गांव की गलियों से लेकर संसद की दीवारों तक एक सवाल गूंज रहा है “जाति जनगणना होगी या नहीं?” अगर होगी तो किस हद तक? ये सवाल सिर्फ गिनती का नहीं है जबकि ये तय करेगा कि देश में आने वाले सालों में सरकारी योजनाओं, नौकरियों, शिक्षा और राजनीति में किसे कितनी हिस्सेदारी मिलेगी।
लेखन – मीरा देवी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में 30 अप्रैल दिन बुधवार को हुई केंद्रीय कैबिनेट बैठक / Cabinet Committee में बड़ा फैसला लेते हुए जाति जनगणना को हरी झंडी दे दी गई। सूचना एवं प्रसारण मंत्री अश्विनी वैष्णव / Ashwini Vaishnaw ने बताया कि कांग्रेस सरकारों ने अब तक इसका विरोध किया जबकि 1947 के बाद से आज तक जातिगत जनगणना नहीं हुई। अब सरकार ने तय किया है कि अगली जनगणना में जातिगत आंकड़े भी जुटाए जाएंगे। इससे पहले आखिरी बार पूरी जाति आधारित जनगणना 1931 में अंग्रेजों के समय हुई थी।
जातिगत गणना / Caste Census का मतलब?
जातिगत गणना का मतलब है कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं, इसकी गिनती की जाएगी। इससे देश में जातियों के आंकड़े साफ-साफ सामने आ जाएंगे। देश में जातिगत जनगणना पहले भी हुई है। केंद्र सरकार जातिगत गणना कराती है और इसके आंकड़े जारी करती है तो आजाद भारत के इतिहास में पहली बार इसके आंकड़े सामने आएंगे। 2011 में जातिगत गणना हुई थी लेकिन तब इसके आंकड़े सरकार ने जारी नहीं किए थे।
जाति जनगणना / Caste Census की जरूरत क्यों है?
जातिगत गणना के सवाल से केंद्र सरकार और बीजेपी अब तक बच रही थी। जातिगत गणना की रिपोर्ट अंतिम बार 1931 में सामने आई थी। उसके बाद इससे जुड़ी कोई रिपोर्ट नहीं आई है। 1931 की रिपोर्ट और मंडल कमिशन के रिसर्च के अनुसार देश में पिछड़े वर्ग की आबादी 54 फीसदी है। जातिगत गणना में यह आंकड़ा बढ़ सकता है। साथ ही देश में ओबीसी की आर्थिक और सामाजिक हालात के बारे में पता चलेगा।
जाति जनगणना / Caste Census पर नेताओं की चालबाज़ी और चुप्पी
कई बड़े नेता इस मुद्दे पर अब तक मौन साधे हैं। वजह साफ है कि जाति की गिनती उनके जातिगत समीकरणों को बिगाड़ सकती है। कुछ राज्यों ने जैसे-तैसे अपनी जनगणना की रिपोर्ट जारी कर दी जैसे बिहार ने, जहां पिछड़े और अति पिछड़े समुदायों की संख्या चौंकाने वाली थी करीब 63%। इससे एक नई बहस शुरू हो गई कि इतने बड़े तबके को क्या अब भी सिर्फ 27% आरक्षण में समेटा जा सकता है?
वहीं ओबीसी / OBC में भी भीतर ही भीतर खींचतान है कुछ “पिछड़ी” जातियां आर्थिक और सामाजिक रूप से काफी आगे बढ़ चुकी हैं और वहीं कुछ अब भी मजदूरी, दिहाड़ी और भेदभाव में ही अटकी हुई हैं। इस असंतुलन को उजागर करने का डर ही जाति जनगणना को अटका रहा है।
जाति जनगणना / Caste Census पर क्या चल रहा है सुप्रीम कोर्ट में?
जनवरी 2025 से सुप्रीम कोर्ट में जाति जनगणना की वैधता और रिपोर्ट सार्वजनिक करने की मांग पर लगातार सुनवाई हो रही है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि “जब तक समाज की सटीक तस्वीर सामने नहीं लाई जाएगी, तब तक न्याय आधारित योजनाएं बन ही नहीं सकतीं।” वहीं सरकार का पक्ष है कि इससे सामाजिक तनाव बढ़ सकता है। कोर्ट ने बार-बार पूछा है कि अगर जाति आधारित योजनाएं चल रही हैं तो फिर जाति के आंकड़े छुपा क्यों रहे हैं?
स्थानीय मिसालें क्या कहती हैं?
उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले के जंगली इलाकों में कोल और आदिवासी बरसों से जंगल की जमीन पर अपना गुजारा कर रहे हैं। खेत-खलिहान कम हैं, मजदूरी करके पेट पालते हैं। इनके पास ना तो कोई जमीन का कागज है, ना ही सरकारी कागजों में इनका नाम ठीक से लिखा गया है। ना जनगणना में इनकी गिनती ढंग से हुई, ना किसी सरकारी सर्वे में इन्हें देखा गया। सरकारी रिकॉर्ड में ये जैसे ‘गायब’ हैं. ना इनके हाल पूछे गए और ना इनका हक तय हुआ।
अब ज़रा बिहार के पश्चिम चंपारण की तरफ चलिए। वहां जब जाति का सर्वे हुआ तब पहली बार पता चला कि कुछ जातियां जो ‘पिछड़ी जाति’ मानी जाती थीं असल में दलितों जैसी हालत में जी रही हैं. कच्चे घर, मजूरी, शिक्षा और इलाज का अभाव। लेकिन क्योंकि ये अनुसूचित जाति में दर्ज नहीं हैं, इन्हें वो सुविधाएं भी नहीं मिलतीं जो दलितों को मिलती हैं। मतलब कि ये न इधर के रहे, न उधर के और हर बार छूट गए।
कुल मिलाकर अगर जाति की सही गिनती होगी तो ऐसे ही छूटे हुए लोगों को पहली बार पहचान और हक़ मिल सकता है। जिसका नाम लिस्ट में ही नहीं उसे सरकारी योजनाओं का फायदा कैसे मिलेगा?
जाति जनगणना / Caste Census से आम जनता के लिए लाभ क्या हैं?
गिनती से गरिमा: जातियों की सही गिनती होने पर समाज के सबसे दबे-कुचले वर्ग को पहली बार पहचान और प्रमाण मिल सकता है कि वे इस देश के नीति-निर्माण में कहां खड़े हैं।
योजनाओं का लक्ष्य स्पष्ट होगा: अभी सरकार अनुमान पर योजनाएं बनाती है पर जातिगत आँकड़ों से योजनाएं वर्ग विशेष की असली ज़रूरतों पर आधारित हो सकेंगी।
राजनीतिक हिस्सेदारी की पुकार: आंकड़ों के बिना हिस्सेदारी की मांग भावनात्मक होती है और आंकड़े आने के बाद ये हक बन जाता है।
नुकसान की संभावनाएं भी नजरअंदाज़ नहीं की जा सकतीं: सामाजिक विभाजन की नई लकीरें खिंच सकती हैं जैसे अगड़े बनाम पिछड़े या ओबीसी बनाम दलित जैसी खाई और गहरी हो सकती है। जातियों के अंदर ही खींचतान अन्य पिछड़ा वर्ग के अंदर बहुत सी जातियां आती हैं। अब अगर सही गिनती होती है और आंकड़े सामने आते हैं तो कई जातियां कह सकती हैं कि हम ज़्यादा गरीब हैं तो हमें ज़्यादा हक मिलना चाहिए तो कुछ दूसरी जातियां कहेंगी कि हमारी तादाद ज़्यादा है हमें ज़्यादा हिस्सा दो। इससे आपस में तुलना, जलन और खींचतान बढ़ सकती है। जैसे ही किसी एक जाति को ज़्यादा फायदा मिलता दिखा तो दूसरी जातियां सवाल उठाने लगेंगी कि हम क्यों पीछे रह गए? यानी भाईचारा कम और आपसी टकराव ज़्यादा हो सकता है।
जातीय जनगणना के बाद बिहार का अनुभव: बिहार में जातीय जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद सबसे बड़ी आबादी वाले समुदायों में एक अलग तरह का आत्मविश्वास और वर्चस्व की भावना देखी गई। खासकर यादव समुदाय की संख्या अधिक निकलने के बाद विश्वविद्यालयों और कॉलेज परिसरों में उनके छात्रों की मौजूदगी और व्यवहार में बदलाव महसूस हुआ। हमारी रिपोर्टिंग के दौरान कई छात्रों ने बताया कि यादव छात्र समूह बनाकर दूसरे वर्गों के छात्रों को नीचा दिखाते, धमकाते थे। सोशल मीडिया पर जातिसूचक टिप्पणियों और बहुसंख्यक होने के घमंड से भरे पोस्टों की बाढ़ सी आ गई थी। इससे दूसरे समुदायों में असुरक्षा और नाराजगी गहराई और यह सवाल उठा कि क्या यह गिनती सामाजिक न्याय का रास्ता खोलेगी या नया जातीय तनाव खड़ा करेगी?
राजनीतिक हेरफेर का खतरा: गिनती के आंकड़े कभी जारी न किए जाएं या सिर्फ अपने फायदेमंद हिस्से ही सामने लाए जाएं ये भी एक बड़ा शक है। जाति जनगणना सिर्फ गिनती भर नहीं है ये उस आईने जैसा है जिसमें देश की असली सूरत दिख सकती है। इसे ईमानदारी से किया जाए और सच्चाई सबके सामने रखी जाए। वरना ये भी एक और नेता लोगों का चुनावी जुमला बनकर रह जाएगा। नेता भाषण देंगे और गरीब आदमी फिर से इंतजार करता रह जाएगा। क्योंकि अगर गिनती सिर्फ कुर्सी बचाने या सत्ता पाने के लिए की गई तो ना किसी को इंसाफ़ मिलेगा, ना हालात बदलेंगे। अगर सरकार की नीयत साफ हुई तो यही गिनती उन लोगों के लिए पहली बार “पहचान” बन सकती है जो अब तक सिर्फ गिनती से बाहर रहे। हक़ से भी, बराबरी से भी।
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