केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मिलकर चलाये जा रहे ‘ऑपरेशन कगार’ ने नक्सल विरोधी अभियान को गति प्रदान कर दिया है। 14 मई की एक प्रेस रिलीज़ के मुताबिक, साल 2025 के पहले चार महीने में 197 माओवादी मारे जा चुके हैं।
बस्तर, छत्तीसगढ़ का एक ऐसा क्षेत्र है जहां प्रकृति की सुंदरता और आदिवासी संस्कृति की गहराई एक साथ मिलती है। यहाँ की हरी-भरी वादियाँ, जल, जंगल और ज़मीन आदिवासियों के लिए जीवनदायिनी हैं लेकिन, पिछले दो दशकों में बस्तर ने संघर्ष, सैन्यीकरण और विकास के नाम पर हो रहे शोषण का सामना कर रहा है।
बस्तर का इतिहास: सैन्यीकरण और आदिवासी दमन
2003-04 के आसपास भारतीय राज्य द्वारा सलवा जुडुम ऑपरेशन लांच किया गया। 642 गांवों को ख़ाली करा कर लगभग 55,000 विस्थापित हुए या कहें कई लोगो को कैम्प में डाला गया। सलवा जुडुम सिद्धांत पर आधारित था की चूँकि माओवादी गांव वालों के बीच रहकर काम करते हैं अगर उन्हें गाँव से निकाल दिया जाए तो सिर्फ़ माओवादी ही बचेंगे, जिससे आसानी से उनका खात्मा किया जा सकेगा। एसपीओ नाम की एक प्राइवेट आर्मी बनायी गई जो हथियारबँधी होते थे वो गाँव में जाकर गाँव ख़ाली कराते थे, इस पूरे ऑपरेशन के दौरान व्यापक स्तर पर मानव अधिकार हनन के मुद्दे सामने आयी। अंततः सुप्रीम कोर्ट ने एसपीओ को गैरकानूनों घोषित कर दिया। इसके बाद से बस्तर लंबे समय से भारी सैन्यीकरण के साये में है। माओवादी निर्मूलन के नाम पर विभिन्न ऑपरेशन समय-समय पर लांच किए गए और हर बार वह आम आदिवासियों के हत्या बलात्कार गैर कानूनी हिरासत में बदलता गया।
सामाजिक कार्यकर्ताओं ने दावे किए 2009 में ऑपरेशन ग्रीन हंट के दौरान भी यही देखने को मिला। कई बड़े बड़े फर्जी एनकाउंटर में दर्जनों आम आदिवासियों की हत्याएं हुईं।
यह घटना अकेली नहीं है बस्तर का इतिहास ऐसी तमाम त्रासदियों ने रचा है जब बेगुनाह आदिवासी सुरक्षा बलों की गोलियों के निशाने पर आ गए।
बीजापुर के एड्समेट्टा गांव में मई 2013 में तकरीबन 1,000 सुरक्षाबलों ने ‘बीज पंडुम’ पर्व मना रहे आदिवासियों पर गोली चला दी थी, जिसमें 8 आदिवासी मारे गए थे। सुरक्षाबलों ने कहा था कि ये सभी माओवादी थे और यह कार्रवाई उन्होंने माओवादियों द्वारा की गई गोलीबारी के जवाब में की थी लेकिन हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की जांच में सामने आया था कि यह एनकाउंटर फर्जी था और एक भी मृतक माओवादी नहीं था।
एक अन्य मामले में बीजापुर जिले के सारकेगुड़ा में सुरक्षाबलों द्वारा जून 2012 में 6 नाबालिग समेत 17 लोगों की हत्या कर दी गई थी। 28 जून की रात आदिवासी किसी पर्व के लिए एकत्र हुए थे। सुरक्षाबलों ने उसे नक्सलियों की बैठक समझ कर फायरिंग शुरू कर दी। जांच में सामने आया था कि एक भी मृतक नक्सली नहीं था।
‘ऑपरेशन कगार’ और नक्सल विरोधी अभियान की नई लहर
साल 2024 में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि मोदी सरकार ने भारत को 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद मुक्त बनाने का संकल्प किया है जिसके तहत देश भर में अलग अलग नक्सल विरोधी अभियान चलाए जा रहे हैं। हाल ही में छत्तीसगढ़ के नारायणपुर ज़िले के अबूझमाड़ इलाके में नक्सलियों के खिलाफ चल रहे एक बड़े अभियान के दौरान 21 मई को प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के महासचिव कॉमरेड नंबाला केशव राव उर्फ बसवा राजू समेत 27 माओवादी मारे गए। बसवा राजू पार्टी की केंद्रीय समिति (सीसीएम) और पोलित ब्यूरो (पीबीएम) के सदस्य भी थे। इस घटना के बाद भी जब उनके परिजन उनकी लाशो को लेने के लिए वहां पहुँचे तो उनके ऊपर विभिन्न तरह के शर्तों को थोपने की खबर सामने आई और परिवार द्वारा ये भी आरोप लगाया गया कि डेड बॉडी (शव) को गलत तरीके से कोई दावेदार नहीं बताकर पुलिस ने ही जला दिया जबकि बसवा राजू के दोनों भाई मौके पर मौजूद थे।
