सरस्वती बताती हैं, हर साल वह दवा छिड़काव के लिए पुरुष मज़दूरों की मदद लेती थीं लेकिन इस बार उन्होंने खुद अपने खेत में दवाओं का छिड़काव किया और यह एहसास किया कि यह काम उतना मुश्किल नहीं है। कहा, “जिस काम को मैं इतना मुश्किल समझती थी, वह काम तो घर के सारे काम करने से बहुत आसान है। मुझे लगता था यह बहुत बड़ा काम है पर ऐसा नहीं है।”
“खेत मेरे पति के नाम है लेकिन खेती की सारी ज़िम्मेदारी का काम मैं करती हूँ ये सोचकर कि मेरा खेत है,मैं किसान हूँ….पर धान बेचने के दिनों मुझे एक नौकर जैसा महसूस होता है”
– 40 वर्षीय महिला किसान सरस्वती ने कहा, जो छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले के दार गांव में तकरीबन बीस सालों से रह रही हैं।
सरस्वती अपने पति और दो बेटियों के साथ रहती हैं। वह परिवार को संभालने के साथ उनके भरण-पोषण के लिए खेती का काम और उससे जुड़ी सभी ज़िम्मेदारियों को अकेले निभाती हैं।
जब छत्तीसगढ़ में मानसून का मौसम आता है तो खेतों में धान के बीजों की बुवाई भी शुरू हो जाती है। बीज बुवाई के एक महीने बाद सरस्तवी का काम और ज़िम्मेदारियां पहले से और भी ज़्यादा बढ़ जाते हैं। उनका काम दोगुना हो जाता है क्योंकि उनके काम में उन्हें किसी भी तरह की मदद नहीं है।
एक महीने बाद जब धान बढ़ जाते हैं तो निदाई का काम चालू हो जाता है। निदाई का मतलब है, खेत से खरपतवार को छांटना या निकालना ताकि धान की फसल को नुकसान न पहुंचे।
सरस्वती सबसे पहले सुबह उठकर घर का सारा काम जैसे – खाना बनाना,गाय-बकरी को चारा देना,गौठान साफ़ करना इत्यादि चीज़ें करती हैं। घर का पूरा काम खत्म करने के बाद वह सुबह 6 बजे खेत के लिए निकल पड़ती हैं और पूरे दिन अकेले 4 एकड़ के खेत में निदाई का काम करती हैं। कभी अकेले काम करते-करते थक जाती हैं तो थोड़ा आराम भी कर लेती हैं पर ज़्यादा देर नहीं क्योंकि उन्हें अन्य कामों को भी देखना है, यहां भी वह सब कुछ खुद ही संभाल रही हैं।
खेत की निदाई करने के बाद उन्होंने खेत में कीटनाशक दवा का छिड़काव करने का सोचा। इस काम के लिए वह पुरुष मज़दूरों को ढूंढ़ने लगीं। जब उन्हें मज़दूर नहीं मिले तो उन्होंने खुद कोशिश करने की सोची। उनके मन में यह ख्याल भी था कि मज़दूरी के बचे पैसों का इस्तेमाल अब वह घर में कर सकती हैं।
फिर एक दिन वह अपनी छोटी बेटी को लेकर खेत में कीटनाशक दवा के छिड़काव के लिए पहुंच गईं। उन्होंने स्पीयर (कीटनाशक के छिड़काव में इस्तेमाल किया जाने वाला स्प्रे) में पानी और दावा डाला और इसके बाद स्पीयर को कंधे पर लटका लिया और धीरे-धीरे छिड़काव करने लगीं। साड़ी की वजह से पहले उन्हें छिड़काव में दिक्कत का सामना करना पड़ा। फिर धीरे-धीरे उन्हें यह काम करना आ गया और डेढ़ घंटे में उन्होंने एक एकड़ खेत में दवा का छिड़काव कर दिया।
सरस्वती बताती हैं, हर साल वह दवा छिड़काव के लिए पुरुष मज़दूरों की मदद लेती थीं लेकिन इस बार उन्होंने खुद अपने खेत में दवाओं का छिड़काव किया और यह एहसास किया कि यह काम उतना मुश्किल नहीं है। कहा,
“जिस काम को मैं इतना मुश्किल समझती थी, वह काम तो घर के सारे काम करने से बहुत आसान है। मुझे लगता था यह बहुत बड़ा काम है पर ऐसा नहीं है।”
सरस्वती अपने काम को अपना सब कुछ मानती हैं और यह विश्वास रखती हैं जो उनका काम है, वह उसे ज़रूर से पूरा करेंगी। जब धान की कटाई के समय आस-पड़ोस के लोग उन्हें ताना कसते हैं, कहते हैं ‘मर्दों के जैसे काम करती है, अपने आदमी की मदद नहीं लेती’ इन सब बातों को सुनते हुए, उन्हें अनसुना करते हुए वह अपने काम में लगी रहती हैं। वह कहती हैं,
“मुझे लगता है, ये मेरा काम है तो मुझे करना है, कोई और नहीं करेगा।”
और यह एहसास उन्हें उनके परिवार से मिला है जहां उनके पति द्वारा उनकी किसी भी तरह से मदद नहीं की जाती है पर हां….
जब धान की कटाई के बाद समय आता है, उसे बेचने का तो यहां सरस्वती खुद से यह सवाल पूछने पर मज़बूर हो जाती हैं कि आखिर उसका क्या है? उसने इतने महीनों तक जो मेहनत की, वह किसके लिए थी? खेत पर उसका हक़ है या नहीं?
आगे कहा, ‘बार-बार मेरे सामने मेरा पति बोलता है कि खेत मेरे नाम है तो मैं ही मंडी जाऊंगा धान के पैसे लेने। मैं तय करूँगा कि पैसे कहां खर्च करने हैं।’
सरस्वती सवाल करती हैं, “जब खेतों में काम शुरू होता है, 12 घंटे काम करने होते हैं तब मैं किसान हूँ। मेरा खेत है,मेहनत मैं करूंगा, ऐसा क्यों नहीं बोला जाता? क्या तैयार की गई फसलों को मंडी में बेचने जाना और धान के पैसे को बैंक से घर लाने वालों को ही किसान कहा जाता है?”
जब मैं खेत में चार महीने मेहनत कर सकती हूँ तो क्या मैं चार दिन मंडी और बैंक का काम नहीं कर सकती? मैं ये काम भी करने की हिम्मत रखती हूँ। मैं एक किसान हूँ क्योंकि मैं खेती का सारा काम करती हूँ।
रिपोर्ट – सोमा
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