बुंदेलखंड का जल संकट कोई नई समस्या नहीं है। सदियों से यहां के लोग पानी की किल्लत झेल रहे हैं परंतु पिछले कुछ दशकों में यह समस्या मानवीय लापरवाही और लालच के कारण विकराल हो गई है। यहां की केन, बेतवा, यमुना, चंद्रावल, मंदाकिनी जैसी बड़ी नदियां सूखने की कगार पर हैं और इनकी छोटी सहायक नदियां बाघन, धसान के अलावा कई नदियां सूख चुकी हैं। उनका अस्तित्व तक खत्म हो गया है। कुआं, तालाब और हैंडपंप उपेक्षित हैं और पहाड़ों का अंधाधुंध दोहन जारी है। इन हालातों में सवाल यह है कि किस आधार पर बांदा को जल संरक्षण के लिए सम्मानित किया गया?
लेखन – मीरा देवी
बांदा को “राष्ट्रीय जल पुरस्कार” से नवाजना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है लेकिन क्या सच में इस पुरस्कार का जमीनी हकीकत से कोई वास्ता है? इस पुरस्कार के माध्यम से बांदा को देशभर में जल संरक्षण का प्रतीक बना दिया गया है परंतु बुंदेलखंड का जल संकट यह सवाल उठाने पर मजबूर करता है कि आखिर इस पुरस्कार का वास्तविक हकदार कौन है। पर्यावरण के लिए संघर्ष कर रहे वे लोग या फिर वे अधिकारी जिनकी नीतियां और कार्यशैली इस संकट को और भी गहरा बना रही हैं?
बुंदेलखंड की प्यास: इतिहास का अभिशाप या वर्तमान की लापरवाही?
बुंदेलखंड का जल संकट कोई नई समस्या नहीं है। सदियों से यहां के लोग पानी की किल्लत झेल रहे हैं परंतु पिछले कुछ दशकों में यह समस्या मानवीय लापरवाही और लालच के कारण विकराल हो गई है। यहां की केन, बेतवा, यमुना, चंद्रावल, मंदाकिनी जैसी बड़ी नदियां सूखने की कगार पर हैं और इनकी छोटी सहायक नदियां बाघन, धसान के अलावा कई नदियां सूख चुकी हैं। उनका अस्तित्व तक खत्म हो गया है। कुआं, तालाब और हैंडपंप उपेक्षित हैं और पहाड़ों का अंधाधुंध दोहन जारी है। इन हालातों में सवाल यह है कि किस आधार पर बांदा को जल संरक्षण के लिए सम्मानित किया गया?
करीब पांच साल पहले बांदा को ‘पानीदार’ शब्द से पहचान दिया गया, मतलब कि बांदा पानी वाला जिला बन गया। बुंदेलखंड में “पानीदार” शब्द का अर्थ केवल पानी से नहीं, बल्कि स्वाभिमान और आत्मसम्मान से भी है लेकिन प्रशासनिक रवैया देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यहां “पानीदार” का मतलब केवल दिखावा बनकर रह गया है। सरकारी अधिकारी और कई सामाजिक कार्यकर्ता जल संरक्षण के नाम पर अपनी छवि चमकाने में लगे हैं, जबकि जमीनी हकीकत में उनकी गतिविधियों का जल संरक्षण पर कोई प्रभाव नहीं दिखता।
प्रशासनिक उदासीनता और भ्रष्टाचार का बोलबाला
जल संरक्षण के नाम पर सरकार ने कई योजनाएं बनाई हैं। मेरी रिपोर्टिंग अनुभव में 2006 से अब तक उत्तर प्रदेश सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं, जो ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में पीने के पानी की समस्या को हल करने पर केंद्रित है। इन योजनाओं का उद्देश्य न केवल जल संकट को दूर करना बल्कि स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल की उपलब्धता सुनिश्चित करना भी रहा है।
पानी से समस्या से निजात पाने के लिए सरकार ने भर-भर के योजनाएं चलाईं। जैसे उत्तर प्रदेश जल निगम की योजनाएं 2006, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना 2009, बुंदेलखंड पैकेज 2009, अमृत योजना 2015, मुख्यमंत्री ग्रामोद्योग जल योजना 2017, ब्रह्मा जल योजना 2018, जल जीवन मिशन के तहत हर घर जल योजना 2019 चलाई, लेकिन भ्रष्टाचार और प्रशासनिक उदासीनता के चलते ये योजनाएं अपने उद्देश्य से भटक चुकी हैं।
योजनाओं के लिए आवंटित धन का उपयोग ठेकेदारों द्वारा घटिया सामग्री में किया जा रहा है, जिससे जल स्रोतों का संरक्षण नहीं हो पा रहा। जल संकट से सबसे ज्यादा प्रभावित बहुजन और आदिवासी तबका पानी के लिए मीलों चलने को मजबूर है। प्रशासन के पास इन समस्याओं का कोई ठोस हल नहीं है। क्या यह उनकी विफलता का प्रमाण नहीं है?
