खबर लहरिया जिला बिहारी हूँ! ये हंसी की बात नहीं, पहचान पर सवाल है!

बिहारी हूँ! ये हंसी की बात नहीं, पहचान पर सवाल है!

बिहार से पलायन कोई नई बात नहीं है। रोज़गार के लिए पलायन तो मानों वहां के लोगों की नियती बन चुकी है। इन सबके बीच में सरकारें तो बदलती रहती है पर नहीं बदली तो मजदूरों की किस्मत। न राज्य में रोज़गार है और न ही कमाई के साधन। परदेस में मज़दूरी के दौरान उन लोगों के साथ गलत व्यवहार और भेदभाव किया जा रहा है वो अलग।

ये भी देखें: बिहारी हूँ तो क्या सभ्य नहीं हो सकता? ये कैसी रूढ़िवादी विचारधारा है?

अफ़सोस यही है कि बिहारी मज़दूर अपने ही देश के दूसरे राज्यों में जली-कटी बातें सहने को मजबूर हैं। मारपीट की घटनाएं भी हो जाती हैं। लोगों ने बताया कि बिहार के लोगों में टैलेंट तो बहुत है, हर तरह का काम बखूबी से करते हैं और मेहनत भी दिन-रात करते हैं। इसके बाद भी उनके साथ भेदभाव किया जाता है। उनके साथ तू-तकार किया जाता है। यहां तक की चोर और मलिक्षी भी कहा जाता है। इस तरह के शब्दों का प्रयोग जब उनके साथ किया जाता है, तो उनकी आत्मा को बहुत आहत पहुंचती है। बहुत बुरा फील करते हैं। गुस्सा भी आता है। कई बार इस तरह की बातें सुनकर वह लोग जवाब भी देते हैं लेकिन जब जवाब देते हैं तो लड़ाई-झगड़ा और मारपीट हो जाता है इसलिए उन लोगों को लगता है कि चुप रहना ही ठीक है क्योंकि उन्हें रोज़गार की जरूरत है। अपने परिवार का पेट पालने की ज़रूरत है।

ये भी देखें: महिलाएं ऐसा नहीं करेंगी तो कुलदेवता हो जाएंगे नाराज़ | बोलेंगे बुलवाएंगे

पटना जिले के मधौपुर गांव के एक मजदूर ने बताया बिहार की ऐसी छवि बनी हुई है कि लोग नफरत भरी नजरों से ही देखते हैं। दूसरे राज्य के लोगों को बिहार के लोगों नफ़रत इतनी है कि पढ़ाई के लिए गए छात्र और नौकरी के लिए युवकों के साथ भी मारपीट की घटनाएं होती रहती हैं। बिहार में आती-जाती रही सरकारें भी इस बात से वाकिफ हैं, लेकिन इस पर कैसे अंकुश लगे, इस पर कोई ठोस काम नहीं हो पा रहा।

मज़दूर ने बताया कि वह भारत की राजधानी दिल्ली में 10 साल पहले पेंटिंग का काम करते थे। इसी तरह के अपमान जनक शब्दों को लेकर उन्होंने आवाज उठाई थी। उनके साथ मारपीट, थाना-कचहरी तक हुई थी तब से उन्होंने प्रदेश जाना ही छोड़ दिया।  क्या करें यहां पर रोज़गार के साधन ही नहीं है। यहां रहकर काम करते हैं। महीने में 10 दिन काम मिलता है तो 10 दिन घर में बैठना पड़ता है लेकिन किसी तरह दाल-रोटी चल रही है।

 

‘यदि आप हमको सपोर्ट करना चाहते है तो हमारी ग्रामीण नारीवादी स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन करें और हमारे प्रोडक्ट KL हटके का सब्सक्रिप्शन लें’

If you want to support  our rural fearless feminist Journalism, subscribe to our  premium product KL Hatke