तमिलनाडु की पेचियाम्मल महिला ने अपने जीवन के 36 साल पुरुषों की तरह जीया।
पितृसत्ता, ताकत यानी लालसा कभी गयी है? नहीं न तो फिर जब भी पितृसत्ता पर सवाल उठाये जाते हैं तो समाज में आग क्यों लग जाती है? इसलिए ही न क्यूंकि वह कभी खत्म ही नहीं हुई, क्यों?
महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। जो कहता है कि वह कर रहा है तो मेरी नज़र में वह इंसान झूठा है। कभी पुरुषों की सुरक्षा पर सवाल खड़ा नहीं हुआ क्यूंकि उन्हें कभी खतरा ही महसूस नहीं हुआ क्यूंकि वह पितृसत्ता समाज का हिस्सा है और स्त्रियां? वह क्या हैं? अजेंडा? सत्ता पाने का रास्ता?
लोग कह रहें हैं, समाज बदल रहा है, देश बदल रहा है। सही है, सब कुछ बदल रहा है लेकिन जो नहीं बदल रहा है वह है ‘इस पितृसत्ता समाज में महिलाओं की सुरक्षा का सवाल। ‘
समाज ने कहा, एक महिला को जीने के लिए परिवार, भाई, पिता या पति की ज़रुरत है। जिसके पास यह नहीं है वह महिला इस समाज में जी ही नहीं सकती। इसमें झूठ क्या है, क्यूंकि समाज उसे अकेला देख उस पर ऐसे झपटता है, ऐसे उसे अपने शिकंजे में कसता है कि बाहर की हवा तक उसकी साँसे नहीं छू पाती। सही बात है कि अकेली महिला का समाज में नहीं जी सकती। न समाज उसे जीने देगा?
लेकिन अगर फिर भी उसे पितृसत्ता समाज में रहते हुए, साँसे लेते रहना है तो वह क्या करे? किसी और समाज में चले जाए जहां पितृसत्ता नहीं है? पर ऐसा तो कोई समाज ही नहीं है, आपको मालूम है क्या समाज क्यूंकि मुझे तो नहीं पता।
अब एक महिला समाज में गरिमा के साथ जीए तो आखिर कैसे? कोई उसे अकेला पाकर अपशब्द न कहे, उसका सम्मान करे, इसके लिए वह क्या करे? पुरुषों को कभी ऐसे सवाल खुद से करने पड़ते हैं क्या? क्या कभी इस पितृसत्ता समाज को जीने के लिए महिला की तरह, महिला के जीवन की तरह इतना लड़ना पड़ा है? नहीं न, क्यूंकि महिला का जीवन जीवन आसान नहीं है।
यह लिखते हुए भी मुझे पीड़ा हो रही है कि जीवन सबको एक समान और उसे लड़ने की चुनौतियां लिंग के आधार पर, क्यों?
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तमिलनाडु की महिला ने पुरुष के वेश में गुज़ारा पूरा जीवन
तमिलनाडु की एक महिला ने अपने जीवन के 36 साल पुरुषों की तरह जीया, क्यों? क्यूंकि पितृसत्ता समाज में एक महिला का जीवन उसने देख लिया था। यह कहानी इण्डिया टुडे की 15 मई 2022 की रिपोर्ट में प्रकाशित हुई है।
यह पढ़ने के बाद कई सवाल दिमाग में घूम रहे होंगे कि महिला का पुरुषों की तरह जीने का संबंध पितृसत्ता से कैसे हो सकता है? उसने ऐसा क्यों किया?