अगर यह अवार्ड किसी एक गांव के लिए दिया जाए तो देखना चाहिए कि वहां सच में पानी की समस्या हल हो चुकी है या नहीं। बांदा और चित्रकूट में कई ऐसे गांव हैं जिन पर बार बार रिपोर्टिंग की गई और वहां की स्थिति कुछ तो सामान्य हुई। चित्रकूट का मानिकपुर क्षेत्र जिसको पाठा इलाके के नाम से जाना जाता है, यहां हमेशा से पीने के पानी की कठिनाइयां यहां के बहुजन समाज के लोगों ने झेली हैं। विशेष रूप से दलित और आदिवासी समुदाय के पास साफ पानी अभी भी नहीं है। आदिवासी महिलाएं आज भी दूर जंगलों से दूषित पानी लाने को मजबूर हैं। कई इलाकों में, महिलाएं पूरी रात पानी के लिए जागती हैं।
अवैध खनन और जल संसाधनों का विनाश
बुंदेलखंड में अवैध बालू खनन एक बड़ी समस्या है जिसने जल संसाधनों के हर प्रयास को कमजोर बना दिया है। बालू माफिया और प्रशासन की मिलीभगत से नदियों का पानी घटता जा रहा है। इसका असर सीधे-सीधे यहां के पारंपरिक जल स्रोतों पर पड़ रहा है। बालू माफिया के सामने प्रशासन का मौन यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या भ्रष्टाचार ने इनकी आंखें बंद कर दी हैं?
गौरहरी पहाड़ खनन और मजदूरों की मौत
पहाड़ों का अंधाधुंध खनन और उसके दुष्परिणाम
यहां के पहाड़ और जंगल एक समय में इस क्षेत्र की जल सुरक्षा का हिस्सा हुआ करते थे, लेकिन आज पहाड़ों का दोहन कर उन्हें खोखला बना दिया गया है। खनन से होने वाले प्रदूषण ने गांवों में रहने वाले गरीब लोगों को टीबी, अस्थमा जैसी गंभीर बीमारियों की चपेट में ला दिया है। मजदूरों की मौत के बाद भी न तो मुआवजा मिलता है और न ही स्वास्थ्य सेवाएं। क्या प्रशासन की नजर में इनकी जान की कोई कीमत नहीं है?
जल संरक्षण के नाम पर दिखावा
जल संरक्षण के नाम पर कई सामाजिक कार्यकर्ता सामने आते हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उनका कोई प्रभाव नहीं दिखता। क्या ये लोग वाकई बुंदेलखंड की समस्या को हल करना चाहते हैं या सिर्फ अपने नाम और प्रसिद्धि की खातिर जल संरक्षण का मुद्दा उठा रहे हैं? क्या इनके प्रयासों का कोई वास्तविक असर नहीं होना चाहिए?
समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है
सख्त कानून और निगरानी: अवैध खनन और जल संसाधनों के दुरुपयोग पर सख्त कानून लागू हों और प्रशासन निष्पक्षता के साथ इस पर काम करे।
समर्पित संगठनों का सहयोग: वास्तविक जल संरक्षण करने वाले संगठनों को प्रोत्साहित किया जाए, ताकि वे जमीनी स्तर पर असर डाल सकें।
शिक्षा और जागरूकता: स्थानीय लोगों को जल संरक्षण के महत्व को समझाना और उन्हें सक्रिय बनाना जरूरी है।
पारंपरिक जल स्रोतों का पुनर्निर्माण: बुंदेलखंड में कुंए, तालाब और अन्य जल स्रोतों का पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता है।
पानी के अधिकार की रक्षा: पानी हर व्यक्ति का मूल अधिकार है, और इसके लिए पंचायत स्तर पर योजनाएं बननी चाहिए।
बांदा को “राष्ट्रीय जल पुरस्कार” से नवाजा गया है, लेकिन यह सम्मान तब तक सार्थक नहीं हो सकता जब तक कि बुंदेलखंड के जल संकट का स्थायी समाधान न हो। अगर यह पुरस्कार केवल दिखावे के लिए है, तो यह उन लोगों के संघर्ष का अपमान होगा जिन्होंने अपने प्रयासों से जल संकट को कम करने की कोशिश की है।
अब वक्त आ गया है कि हम केवल सम्मान और पुरस्कारों तक सीमित न रहें, बल्कि वास्तविक काम करें। जल संकट से जूझ रहे इस क्षेत्र को वाकई “पानीदार” बनाना है तो हमें ठोस कदम उठाने होंगे।
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