खबर लहरिया Hindi बुन्देलखण्ड: हाथ वाले पंखे की जगह ली कूलर और पंखों ने

बुन्देलखण्ड: हाथ वाले पंखे की जगह ली कूलर और पंखों ने

दोस्तों अभी हाल ही में एक दिन मैंने बाज़ार में टहलते हुए देखा कि एक महिला हाथ के पंखे से दुकान पर बैठे हवा कर रही है। उस महिला को देख मेरी नज़र उस पर अटक गई। हाथ पंखा जिसे हम बेना या बिजना के नाम से जानते हैं। उस पंखे को देख मेरी पुरानी यादें ताजा हो गई।

हाथ पंखा से हवा लेती महिला (फोटो साभार:गीता)

लेखन-गीता

बुन्देलखण्ड। एक समय था जब गर्मियों की तपन से बचने के लिए लोग हाथ से हवा करने वाले हाथ वाले पंखों का उपयोग किया करते थे। यह पंखे बांस, कपड़े, दपति या खजूर के पत्तों से बनाए जाते थे। आज भी ग्रामीण इलाकों में कहीं-कहीं इनका चलन दिखता है लेकिन समय बदला, तकनीक ने विकास किया और आज हाथ वाले पंखों की जगह कूलर और इलेक्ट्रिक पंखों ने ले ली है।

परंपरा से तकनीक तक का सफर

हाथ वाला पंखा न केवल गर्मी से राहत देता है, बल्कि उसमें एक सांस्कृतिक और अपनापन का भाव भी जुड़ा होता है। गांव में अक्सर बड़े-बुज़ुर्ग आराम करते समय हाथ में पंखा लिए होते और बच्चे उन्हें हवा देने में मदद भी करते। यह नजारा परिवारिक जुड़ाव का प्रतीक होता है लेकिन अब न वो परिवारिक जुड़ाव रहा ना हाथ पंखे उतना नजर आते है।

दोस्तों अभी हाल ही में एक दिन मैंने बाज़ार में टहलते हुए देखा कि एक महिला हाथ के पंखे से दुकान पर बैठे हवा कर रही है। उस महिला को देख मेरी नज़र उस पर अटक गई। हाथ पंखा जिसे हम बेना या बिजना के नाम से जानते हैं। उस पंखे को देख मेरी पुरानी यादें ताजा हो गई और मैं सोचने लगी कि देखो तो एक समय था जब गर्मियों में हर किसी के घर पर ये बना मिल जाते थे लेकिन लगभग एक दशक से अब गांव की दूसरी ज़रूरी चीजों की तरह बेना भी गायब होता जा रहा है। अगर अब दिखता भी है तो कहीं गाहे बगाहे कुछ घरों में दिखता है। पर हो सकता है आने वाली अगली पीढ़ी शायद बेना का नाम ही न सुन पाए। बाकी चीजों की तरह उनके लिए भी बेना शब्द भी नया हो सकता है।

सर्दियों की विदाई के बाद निकलते थे हाथ वाले पंखे

दशरथ पुरवा गांव की रामकली कहते हैं कि एक समय था जब मार्च-अप्रैल के महीने में सर्दी की विदाई होने के बाद रजाई को धूप दिखा कर बक्से में रखने की तैयारी होती थी और उसी बक्से में किसी कोने में पड़ा बेना भी निकला जाता था। फिर उसे सजाने- संवारने की तैयारी करते थे। पंखों के उधड़ चुके किनारों पर कपड़ों के नए गोटे सिलते रंग-बिरंगे कपड़ों के कतरन जिन्हें लाने की ज़िम्मेदारी घर के सबसे छोटे सदस्य की होती। उसे किसी दर्जी की दुकान पर भेजा जाता। कई बार कम कतरन लाने पर डांट भी खानी पड़ती। लाल, पीला, हरा और भी न जाने कितने रंगों के कतरनों के ढेर से अपने काम का कतरन ढूंढ कर पंखों में लगाते थे जिससे वह नया दिखने लगता था और बचे हुए कतरन से प्लास्टिक की बोरी को काट कर चार कौने का उसमें कतरन के रंग बिरंगे फूल बना कर लगाते थे और ऊन से बोरी के बीच में फूल बनाते थे।

