खबर लहरिया Blog बुंदेलखंड की शादियों में सुवासा सजाने की एक अनोखी परंपरा

बुंदेलखंड की शादियों में सुवासा सजाने की एक अनोखी परंपरा

 

मंडप के नीचे होता कनहर रस्म (फोटो साभार: श्यामकली)

रिपोर्ट – श्यामकली, लेखन – गीता 

बुंदेलखंड: यहां शादियों में आज भी सुवासा का चलन फेमस है जिसमें शादी के बाद और बिदाई से पहले दूल्हे के फूफा को दुल्हन के मायके में दुल्हन कि बुआ और अन्य महिलाएं मिलकर सजाती हैं और खूब हंसी ठिठोली करती हैं। हमने हाल ही में महोबा और बांदा जिले में सुवासा की इस परंपरा को देखा है तो चलिए आज हम आपको भी इस परंपरा से रुबरु कराते हैं।

सुवासा सजाने से ज्यादा हंसी ठिठोली

महोबा जिले के जैतपुर ब्लॉग के ग्राम पंचायत सतारी में चंदू के बेटी की 5 मई कि शादी थी‌। बारात बिलखी गांव से आई थी। शादी में धूम-धड़ाका नाच-गाना और रस्मों से खुशी का माहौल, तो था ही, लेकिन जब सुबह कन्यादान के बाद और विदाई से पहले सुवासा को सजाने की रस्म शुरू हुई तो यह खुशी और भी दुगनी हो गई और हंसी ठिठोली से लोगों के पेट फूलने लगे। 

कमर में कलसा बांधे सुवासा (फोटो साभार: श्यामकली)

सुवासा मतलब फूफा को खास मिलता है सम्मान 

दुल्हन की बुआ प्रभा बताती हैं कि शादियों में सुवासा सजाने कि यह पुरानी परंपरा है। वह पहले अपनी दादी-नानी और गांव की अन्य महिलाओं को देखती थी कि लड़के के फूफा को सजाती हैं, वैसा ही अब वह भी करती हैं। यह उनके समाज की खास परंपरा है जिसमें दुल्हे के फूफा को खास सम्मान दिया जाता है।

सुवासा को सजातीं महिलाएं (फोटो साभार: श्यामकली)

सुवासा मतलब फूफा को खास मिलता है सम्मान

दुल्हन की बुआ प्रभा बताती हैं कि शादियों में सुवासा सजाने कि यह पुरानी परंपरा है। वह पहले अपनी दादी-नानी और गांव की अन्य महिलाओं को देखती थी कि लड़के के फूफा को सजाती हैं, वैसा ही अब वह भी करती हैं। यह उनके समाज की खास परंपरा है जिसमें दुल्हे के फूफा को खास सम्मान दिया जाता है।

परंपरा ऐसी हैं जो सदियों से चली आ रही हैं

कई बार पुरुषों को शुरुआत में संकोच होता है वह मना करते हैं, लेकिन जब घर की सभी महिलाएं अपने में उतर आती हैं तो फूफा को मानना ही पडता हैं। महिलाएं कहती हैं कि कौन सा रोज-रोज शादी होती है, कभी -कभार तो पुरुषों को सजाने का मौका मिलता है। वो भी दुल्हे का फूफा, जिनसे रिश्ता भी मजाक वाला होता है। इसलिए जो मन करता है पहनाते हैं। 

महिलाओं के कपड़ों में सुवासा (फोटो साभार: श्यामकली)

फूफा को क्यों कहते हैं सुवासा

फूफा को इसलिए सुवासा कहा जाता है क्योंकि जो भी नाई (नाउन) से होने वाली रस्में होती हैं उनको फूफा करते हैं इसीलिए फूफा खास होते हैं, नखरे वाले होते हैं और उनके साथ ये रस्म होती है। फूफा मतलब (सुवासा) को सजाने के लिए मेकअप का सामान लड़की की बुआ लती है, जिसमें लिपस्टिक, पाउडर, सिंदूर, चूड़ियाँ, बिंदी, काजल, रंग, गहने, महिलाओं के कपड़े जैसे साड़ी चड्डी-बनियान ये सब होता है जिसको लगाकर सुवासा को महिलाएं तैयार करती हैंफिर गाते-बजाते नचाते और‌ हँसी- ठिठोली करते हुए महिलाएं इस रस्म का आंनद लेती है। इतना ही नहीं सजाने के बाद सुवासा की कमर में एक कलसी (छोटा मटका) बाँधा जाता है और एक सिर पर घड़ा रख जाता है। फिर उन्हें नाचते-गाते हुए महिलाएं जनवास तक जाती हैं।

सुवासा को नचाती महिलाएं (फोटो साभार: श्यामकली)

जनवास में क्या होता है?

जब जनवास पहुंचते हैं तो खूब हंसी-मजाक और डांस होता है। फूफा की सजावट की सब तारीफ करते हैं, वाह क्या सजाया है फूफा को। इसके बाद महिलाएं दिवारी (लोकगीत) गाती हैं और नाचती हैं। फूफा गुस्सा हो जाते हैं और  भागने की कोशिश करते हैं लेकिन महिलाएं उन्हें पकड़ कर ले जाती हैं। यह सब देखकर वहां मौजूद सभी का पेट हंसी से फूल जाता है। इसके बाद दुल्हन पक्ष की महिलाएं जिन्होंने सुवासा सजाया है। वह दुल्हे के पिता से ‘सुवासा ‘ का सजाने का नेग मांगती हैं। इस नेग की कोई निर्धारित राशि नहीं होती जितनी जिसके पास जितनी हैसियत है उस हिसाब से देते हैं। कोई 10 रुपए ही देता है तो कोई 5 सौ से हजार तक भी दे देता है। ये केवल रस्म नहीं बल्कि प्यार और सम्मान है

 सुवासा को जनवास ले जाते हुए (फोटो साभार: श्यामकली)

यह रस्म केवल सजावट नहीं, बल्कि प्यार, अपनापन और संस्कृति को निभाने का तरीका है। इसमें कोई अपमान नहीं, बल्कि खुशी और सम्मान छिपा होता है। सुवासा सजाने की परंपरा बुन्देलखण्ड की सांस्कृतिक विरासत का एक उदाहरण है। यह रस्म हंसी, ठिठोली और पारिवारिक जुड़ाव की भावना को दर्शाती है। जहां एक ओर पुरुषों का सजना समाज में अच्छा नहीं माना जाता है, वहीं इस रस्म में यह सम्मान और आदर का प्रतीक बन जाता है। ऐसी परंपराएं न केवल मनोरंजन कराती हैं, बल्कि लोक संस्कृति की जड़ों से भी जोड़ती हैं।

 

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