एक ओर जहाँ सुरक्षाकर्मी मुठभेड़ों में कथित नक्सलियों को मार गिराने का दावा करती हैं, दूसरे ओर ग्रामीण आदिवासी और सामाजिक कार्यकर्ता कई मुठभेड़ों को फर्जी बताते हैं और उनका आरोप है कि वो कथित नक्सली मुठभेड़ के नाम पर गाँव में किसानी का काम करते ग्रामीणों को उठाकर या तेंदूपत्ता लेन गए निर्दोष आदिवासियों को मार दिया जाता रहा हैं। राज्य द्वारा अत्यधिक बल प्रयोगकर कर आदिवासी संघटन या और शांतिपूर्ण आदिवासी आंदोलनों को खत्म किया जा रहा है और माओवादी के नाम से जेल भेजा जा रहा है। निरंतर दमन,और “लाशों के बदले नकद” जैसे नीति या सरल भाषा में कहे तो सुरक्षाकर्मी द्वारा कथित इनामी नक्सली की हत्या करने पर उपहार के रूप में उन्हें इनामी राशि देना, जिसके तहत सुरक्षा कर्मियों को एक निश्चित समय सीमा के भीतर नक्सलियों को खत्म करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
सरकार ने मोटे तौर पर आदिवासियों से जुड़े फर्जी मुठभेड़ों के सभी आरोपों को खारिज कर दिया है। फिर भी, हाल के महीनों में कई परेशान करने वाले वीडियो सामने आई हैं, जिनमें सुरक्षा बलों को नक्सलियों की हत्या का जश्न मनाते हुए दिखाया गया है। मारे गए माओवादियों को समर्पित स्मारकों को आक्रामक तरीके से ध्वस्त किया जा रहा है। फर्जी मुठभेड़ों केअच्छी तरह से प्रलेखित मामलों में भी कोई कार्रवाई नहीं की गई है, जैसे कि एडेसमेटा गावं की घटना।
बल्कि उल्टा सुरक्षा बल के जवानों और अधिकारियों को राज्य की विष्णुदेव साय सरकार ने आउट ऑफ टर्न प्रमोशन देकर बस्तर के जिलों में पदस्थ 295 आरक्षकों, हवलदारों, एएसआई और सब इंस्पेक्टरों को प्रमोट करने का आदेश जारी किया है।
एक तरफ सुरक्षाबलों को मुठभेड़ व साहस के लिए प्रमोशन दिया जा रहा है तो दूसरी तरफ ग्रामीण आदिवासियों और सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा लगातार फ़र्ज़ी मुठभेड़ होने का दावा कर कथित नक्सली के नाम पर निर्दोष आदिवासियों के मारे जाने का आरोप बढ़ रहे हैं।
फर्जी मुठभेड़ों के आरोप और मानवाधिकार का संकट
हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक बीजापुर जिले में सुरक्षा बलों द्वारा 9-10 मई को 12 कथित माओवादियों को मारे जाने के दो दिन बाद बीजापुर जिला कलेक्ट्रेट के बाहर शवों की मांग के लिए एकत्र हुए ग्रामीणों ने बताया कि उनके परिवार वालों को सुरक्षाबलों ने ‘फर्जी मुठभेड़’ में मार दिया है।
राज्य के बस्तर क्षेत्र में काम करने वाली आदिवासी एक्टिविस्ट सोनी सोरी हैं। उन्होंने इस मामले में कई मीडिया चैनलों से बात की। हिंदुस्तान टाइम के अनुसार,सोनी सोरी ने बताया, ‘पुलिस ने निर्दोष ग्रामीणों को मार दिया है। मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी। मारे गए लोगों में वे ग्रामीण भी शामिल हैं जो जंगल में तेंदूपत्ते तोड़ रहे थे। पुलिस को देखते ही वे भागने लगे और जवानों ने उन्हें गोली मार दी। मैंने मृतकों के परिवार के कुछ सदस्यों से बात की है, उन्होंने मुझे बताया कि कुछ ग्रामीणों को उनके घरों से उठा लिया गया और जंगल में मार दिया गया।
सोनी सोरी ने आगे कहा कि, “हम उच्च न्यायालय में याचिका दायर करेंगे क्योंकि पुलिस ने निर्दोष ग्रामीणों को मार दिया है”
