैसे जाएगा अगर उसे बचाने की कोशिश करने वालों को ही अपराधी बना दिया जाए। जब ग्रामीण अपने हक़ के लिए खड़े होते हैं ज़मीन बचाने और जंगल काटे जाने का विरोध करते हैं तो कभी उन पर लाठियां बरसाई जाती हैं तो कभी गिरफ़्तार कर लिया जाता है। जनसुनवाई जैसे लोकतांत्रिक माध्यम भी जनता की भागीदारी के बिना औपचारिकता बनकर रह जाते हैं। न सरकार सुन रही है और न ही न्यायपालिका से ग्रामीणों को वह राहत मिल पा रही है जिसकी वे उम्मीद करते हैं।
इसके बावजूद रायगढ़ के ग्रामीण पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। धौराभाठा हो या मुड़ागांव लोग यह साफ़ कर चुके हैं कि यह लड़ाई सिर्फ़ मुआवज़े की नहीं बल्कि अस्तित्व की है। उनके लिए ज़मीन केवल संपत्ति नहीं बल्कि जीवन है। जंगल केवल संसाधन नहीं बल्कि संस्कृति है। आज जब उनके सामने कोई और रास्ता नहीं बचा है तो वे मजबूती के साथ मैदान में डटे हुए हैं।
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