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बांदा : शंकर पुरवा का खस्ताहाल, हर बाढ़ में बुरा हाल

बांदा: जिले की ग्राम पंचायत नांदादेव का मजरा शंकर पुरवा बाढ़ आने पर हर बार बुरी तरह से प्रभावित होता है। बाढ़ आने और उसके बाद भी लोग खुद से अपनी व्यवस्था करते हैं। प्रशासनिक स्तर से कार्यवाही करना जरूरी नहीं समझा जाता। यहां की रिपोर्टिंग हमने लगातार दो साल आई बाढ़ पर की और दोनों बार बहुत ही बुरे हाल रहे। प्रशासन हर बार इनको भरोसा तो देता है किसी ऊंचाई की जगह विस्थापित करने के लिए लेकिन आज तक उस भरोसे में अमल नहीं किया गया।

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बाढ़ तो हर तीसरे साल आती है। लोगों के बताने के अनुसार साल 2013, 2016, 2019 और अब 2021 में भयावह बाढ़ की स्थिति जानलेवा बनी हुई है। शंकर पुरवा के लोगों के लिए यही टीला है जो हर बाढ़ में इनका लोगों और बेजुबान जानवरों का सहारा बनता है। यहां के लोगों के हिसाब से प्रशासन द्वारा ऊंचाई वाले स्थान में बसाने की बात की जाती है लेकिन बाढ़ जाने के बाद फिर भूल जाते हैं। शंकर पुरवा को हमने 2019 में और अब 2021 में रिपोर्टिंग की है तो वहां की स्थिति से परिचित है। जसपुरा क्षेत्र के दर्जनों गांव हर बाढ़ में प्रभावित होते हैं लेकिन प्रशासन कोई जिम्मेदारी नहीं लेता।

अब इस साल भी शंकर पुरवा में भी यही हाल हैं। उसी टीले पर इस मजरे के लोग तम्बू गाड़कर एक-एक मिनट इस आस में गुजर रहे हैं कि शायद पानी कम हो और वह अपने घर को लौट पाएं। प्रशासन की तरफ से अब तक में बाढ़ राहत सामग्री के नाम पर मोमबत्तियां, माचिस, लाई, चना, बिस्कुट, तिरपाल दिया गया है। इस मामले पर पैलानी तहसीलदार तिमराज सिंह का कहना है कि शंकर पुरवा के लोग टीले पर पूरी तरह से सुरक्षित है। अरे साहब….एक रात गुजार कर देख लीजिए।

बात सितम्बर 2019 की है। जब मैं मुख्यालय से लगभग 45 किलोमीटर की दूर जसपुरा कस्बे पहुंची थी। जसपुरा से शंकरपुरवा तक नाव से जाना था क्योंकि केन नदी का अथाह पानी चारो तरफ घेरे था। नाव में सवार होकर गांव की तरफ बढ़ने लगे। अथाह पानी कितनी गहराई तक होगा यह सवाल मुझे डराए जा रहा था। तभी अचानक मेरी नजर ग्यारह हजार पावर वाले बिजली के खम्भे पर पड़ी जो लगभग एक हाथ ही दिख रहा था। अचानक से मुंह से निकल गया बाप रे… इतने गहरे में हैं हम। नाविक ने मुझसे चुप रहने की अपील की। खैर हम नाव से उतर कर करीब दो सौ मीटर चलकर पहुंचे एक टीले पर जहां पर लोगों ने साड़ी और पन्नी से झोपड़ी बना रखी थी। उस झोपड़ी में बच्चे, बुजुर्ग, पालतू जानवर सब उसी झोपड़ी में घुसे एक ही जगह बैठे थे। किसी के आने और मदद के इंतज़ार से थकी आंखें हमें निहारे जा रही थीं। एक क्षण के लिए समझ नहीं आया कि हम क्या करें। कैसे पत्रकारिता करें? जबकि उस समय उनको किसी भी तरह की मदद की जरूरत थी। खैर पत्रकार होने को जानकर उनके चेहरे में थोड़ी तो उम्मीद दिख रही थी कि उनके इस हालत को प्रशासन तक पहुंचायेंगे ही हम।

जब हमने लोगों से पूंछना शुरू किया तो पता चला कि अब तक में तीन दिन बीत चुका है। प्रशासन या प्रधान ने किसी भी तरह की मदद नहीं की थी। मीडिया से अब तक कोई नहीं आया था। ज्यादातर परिवार अनुसूचित जाति से थे। मदद न पहुंचना या फिर प्रधान का साथ न देना भी जाति बड़ा कारण था। हरेक झोपड़ी में बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं बीमार थे। तीन ऐसी महिलाएं थीं जो गर्भवती थीं। इनमें से एक महिला को सातवें महीने में ही बहुत तेज प्रसव पीड़ा शुरू हुई और किसी तरह उसको नाव से ही जसपुरा सरकारी अस्पताल लाया गया। वहां से हमीरपुर और हमीरपुर से कानपुर तक रेफर किया गया था। इसी तरह किशोरियों और उन महिलाओं को माहवारी संभालने में सुविधाओं का बहुत अभाव था। यहां पर स्वास्थ्य विभाग की अहम जिम्मेदारी बनती है लेकिन हमारी रिपोर्टिंग के समय तक कोई सुविधा नहीं की गई थी। रही बात खाने पीने के व्यवस्था की तो वह भी बहुत डामाडोल थी। पहले टाइम खाना पहुँचे तो दूसरे टाइम नहीं पहुंचता या फिर पहुंचता ही नहीं।

अब फिर से लगातार बारिश की वजह से यह गांव बाढ़ प्रभावित है। वही स्थिति फिर से खड़ी हो गई है। इस बार हम फिर पहुंचे उस गांव रिपोर्टिंग करने। लोग फिर से उस टीले में डेरा डाले हुए हैं। रातों की नींद हराम है। पता नहीं कब जल स्तर बढ़कर उनको बहा ले जाये। बाढ़ में सांप बिच्छू और जहरीले जीव-जन्तु कब आकर नुकसान पहुंचा दें कोई पता नहीं कब हो जाये। महिलाओं को होने वाली असुविधाओं की ओर न ही स्वास्थ्य विभाग का ध्यान है और न ही सरकार का। शंकर पुरवा कब तक बाढ़ का शिकार होता रहेगा? यहां के लोगों को और कितने सालों तक ये स्थिति देखते रहना पड़ेगा?

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