सुरक्षाबल द्वारा कथित मुठभेड़ में आदिवासियों के मारे जाने का आरोप का सिलसिला थमा नहीं हैं बल्कि 2025-26 से ऑपरेशन समाधान पहाड़ लांच किया गया और बड़ी संख्या में कैम्प की स्थापना की गई। आज बस्तर दुनिया के सबसे ज़्यादा सैन्यीकृत जगह में से एक है जहां हर 10 नागरिक के पीछे एक एक पुलिस है।
राज्य सुरक्षा बलों द्वारा की गई ज्यादतियों के बारे में आलोचना को बर्दाश्त नहीं करता है। 2017 में रायपुर सेंट्रल जेल की तत्कालीन डिप्टी जेलर वर्षा डोंगरे को एक सोशल मीडिया पोस्ट में यह दावा करने के बाद निलंबित कर दिया गया था कि उन्होंने पुलिस थानों में आदिवासी लड़कियों के कपड़े उतारे और उन्हें प्रताड़ित होते देखा था।
उनकी पोस्ट में कहा गया था “दोनों तरफ मारे जा रहे लोग भारतीय हैं। पूंजीवादी व्यवस्था को बस्तर में जबरन थोपा जा रहा है, गांवों को जलाया जा रहा है, आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा है। क्या यह सब वाकई माओवाद को खत्म करने के लिए किया जा रहा है?” अब सवाल उठता हैं कि क्या आदिवासी खुद के अधिकार के लिए नहीं खड़ा हो सकता ? अगर खड़ा हो कर अपने अधिकार का सवाल पूछे तो वो क्यों कथित नक्सली या नक्सली समर्थक कहलाया जाता हैं ?
हाल ही में कई संगठनों और न्यूज़ चैनलों के खबर से पता लगा की सरकार बोधघाट योजना को आगे बढ़ाने में लगी हुई है। इस बोधघाट परियोजना में पहाड़ों को तोड़ कर और गांवों को उजाड़ कर डैम तैयार किये जाने का प्रयास है। सरकार का कहना है कि यह विकास है लेकिन जिस गांव में बिजली, सड़कें, पानी, अच्छी स्वास्थ्य, और शिक्षा देने के बजाय गांव को उजाड़ा जाए ऐसे में विकास किसके लिए किया जा रहा है?
आदिवासी विरोध और विकास के दावे
इन सबके बीच एक जरूरी सवाल जो सबके मन में है वह यह है कि क्या सही में माओवादी आंदोलन ख़त्म हो जाने के बाद बस्तर के जानता का सही मायने में विकास होगा? क्या जल जलंगल ज़मीन की लूट बंद हो जाएगी? तथ्य कुछ और ही कहता है और हकीकत कुछ और। वो यह भी सवाल है कि जो माओवादी हैं वो कौन हैं, कहाँ से आये हैं, उन्होंने क्यों ये रास्ता चुना? यह भी ध्यान देने वाली बात है कि माओवादियों के तरफ से कभी जंगल उजाड़ना, गांव को तोड़ना या बड़ी कम्पनियों का गांव में स्वागत करने का खबर सामने अभी तक नहीं आया है, तो फिर आखिर आदिवासियों को बस्तर के निवासियों को घर उजड़ जाने का,जंगल उजाड़ने का खतरा किससे है?
बस्तर के आदिवासी समुदायों ने इन सैन्य अभियानों और विकास परियोजनाओं का विरोध किया है। उनका कहना है कि इन परियोजनाओं से उनकी ज़मीन, जल और जंगल पर संकट आ रहा है। बोधघाट परियोजना, जो एक जलविद्युत परियोजना है, को लेकर आदिवासी समुदायों ने विरोध प्रदर्शन किए हैं, उनका कहना है कि इस परियोजना से उनकी आजीविका और पारंपरिक भूमि पर संकट आएगा।
दिसंबर 2023 में भाजपा के सत्ता में आने के तुरंत बाद, जैव विविधता से भरपूर हसदेव अरंड क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वनों की कटाई शुरू हो गई, जो परसा ईस्ट केंटे बसन खनन परियोजना का हिस्सा है, दरअसल, इस परियोजना पर काम पिछली कांग्रेस सरकार के दौरान शुरू हुआ था, लेकिन कांग्रेस नेता टीएस सिंह देव द्वारा उठाए गए कड़े विरोधों के बाद इसे रोक दिया गया था, जिन्होंने आदिवासी लोगों के हितों को प्राथमिकता नहीं देने के लिए अपनी ही सरकार की आलोचना की थी। जब नई सरकार की कार्रवाई पर हंगामा हुआ, तो मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने इसका बचाव करते हुए कहा कि यह पिछली सरकार द्वारा लिए गए फैसले का ही विस्तार है, और फिर माइनिंग की मंजूरी दे दी।