कई तरह से बनाते थे लोग हाथ पंखे

सुनैना कहती हैं बचपन मे वह लोग खजुर,दपती और लोहे के तार का फ्रेम बना कर उसमे कपड़ा और लकड़ी को बीच से फार के डंडी लगा कर बेना बनाते थे। कई बार तो बांस के बने पुराने पंखों की फुफरी भी लगा देते थे। जिससे घर में अगर 10 लोग हैं तो सब के लिए अलग-अलग पंखे होते थे। सब बांस के ही नहीं, खरीदना भी पड़ता था लेकिन अब इलेक्ट्रॉनिक कूलर, पंखा और एसी ने हाथ वाले पंखों की जगह ले ली है। अब जो हाथ वाले पंखे गिने चुने मिलते भी हैं वह बस के ही होते हैं।वह भी लोग शादी विवाह है में मजबूरी में देते हैं क्योंकि शादियों में पंखा देने का रिवाज जो शुभ माना जाता है। अब अगर घर में शादी या कोई शुभ कार्यक्रम है तो बाकी ज़रूरी काम की तरह नया बेना बनाने का काम भी शुरू हो जाता है। बाज़ार से बांस की पतली फट्टियों से बने लाल-हरे रंग के बेने मिलते हैं।

आने वाली पीढ़ी को दिखाने के लिए रखा है पंखा

दोसपुरवा की रानी कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि बेना पूरी तरह से विलुप्त हो गया है। आज भी हमारे घरों में गर्मियों में बिजली जाने पर हाथ वाले बेना ही काम आते हैं। वह अपनी आने वाली पीढ़ियों को दिखाने के लिए किसी म्युजियम में नहीं ले जाएगी। घर में रखे वही बेना दिखाएंगी जो उनकी दादी और नानी के पास हुआ करता था।
भले ही जैसे-जैसे बिजली गांवों और शहरों में पहुंची, इलेक्ट्रिक पंखों ने इन पारंपरिक बेनो को धीरे-धीरे पीछे छोड़ दिया। पंखे अब दीवारों और छतों पर लगने लगे और टेबल फैन, स्टैंड फैन और एग्जॉस्ट फैन जैसे कई रूपों में सामने आ गए हो। ये कूलर, पंखे न केवल ज्यादा हवा देते थे बल्कि कमरे के तापमान को भी कुछ हद तक कम करते थे। धीरे-धीरे हर वर्ग के घरों में इनकी संख्या बढ़ने लगी। इतना ही नहीं जो पैसे वाले हैं वै तो एसी भी लगवा रहे हैं। जिससे उनको ठंडक और हवा तो मिलती है लेकिन जो हमारे परंपरागत पुरानी चीज थी जिससे हमारा पर्यावरण भी अच्छा रहता था और सामाजिक जुड़ाव भी होता था और हवा भी मिलती थी वह पूरी तरफ से विलुप्त हो रही है।

हाथ पंखा पर्यावरण अनुकूल है

जहां हाथ पंखा पर्यावरण के अनुकूल और बिना बिजली के चलता था वहीं आज के उपकरण बिजली पर निर्भर हैं। इससे ऊर्जा की खपत और पर्यावरण पर प्रभाव भी बढ़ा है। इसके साथ ही पारंपरिक हस्तकला से जुड़ी वह कारीगरी भी लगभग विलुप्त होती जा रही है। भले ही तकनीक ने हमें सहूलियत दी हैं लेकिन हमने इसके बदले अपनी परंपराओं को कहीं न कहीं खो सा दिया है।

 

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