छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के तमनार तहसील के धौराभाठा गांव में जिंदल कंपनी द्वारा गारे पेलमा सेक्टर–1 कोयला खनन परियोजना के लिए 5 से 8 दिसंबर तक प्रस्तावित जनसुनवाई ने बड़ा विवाद खड़ा कर दिया। लोगों का कहना है लोगों के बिना गुप्त रूप से जनसुनवाई की गई। ग्रामीण अपना ज़मीन नहीं देना चाहते हैं जिसके लिए वे छह महीने से आंदोलन कर रहे हैं।
रिपोर्टर: पुष्पा, लेखन: रचना
देश के कई राज्यों में इस समय एक बड़ा और तेजी से फैलता आंदोलन देखने को मिल रहा है जहां ग्रामीण और किसान किसी भी तरह की कंपनी, खदान या फैक्ट्री को अपने इलाके में आने से रोक रहे हैं। पिछले कुछ महीनों में छत्तीसगढ़, राजस्थान और देश के कई हिस्सों से लगातार ऐसी खबरें सामने आई हैं जहां लोग अपने जल जंगल ज़मीन की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं। ग्रामीणों की सबसे बड़ी चिंता है कि कंपनियों के आने से उनकी खेती प्रभावित होगी, जंगल खत्म होंगे, पानी के स्रोत सूखेंगे और आने वाली पीढ़ियों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। इसके साथ प्रदूषण भी बढ़ेगा जो पर्यावरण को दूषित कर सकता है।
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ से एक के बाद एक तीन बड़ी खबरें आईं जहां ग्रामीणों ने अपनी जमीन किसी भी कंपनी को देने से साफ इनकार कर दिया। छत्तीसगढ़ के सरगुजा, छूई खदान क्षेत्र और रायगढ़ के तमनार इलाके में लोग लगातार धरना प्रदर्शन कर रहे हैं। ठीक इसी तरह राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में एथेनॉल फैक्ट्री के विरोध ने तूल पकड़ लिया जहां ग्रामीणों और पुलिस के बीच झड़प तक हो गई। हर जगह एक ही बात सामने आई “हमें पैसा नहीं चाहिए, हमें हमारी ज़मीन चाहिए”।
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रायगढ़ के तमनार में जनसुनवाई को लेकर विवाद
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के तमनार तहसील के धौराभाठा गांव में जिंदल कंपनी द्वारा गारे पेलमा सेक्टर–1 कोयला खनन परियोजना के लिए 5 से 8 दिसंबर तक प्रस्तावित जनसुनवाई ने बड़ा विवाद खड़ा कर दिया। परियोजना से 14 गांवों की जमीन और आजीविका प्रभावित होती है इसलिए सभी गांवों के लोग शुरुआत से ही एकजुट होकर विरोध में खड़े हो गए। बता दें इस जनसुनवाई का विरोध पिछले छह महीने से चल रहा है। 5 दिसंबर को जनसुनवाई शुरू हुई लेकिन ग्रामीणों ने पंडाल और टेंट लगाने तक नहीं दिया जिसके कारण पहली ही तारीख को जनसुनवाई पूरी तरह रुक गई। ग्रामीण की यह विरोध तो उस दिन सफल हो गई। लेकिन ग्रामीणों का आरोप है कि कंपनी और प्रशासन ने मिलकर जनता की इच्छा के खिलाफ इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की कोशिश की और जब विरोध बढ़ता गया तो उन्होंने जनसुनवाई को महज़ औपचारिकता की तरह पूरा करने का रास्ता निकाल लिया।
ग्रामीणों के अनुसार 8 दिसंबर को आख़िरी दिन जिंदल कंपनी और प्रशासन ने मिलकर जनसुनवाई को गुप्त रूप से किसी दूसरी जगह पर आयोजित कर लिया और बिना किसी ग्रामीण की मौजूदगी के इसे पूरा घोषित कर दिया। बड़ा सवाल यह उठता है कि जनता की भागीदारी के बिना जनसुनवाई आखिर कैसे हो सकती है? इस पूरे मामले की पुष्टि तब हुई जब कांग्रेस विधायक विद्या वती सिदार ने बताया कि जनसुनवाई उस स्थान पर हुई ही नहीं जिसकी सूचना जनता को दी गई थी बल्कि इसे छिपाकर किसी अन्य जगह कराया गया। इस घटनाक्रम के बाद ग्रामीणों में भारी आक्रोश है और वे इसे जनता के अधिकारों और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ धोखा बता रहे हैं।
“हमारी मिट्टी हमारी मां है” ग्रामीणों ने बताया