इसी बीच विष्णु देव साई सरकार ने 2000 के बाद से खनिज राजस्व में 30 गुना वृद्धि का दावा किया है, जब छत्तीसगढ़ को मध्य प्रदेश से अलग करके एक अलग राज्य बनाया गया था, जो 2023-24 में 13,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। राज्य ने जून 2024 में भारत की पहली लिथियम ब्लॉक नीलामी की मेजबानी की, जिसमें कोरबा में कटघोरा ब्लॉक को साउथ मैकी माइनिंग कंपनी को दिया गया। कोयला, लौह अयस्क, चूना पत्थर, बॉक्साइट और सोने सहित 28 खनिज प्रकारों के साथ छत्तीसगढ़ ने जनवरी 2025 में घोषित राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन की तर्ज पर एक राज्य खनिज अन्वेषण ट्रस्ट शुरू किया है।
सरकार बोधघाट बहुद्देशीय बाँध परियोजना को बस्तर के लिए चहुमुखी विकास परियोजना बताते हुए परियोजना की घोषणा कर रही है जिनके निर्माण से कई गाँव और कई स्थानीय आदिवासी समुदाय भी प्रभावित होगा, केवल इतना ही नहीं दंतेवाड़ा के आलनार में तरल पहाड़ को 2014 में फर्जी ग्राम सभा कर रायपुर की आरती स्पंज कंपनी को माइनिंग लीज दी गई है, जिसका स्थानीय सभी आदिवासी रैलीकर बड़ी संख्या में एकत्रित होकर पुरजोर विरोध कर रहे हैं फर्जी ग्रामसभा की जांच करवाई की जा रही हैं।
अगर देखें तो विकास के नाम पर लंबी लंबी सड़कें और रेल लाइन बिछाई जा रही है और दूसरी तरफ गांवों को उजाड़ा जा रहा है, जंगल को काटे जा रहे हैं, आदिवासियों को घर से बेघर किया जा रहा है। जंगल और आदिवासियों को खत्म कर सरकार बड़ी कम्पनियाँ को खदान, खनिज के लूट के लिए खुदाई और बड़े- बड़े डेम की शुरूआत बस्तर में करना चाहते हैं क्योंकि बस्तर के जंगल में भारी मात्रा में खनिज संपदा से भरा पड़ा हैं और वे आदिवासियों को बेदखल करना चाहते हैं और संसाधनों और जमीन को बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट्स को सौंपना चाहते हैं।
बस्तर की स्थिति एक जटिल संघर्ष की कहानी है, जहाँ एक ओर राज्य की विकास योजनाएँ हैं, वहीं दूसरी ओर आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा की आवश्यकता है। विकास के नाम पर यदि आदिवासियों की ज़मीन, जल और जंगल पर आक्रमण होता है, तो यह विकास नहीं, बल्कि शोषण कहलाएगा। आवश्यकता इस बात की है कि राज्य और आदिवासी समुदायों के बीच संवाद और सहमति स्थापित की जाए, ताकि विकास और अधिकारों का संतुलन स्थापित हो सके।
क्या यह विकास है या एक नई तरह का औपनिवेशिक शोषण?
दरअसल जिनका जीवन नर्क से कम नहीं है वो हैं बस्तर के आदिवासी। उनके जल,जंगल,जमीन छीनी जा रही है। इतना ही नहीं उन्हें माओवादी बता कर या तो उन्हें जान से मर दिया जा रहा या फिर झूठे आरोप में जेल भेज दिया जा रहा है। बस्तर में महिलाओं की स्थिति की बात की जाये तो सोच कर रूह कप जाती है। महिलाओं का सरे आम बलात्कार करना, उनका स्तन काटना। चाहे वह महीने भर की बच्ची हो या 70 साल की बुज़ुर्ग महिला।
कई संगठन, कुछ रिपोर्ट्स और जांच के अनुसार यह आरोप है कि महिलाओं के साथ इस तरह की दुर्व्यवहार सुरक्षा कर्मियों द्वारा ही किया जाता है।
इन्हीं सुरक्षा बालों और जवानों के बल प्रयोग द्वारा आदिवासियों के जल जंगल जमीन को बड़े कॉरपोरेट के हाथों बेच दिया जा रहा है।
माओवादी के नाम पर गांव के आम नागरिकों को मारा जा रहा है फिर ऐसे में यह सवाल उठता है कि बस्तर के लिए सैन्यीकरण कितना सही है? जगह जगह पुलिस कैम्प लगे हुए हैं जिससे लोगों के मन में भय बना होता है।
आये दिन माओवादी और जवान के मुठभेड़ छिड़ते रहते हैं जिसमें बेगुनाह आदिवासियों की जानें जाती हैं फिर ऐसे में सवाल उठता है कि आदिवासियों के जिंदगी का क्या, उनके जीवन माओवादी और सैन्यीकरण के बीच झूल रहा है।
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