11 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस सभी देशों ने मनाया, लेकिन क्या दिन मनाने से लड़कियों की स्थिति में सुधार है? सुधार नहीं हुआ जिसका सबूत हैं, अखबारों की वे सुर्खियों जो महिला अपराध की कहानी बताती हैं।
19 दिसंबर, 2011 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 11 अक्टूबर को ‘अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया था। यह दिन पूरी दुनिया में इसलिए मनाया जाता है ताकि बच्चियों का जीवन सुरक्षित रहे और उनके भविष्य को बेहतर बनाया जाए। देश में बच्चियों के लिए कई योजनाएं बनाई गई हैं, लेकिन क्या देश के सभी हिस्सों में उनका क्रियान्वयन किया जाता है? नहीं, आज भी सभी सुविधाएं दूरदराज में रहने वाली बच्चियों तक नहीं पहुंच पाती हैं। छोटी उम्र में ब्याह, शिक्षा की व्यवस्था, घरेलू हिंसा, कुप्रथाओं और लिंगानुपात अभी भी बचपन पर भारी है। लड़कियों की शिक्षा को देखने तो राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अनुसार देश में 18 साल से कम आयु की 40 प्रतिशत लड़कियों पढ़ाई बीच छोड़ देते हैं।
‘नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स’ के अनुसार वर्ष 2008 में पॉक्सो के अंतर्गत 8904 मामले आये थे, जिनमें से 1172 की ही गिरफ्तारी हुई और इनमें से भी केवल 100 को सज़ा मिली। वहीं वर्ष 2016 में 36022 मामले पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत दर्ज हुए, जिनमें से केवल 3226 को सज़ा दी गई। वहीं वर्ष 2017 में ऐसे मामले 33000 थे। इनमें से सबसे अधिक 6,782 उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए। इसके अलावा महाराष्ट्र में 4354 और मध्यप्रदेश में 4118 मामले दर्ज किए गए। ये आंकड़े लड़कियों की देश में स्थिति बताने के लिए काफी है।
अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस के बारे में पूछने पर बाँदा जिले की अंजलि वर्मा कहती हैं कि लड़कियों को कालेज भी नहीं जाने दिया जाता है, उन्हें घर के काम कराए जाते हैं, लड़का लड़की का अंतर यहाँ साफ दिखता है, मैं चाहती हूँ कि लड़कियों को भी आगे आने का सामान अवसर दिए जाये. अंजलि खुद एक सिंगर बना चाहती हैं। वहीँ बाँदा की मास्टर आर्ट ट्रेनर सुमन कहती हैं कि लड़कियों को अपनी आत्मरक्षा करनी खुद आनी चाहिए, क्योंकि बुरे समय में कोई भी हेल्प लाइन काम नहीं आती हैं। अंजलि और सुमन की बात काफी हद तक सही हैं, क्योंकि लड़कियों के खिलाफ अपराध और लिंग आधारित भेदभाव साफ इन बातों को उजागर कर रहे हैं, इन हालातों में इस तरह के दिन बस एक खानापूर्ति हैं, बदलाव की अंधी नहीं।