प्रदर्शन में बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल रहीं जो अपनी जमीन, जंगल और भविष्य की पीढ़ियों की सुरक्षा को लेकर बेहद चिंतित और भावुक दिखीं। एक बुजुर्ग महिला कहती हैं कि “हम तो बस कुछ ही दिन के मेहमान हैं लेकिन आने वाली पीढ़ी कैसे जिएँगी? हमारे पूर्वजों ने यह जमीन हमें सौंपी थी और इसे सुरक्षित रखकर आगे बढ़ाना हमारी जिम्मेदारी है। पैसा तो आता-जाता रहता है लेकिन जमीन हमेशा साथ रहती है।” इसी तरह प्रेमराठिया नामक महिला बताती हैं कि उन्हें खबर मिली थी कि जिंदल कंपनी उनकी जमीन अपने नाम कराने के लिए जनसुनवाई कर रही है इसलिए वे विरोध में पहुंचीं। वे साफ शब्दों में कहती हैं कि उन्हें कंपनी से कुछ नहीं चाहिए न पैसा, न कोई सुविधा क्योंकि उनके लिए उनकी जमीन, जंगल और पानी ही सबसे बड़ी पूंजी है। महिलाओं की यह आवाज़ दिखाती है कि यह संघर्ष केवल जमीन का नहीं बल्कि अपनी पहचान,अपने अधिकारों और अपने बच्चों के भविष्य को बचाने का है।
14 गांवों के लोग एक साथ खड़े हुए
14 गांवों के लोग इसलिए एकजुट होकर खड़े हो गए हैं क्योंकि उन्हें डर है कि कोयला खनन शुरू होने पर उनकी पूरी जीवन-व्यवस्था खत्म हो जाएगी। ग्रामीणों का कहना है कि खनन से सबसे पहले उनकी खेती प्रभावित होगी। जमीन धंस सकती है, मिट्टी खराब हो जाएगी और खेती करना लगभग असंभव हो जाएगा। इसके साथ ही खनन वाले इलाकों में पेड़ों की कटाई और पानी की धाराओं में बदलाव से जंगल और जलस्रोत नष्ट होने का खतरा है जिससे आने वाले वर्षों में पानी का गंभीर संकट पैदा हो सकता है। ग्रामीणों को यह भी चिंता है कि खनन से होने वाला धूल, धुआं, शोर और रसायन पूरे वातावरण को प्रदूषित कर देंगे जिससे बच्चों और बुजुर्गों में बीमारियां बढ़ेंगी। कई इलाकों में खदानों के कारण घरों में दरारें पड़ने और गांव के उजड़ने जैसी घटनाएं भी सामने आती रही हैं इसलिए लोगों को डर है कि उनका गांव भी टूट सकता है। ग्रामीण साफ कहते हैं “अगर जमीन गई तो सब कुछ खत्म हो जाएगा न खेती रहेगी, न जंगल, न पानी। फिर हमारी आने वाली पीढ़ी क्या करेगी?”
गुप्त जनसुनवाई का आरोप और बढ़ता अविश्वास
ग्रामीणों ने जनसुनवाई को लेकर प्रशासन और जिंदल कंपनी पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि 8 दिसंबर को जनसुनवाई को “गुप्त रूप से” आयोजित किया गया क्योंकि उस दिन न तो ग्रामीणों को जगह की जानकारी दी गई और न ही उन्हें वहां पहुंचने दिया गया। जहां सुनवाई हो रही थी उस क्षेत्र में भारी पुलिस बल तैनात था और ग्रामीणों को आगे बढ़ने से रोककर उन्हें पूरी तरह अलग-थलग कर दिया गया।
लोगों का आरोप है कि यह जनसुनवाई सिर्फ कागज़ों में पूरी की गई और इसे जनता की भागीदारी के बिना महज़ एक औपचारिकता बनाकर रखा गया जिसे वे नहीं मानते और न मानेंगे। इस पूरे प्रकरण ने ग्रामीणों के अविश्वास को और बढ़ा दिया है। कांग्रेस विधायक विद्या वती सिदार ने भी जांच के बाद पुष्टि की कि जनसुनवाई वास्तव में उसी जगह नहीं हुई जिसका ऐलान किया गया था बल्कि इसे गुप्त स्थान पर बिना जनता की मौजूदगी के आयोजित किया गया। उन्होंने कड़ा सवाल उठाया“जब जनसुनवाई में जनता ही मौजूद नहीं थी तो इसे जनसुनवाई कैसे माना जा सकता है?”
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यह सवाल अब सरकार के सामने खड़ा है
देशभर में कंपनियों और विकास परियोजनाओं के खिलाफ बढ़ते विरोध के बीच एक बड़ा सवाल सरकार के सामने खड़ा हो गया है। क्या विकास का मॉडल जनता की इच्छाओं, जरूरतों और अधिकारों के खिलाफ थोप दिया जा रहा है? जनसुनवाई जैसी प्रक्रियाएं जिनका उद्देश्य जनता की राय लेना होता है अब लोगों की नजर में केवल औपचारिकता बनती जा रही हैं। ग्रामीणों का कहना है कि विकास जरूरी है लेकिन उनकी जमीन, जीवन, संस्कृति और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की कीमत पर नहीं। यह संघर्ष सिर्फ जमीन का नहीं बल्कि उनकी पहचान जल जंगल जमीन, अधिकार और प्रकृति को बचाने की लड़ाई बन चुका है। छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड या बिहार हर जगह एक ही आवाज उठ रही है कि ऐसा कोई भी विकास, जो लोगों के घर, खेत, जंगल और पानी छीन ले तथा उन्हें उजाड़ने का खतरा पैदा करे वह विकास नहीं बल्कि विनाश है।
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