खबर लहरिया Blog हमीरपुर में पत्रकारों को नंगा कर पीटने और पेशाब पिलाने का अमानवीय कृत्य: प्रशासनिक तंत्र पर उठे सवाल

हमीरपुर में पत्रकारों को नंगा कर पीटने और पेशाब पिलाने का अमानवीय कृत्य: प्रशासनिक तंत्र पर उठे सवाल

हमीरपुर, जरिया थाना क्षेत्र के सरीला कस्बे में बीती 27 अक्टूबर को दो पत्रकारों के साथ हुई मारपीट के मामले ने प्रशासनिक तंत्र की गंभीर खामियों और समाज में न्यायिक व्यवस्था की जर्जर स्थिति को उजागर किया है। यह घटना लोकतांत्रिक और न्यायिक मूल्यों के क्षरण का एक दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण है, जो राज्य की कानून-व्यवस्था के लिए गंभीर सवाल खड़े करती है। घटना से जुड़े तथ्यों को देखते हुए इसमें शामिल विभिन्न पहलुओं का गहन विश्लेषण करने की आवश्यकता है।

फोटो साभार: दैनिक भास्कर

लेखन – मीरा देवी

हमीरपुर में सरीला नगर पंचायत अध्यक्ष पवन अनुरागी पर आरोप है कि उन्होंने दो स्थानीय पत्रकारों अमित द्विवेदी और शैलेन्द्र मिश्रा को अपने घर बुलाकर बंदी बना लिया, उन्हें निर्वस्त्र कर पिटवाया और बंदूक के बल पर पेशाब पिलाया। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। इसके साथ ही उन पत्रकारों के खिलाफ एससी-एसटी एक्ट के तहत झूठा मुकदमा दर्ज कराया गया। इस प्रकार की घटनाएं उस समाज की तस्वीर पेश करती हैं, जहां सत्ता में बैठे लोग अपने विरोधियों को न सिर्फ हर तरह से दबाने की कोशिश करते हैं, बल्कि उन पर कानून के नाम पर झूठे आरोप लगाकर उनके अधिकारों को छीन लेते हैं।

इस घटना के बाद कई पत्रकार संगठनों ने तीव्र प्रतिक्रिया दी है। समाजवादी पार्टी ने भी राज्य सरकार पर आरोप लगाते हुए कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति का मुद्दा उठाया है। प्रदेश के कई हिस्सों में पत्रकार संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन करते हुए इस मामले में निष्पक्ष और कठोर कार्रवाई की मांग की है। ब्राह्मण सभा ने भी इसे जातिगत उत्पीड़न मानते हुए अपनी प्रतिक्रिया दी है, जिससे यह मामला जाति और वर्ग संघर्ष की दिशा में भी बढ़ता दिख रहा है।

निष्पक्ष कानून व्यवस्था और प्रशासनिक विफलता

हमीरपुर की यह घटना उत्तर प्रदेश में पत्रकारों और आम नागरिकों की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े करती है। जिनके जिम्मे कानून का पालन करवाना है, वही अपने पद का दुरुपयोग करके निर्दोषों पर झूठे मुकदमे दर्ज करा रहे हैं। जब सत्ता में बैठे लोग ही न्यायिक प्रक्रिया को तोड़ने-मरोड़ने का कार्य करेंगे, तो न्याय का भरोसा कैसे कायम रहेगा?

इस प्रकरण में पुलिस की भूमिका भी विचारणीय है। जिस तरह से पीड़ित पत्रकारों की शिकायत पर मामला दर्ज करने में देरी की गई और फिर इस मामले को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश की गई, यह पुलिस तंत्र की कमजोरियों को भी उजागर करता है। पुलिस और स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह निष्पक्ष जांच करें और किसी भी दबाव में बिना आकर, न्यायिक प्रक्रिया को बनाए रखें।

पत्रकारों की सुरक्षा: एक गंभीर सवाल

यह घटना उत्तर प्रदेश में पत्रकारों की सुरक्षा और स्वतंत्रता को लेकर गंभीर सवाल उठाती है। यदि पत्रकार स्वतंत्र रूप से बिना किसी भय के अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकते, तो लोकतंत्र की बुनियादी नींव ही खतरे में पड़ जाती है। एक स्वतंत्र और निडर पत्रकारिता समाज को स्वस्थ और जागरूक रखने का एक सशक्त माध्यम है।

सत्ताधारी लोग अगर पत्रकारों के लिए एक भय का माहौल बनाएंगे, तो ऐसी घटनाएं समाज में असमानता, उत्पीड़न, और भेदभाव को जन्म देती हैं। पत्रकारों पर इस प्रकार के हमले न केवल व्यक्तिगत अधिकारों का हनन हैं, बल्कि प्रेस स्वतंत्रता का भी सीधा उल्लंघन करते हैं।

सवाल जो समाज को पूछने चाहिए

1. क्या राजनेताओं को अपने पद का दुरुपयोग करने का खुला लाइसेंस है? इस तरह के मामलों में कानून का दुरुपयोग क्यों हो रहा है और इसे रोकने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं?

2. पुलिस की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर सवाल क्यों उठ रहे हैं? क्या पुलिस तंत्र पूरी तरह से निष्पक्ष हो सकता है या उसे राजनीतिक दबाव का सामना करना ही होगा?

3. क्या हमें अब वास्तव में एक पत्रकार सुरक्षा कानून की आवश्यकता है? क्या ऐसे कानून की अनुपस्थिति में मीडिया कर्मी सुरक्षित रह सकते हैं?

4. क्या सत्ता में बैठे लोग संविधान की मूल भावना का उल्लंघन कर रहे हैं? इस प्रकार की घटनाएं क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करती हैं?

5. जाति आधारित आरोप-प्रत्यारोप कितने न्यायसंगत हैं? क्या जाति का मुद्दा प्रशासनिक निर्णयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है?

यह मामला दर्शाता है कि समाज में स्वतंत्र अभिव्यक्ति और अधिकारों की रक्षा के लिए सिर्फ कानून होना पर्याप्त नहीं है, उस कानून के क्रियान्वयन की पुख्ता व्यवस्था भी आवश्यक है। सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वे इस तरह के मामलों में एक सख्त और स्पष्ट रुख अपनाएं। इस प्रकरण में सभी दोषियों की गिरफ्तारी होनी चाहिए और उनके खिलाफ निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में पत्रकारों का उत्पीड़न न हो।

एक ठोस और प्रभावी पत्रकार सुरक्षा कानून की अनुपस्थिति पत्रकारों को असुरक्षित बना देती है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि वे इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करें और एक प्रभावी कानून लाएं जो पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित कर सके। इसके अतिरिक्त सभी पत्रकार संगठनों को एकजुट होकर इस दिशा में काम करना चाहिए, ताकि वे अपने साथियों के हितों की रक्षा कर सकें।

हमीरपुर की घटना न केवल उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था पर, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र पर एक गंभीर सवाल खड़ा करती है। इस घटना में पत्रकारों को जो यातनाएं दी गईं वह समाज के लिए एक चेतावनी है कि यदि ऐसे कृत्यों पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो हमारा लोकतंत्र और अधिक कमजोर हो जाएगा।

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