तमिलनाडु की इस महिला का नाम है पेचियाम्मल। 57 साल की पेचियाम्मल तमिलनाडु के कटुनायक्कनपट्टी गाँव की रहने वाली हैं। उसने अपना पूरा जीवन पुरुष के वेश में अपनी बेटी के लिए जीया। कहतीं, “पितृसत्तात्मक समाज में अपनी अकेली बेटी को सुरक्षा के साथ पालने के लिए उसने यह असमान्य कदम उठाया।”
कुछ गलत नहीं कहा कि माँ बच्चों के लिए कुछ भी कर सकती है यहां तक की अपनी पहचान भी मिटा सकती है।
पुरुष प्रधान समाज
अपने जीवन के बारे में पेचियाम्मल बताते हुए कहती हैं, शादी के 15 दिन के बाद ही पति की मौत हो गयी। तब वह सिर्फ 20 साल की थीं। वह दोबारा शादी नहीं करना चाहती थीं। वह कटुनायक्कनपट्टी नाम के गांव से थीं, जहां का समाज पुरुष प्रधान था। कुछ समय बाद उसने एक बेटी को जन्म दिया, शणमुगासुंदरी।
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काम की जगह मिलती थी प्रताड़ना
उसे अपनी बेटी के लिए कमाना था लेकिन गांव में उसके लिए काम करना आसान नहीं था। लोग उसे परेशान करते। अपनी बेटी को पालने के लिए उसने कंस्ट्रक्शन साइट्स, होटल, चाय की दुकानों समेत कई जगहों पर काम करके देखा। हर जगह उसके साथ उत्पीड़न किया गया। उसे ताने दिए गए।
एक महीने तक यौनिक ताने सुनने के बाद पेचियाम्मल ने तय कर लिया कि वह पुरुष बनकर रहेंगी। उसने तिरुचेंदुर मुरुगन मंदिर जाकर अपने बाल दान किये और साड़ी की जगह शर्ट और लुंगी पहनना शुरू किया।
फिर पेचियाम्मल ने अपना नाम बदलकर मुथु कर लिया।
मीडिया को दिए इंटरव्यू में पेचियाम्मल ने बताया कि अपना नाम बदलने के बाद करीब 20 साल पहले वह कट्टुनायक्कनपट्टी गांव आकर बस गई। सिर्फ उनके करीबी रिश्तेदारों और बेटी को ही पता था कि वह एक औरत है। इस तरह 36 साल बीत गए। इसके बाद उन्होंने जहां भी काम किया, सब जगह उन्हें अन्नाची (पुरुषों के लिए संबोधन) कहकर बुलाया जाने लगा।
मुथु बनकर ही रहना चाहती हूँ
मुथु (पेचियाम्मल) ने बताया कि, ‘मैंने पेंटिंग करने, चाय बनाना, परांठा बनाना से लेकर 100 दिन मजदूरी करने जैसे कई तरीके के काम किए। इससे मिलने वाली पाई-पाई जोड़कर मैंने अपने और अपनी बेटी के लिए अच्छी जिंदगी बनाने की कोशिश की। कुछ समय बाद मुथु ही मेरी पहचान गई और आधार, वोटर आईडी और बैंक अकाउंट समेत मेरे सभी दस्तावेजों पर यही नाम लिखा है।’
पेचियाम्मल की बेटी शणमुगासुंदरी की अब शादी हो चुकी है और वह एक अच्छे परिवार है लेकिन पेचियाम्मल अब भी पुरुष के तौर पर ही जिंदगी जीना चाहती हैं।
उनका कहना है कि उनकी इस दूसरी पहचान ने उन्हें और उनकी बेटी को सुरक्षित रखा, इसलिए वे मरते दम तक मुथु ही बने रहना चाहती हैं।
सरकार से मांगी मदद
पेचियाम्मल अब मजदूरी करने में सक्षम नहीं हैं। उन्होंने एक साल पहले अपनी महिला पहचान पर मनरेगा जॉब कार्ड हासिल किया है। उनका कहना है कि मेरे पास न तो घर है और न कोई सेविंग। मैं विधवा सर्टिफिकेट के लिए भी अप्लाई नहीं कर सकती।
उन्होंने कहा कि मैं बूढ़ी हो गई हूं तो अब काम नहीं कर पाऊंगी। इसलिए सरकार से अपील है कि मुझे पैसों की सहायता करे। कलेक्टर डॉ के सेंथिल राज ने इस मामले में कहा है कि वे देखेंगे कि किसी सोशल वेलफेयर स्कीम के तहत पेचियाम्मल को कोई मदद की जा सकती है क्या।
एक महिला ने अपना पूरा जीवन पुरुषों की तरह गुज़ार दिया ताकि वह अपनी बेटी को सुरक्षा के साथ पाल सके। ताकि उसे अब और प्रताड़ना न सहना पड़े। ताकि उसे अकेला देखा समाज फिर कोई अपशब्दों के सवाल न बरसाये। क्या ये समाज अब भी कहेगा कि पितृसत्ता खत्म हो गयी है? महिलायें आज के समय में सुरक्षित है? अगर सच में ऐसा होता तो मुथु अब तक पुरुषों के वेश में अपना जीवन क्यों जी रहीं होती? वह आज भी क्यों पुरुषों के ही वेश में जीवन चाहती है? पुरुष होना क्यों सुरक्षा कवच है और महिला का भेष डर और असुरक्षा का भाव?
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