सड़कों का चौड़ीकरण व क़ब्रों में मंदिर होने का गीत आज की राजनीति व सत्ता का चेहरा है। इसमें हम यूपी को ही ज़रा गहराई से पढ़ सकते हैं। अभी हाल ही में संभल के ‘शाही जामा मस्जिद’ को लेकर दावा किया गया था कि मस्जिद की जगह पहले यहां ‘हरि हर मंदिर’ था। इसके बाद अजमेर शरीफ़ की दरगाह को लेकर दावा किया गया कि वहां भी पहले मंदिर था। वह दरगाह जो लगभग 800 साल पुरानी है जिससे लोगों की सिर्फ आस्था ही नहीं बल्कि रोज़गार व पर्यटन भी जुड़ा हुआ है।
हर गुंबद कुफ़र, हर क़ब्र मंदिर!
कुफ़र/kufr…… ‘नकारना,अविश्वास करना’ जो आज के देश का परिदृश्य है। एक समुदाय के विश्वास का, उसके यकीं का जिसे वे मानते हैं। हर क़ब्र में तलाश एक सजदे को नकारते हुए एक आस्था की है।
आज का देश विकास नहीं विश्वास/अविश्वास की लहर में हैं। मंगलवार,10 दिसंबर को यूपी के फ़तेहपुर जिले से एक खबर सामने आती है। प्रशासन कहता है, यहां मौजूद लगभग 180 साल पुरानी नूरी जामा मस्जिद का एक हिस्सा अतिक्रमण के क्षेत्र में आ रहा है, जिस पर कार्यवाही करते हुए प्रशासन ने बुलडोज़र न्याय देते हुए उसे तोड़ दिया।
टेलीग्राफ इंडिया की रिपोर्ट ने लिखा, मस्जिद का हिस्सा दो-तीन साल पहले अवैध रूप से बनाया गया था और यह बांदा-बहराइच हाईवे की चौड़ीकरण में रुकावट डाल रहा था। इसे लेकर प्रशासन ने मस्जिद कमिटी को नोटिस भी जारी किया था जिसे लेकर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
मस्जिद प्रबंध समिति के प्रमुख ने हालांकि दावा किया कि “ललौली की नूरी मस्जिद 1839 में बनी थी और यहां की सड़क 1956 में बनी, फिर भी पीडब्ल्यूडी मस्जिद के कुछ हिस्सों को अवैध बता रही है।” उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने पहले ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी है, जिसे 12 दिसंबर को सुना जाएगा।
मामले को लेकर अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट अविनाश त्रिपाठी ने कहा कि अगस्त में 139 संस्थाओं को नोटिस जारी किए गए थे, जिनमें मस्जिद का प्रबंधन भी शामिल था, ताकि अवैध कब्जे और अन्य अवैध निर्माणों को हटाया जा सके।
जनवरी 2023 में भी सड़क चौड़ीकरण के नाम पर प्रयागराज की 16वीं सदी की शाही मस्जिद को अधिकारियों द्वारा गिरा दिया गया।
यह सड़कों का चौड़ीकरण व क़ब्रों में मंदिर होने का गीत आज की राजनीति व सत्ता का चेहरा है। इसमें हम यूपी को ही ज़रा गहराई से पढ़ सकते हैं। अभी हाल ही में संभल के ‘शाही जामा मस्जिद’ को लेकर दावा किया गया था कि मस्जिद की जगह पहले यहां ‘हरि हर मंदिर’ था। इसके बाद अजमेर शरीफ़ की दरगाह को लेकर दावा किया गया कि वहां भी पहले मंदिर था। वह दरगाह जो लगभग 800 साल पुरानी है जिससे लोगों की सिर्फ आस्था ही नहीं बल्कि रोज़गार व पर्यटन भी जुड़ा हुआ है।
इससे पहले साल 2023 में ज्ञानवापी मस्जिद का मामला फिर से सामने आया था जिसमें यह दावा किया गया कि वहां मस्जिद की जगह काशी विश्वनाथ मंदिर था। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2024 में फैसला सुनाते हुए दोनों समुदायों को अपने-अपने धार्मिक पूजा करने की अनुमति दी थी।
खबर लहरिया की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2024 के फरवरी महीने में 12वीं सदी के बाबा हाजी रोजबीह (shrine of Haji Rozbih) व उनकी शागिर्द की कब्र को भी दिल्ली विकास प्राधिकरण (Delhi Development Authority) द्वारा ‘अतिक्रमण’ के नाम पर तोड़ दिया गया- जो महरौली के संजय वन में स्थित थी। इससे पहले 30 जनवरी को, 700-800 साल पुरानी अखूंदजी मस्जिद (Mosque of Akhoondji), मदरसा बेहरुल उलूम मस्जिद अखून्द जी (Madarsa bahrul Uloom Masjid Akhund Ji) व हज़ारों कब्रों को तोड़ा गया था।
अतिक्रमण व अवैध कब्ज़े को लेकर काम करना प्रशासन की ज़िम्मेदारी है। साथ ही प्रशासन की ज़िम्मेदारी किसी की आस्था और उसके धरोहर को सुरक्षित रखने की भी है। हालांकि, जब हम यहां बताये गए मामलों को देखते हैं तो यहां सिर्फ यही सवाल सामने आते हैं कि सारे अतिक्रमण क्षेत्र मस्जिद कैसे हो सकते हैं? सारे अवैध कब्ज़े एक समुदाय की तरफ क्यों इंगित है? क्या है राजनीति का परिपेक्ष्य नहीं? क्या यह एकाधिकार की सत्ता का इस्तेमाल नहीं? वह भी सिर्फ केंद्रित धर्म व समुदाय के प्रति…..
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