इस बार गणत्रंत दिवस की थीम “आम लोगों की भागीदारी” थी और इसके अंतर्गत इस बार बुलेवार्ड के नवीनीकरण में मदद करने वाले श्रमिकों, उनके परिवारों और रख-रखाव श्रमिकों को सबसे आगे बैठाया गया था।
कल 74वां गणतंत्र दिवस मनाया गया और भारतवासियों को एक बार फिर से संविधान के सुदृढ़ होने का विश्वास दिलाया गया। संविधान सबको एक बराबरी का अधिकार देता है लेकिन क्या सच में सबको एक बराबरी का दर्ज़ा मिल रहा है? इस बार गणत्रंत दिवस की थीम “आम लोगों की भागीदारी” थी और इसके अंतर्गत इस बार बुलेवार्ड के नवीनीकरण में मदद करने वाले श्रमिकों, उनके परिवारों और रख-रखाव श्रमिकों को सबसे आगे बैठाया गया था। अब सवाल यह है कि क्या सिर्फ यह एक बार कर देने से आम लोगों की भागीदारिता हो जाती है?
गणतंत्र दिवस की तैयारी में सफाई भी खूब ज़ोरो-शोरो से की गयी इतनी की कहीं धूल न दिखे। देश के प्रधानमंत्री तो जब से सत्ता में आये तब से स्वच्छ भारत मिशन का नारा देते दिखे पर इस दौरान कभी भी सफाई कर्मचारियों को आगे रखकर उनके बारे में नहीं पूछा गया। उनके बारे में बात नहीं की गयी। उनकी समस्याओं के बारे में नहीं जाना गया। स्वछता का नारा इन सफाई कर्मचारियों के नाम को दबाते हुए बखूबी से चलाया गया पर श्रेय के नाम पर उनका नाम कहीं नहीं था। क्या इसे ही बराबरी होना कहा जाता है?
छत्तीसगढ़ से खबर लहरिया की फेलो नीरा की रिपोर्ट के अनुसार, गणत्रंत दिवस से दो दिन पहले भिलाई के मज़दूर अपने कमाए हुए पैसों के भुगतान के लिए आंदोलन पर बैठे थे। इन मज़दूरों को तीन महीने से वेतन ही नहीं दिया गया था। यह लोग पिछले 10 दिनों से धरने पर बैठे हुए थे। ठेकेदार हर बार अगली तारीख देकर हड़ताल खत्म करवा देता था। आखिर में 25 जनवरी को जाकर सभी सफाईकर्मियों को लम्बी लड़ाई के बाद उनका पैसा मिला।
वेतन तो एक तरफ, सफाई के दौरान उन्हें सुरक्षा किट तक की सुविधा नहीं दी जाती। सैकड़ों सफाईकर्मी बिना कोई सुरक्षा किट के गट्टरों में घुसकर सफाई करते हैं और इसकी वजह से कई सफ़ाईकर्मियों को अपनी जान भी गवानी पड़ी है।
इस लेख में हम सफाई कर्मचारियों को होती अलग-अलग समस्याओं के बारे में बात करेंगे। इस संबंध में हमने भिलाई जिले नगर निगम के अंतर्गत कार्यरत महिला सफाई कर्मचारी पुष्पा बारले से बात की। वह पिछले 14-15 सालों से सफाई कर्मचारी के रूप में काम कर रही हैं। वर्तमान में वह भिलाई में स्थित सुभाषचन्द्र बोस सब्ज़ी मंडी में सफाई का काम करती हैं साथ ही जनवादी सफाई कामगार यूनियन की सक्रीय सदस्य भी हैं।
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जाति के नाम पर होता भेदभाव
पुष्पा बताती हैं, उनके साथ काम करने वाले अधिकतर सफाईकर्मी नीची माने जानी वाली जाति से हैं। काम के दौरान कई बार उन्हें जातिगत रूप में अपमानित किया जाता है। उनके साथ भेदभाव किया जाता है।
आगे कहा, जब वह किसी से पीने के लिए पानी मांगते हैं उस समय लोग पानी देने से भी कतराते हैं। अगर कोई देता है तो वह डिस्पोजल गिलास में, घर के बर्तन में नहीं। कोरोना के समय तो कह दिया जाता था, “हम नहीं देंगे पानी, तुम लोग गन्दा काम करते हो, तुमको कोरोना होगा और हमको भी हो जायेगा।“
पुष्पा के अनुसार, जिन जगह वह लोग काम करते हैं, अगर वहां वे लोग एक दिन भी काम न करे तो पूरी मंडी में गंदगी भर जाती है। जिस सफाई से व्यापारियों का धंधा सुचारु रूप से चल पाता है, उन लोगों के अंदर भी उनके प्रति संवेदनशीलता नहीं होती। वे लोग सब्ज़ियां फेंक देते हैं पर उन लोगों को नहीं देते।
सफाईकर्मी की मौत पर मुआवज़ा तक नहीं
पुष्पा बताती हैं, जब उन्होंने काम करना शुरू किया था तब उन्हें 62 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से रोज़ी मिलती थी। धीरे-धीरे 72 फिर 112 रूपये हुए। संगठन के साथ मिलकर उन्होंने खूब लड़ाई लड़ी तब जाकर उन्हें 337 रूपये रोज़ी मिलने लगी। इस तरह अगर वह महीने में हर दिन काम करते हैं तो आठ या साढ़े आठ हज़ार के करीब उनकी आय बनती है। पहले जब ठेकेदारों द्वारा पैसा दिया जाता था तो 3-4 हज़ार रूपये देकर सारा पैसा वह खुद अपने पास रख लेता था।
आगे बताया, जब गट्टर साफ़ करते हुए किसी सफाई कर्मचारी की मृत्यु हो जाती तो उनके परिवारों को मुआवज़ा तक नहीं दिया जाता था। उन्हें कई बार अपने साथियों की लाश को नगर निगम के सामने रखकर आंदोलन तक करना पड़ा पर कोई परिणाम नहीं निकला। इतना कुछ सहन करने के बाद भी ठेकेदार उनके साथ गाली-गलौच और मारपीट करता।
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कोरोना के समय सफाईकर्मियों की स्थिति
कोरोना के समय उन्हें ठेकेदारों के दबाव में दो शिफ्ट में काम करना पड़ रहा था। सुबह 7 बजे से 12, 12 से 1 बजे तक फिर वह घर आते थे। शाम को फिर 5 बजे वापस काम पर जाना पड़ता था और रात के लगभग 8 बजे तक काम करवाया जाता था। नगर निगम और ठेकेदार की तरफ से मास्क, सैनिटाइज़र आदि चीज़ें भी नहीं मिलती थी। बाद में बहुत लड़ाई के बाद कुछ जगह मिलना शुरू हुआ तो वो भी कभी-कभी। एक समय तो ऐसा आया कि पुरुष साथियों से बिना किसी सुरक्षा के कोरोना से मृत व्यक्तियों की लाशों को जलवाया जाने लगा। लाशों की संख्या इतनी ज़्यादा थी कि उनको दिन-रात छुट्टी तक नहीं मिलती थी। उन्हें घर तक नहीं जाने दिया जाता था।
नियमितिकरण की मांग
पुष्पा जैसे हजारों और मज़दूर जो दशकों से सफाई कामगार के रूप में काम कर रहे हैं वे अपनी तमाम तात्कालिक मांगो के साथ जिस बड़ी मांग को लेकर आंदोलनरत हैं वह है उनके नियमितीकरण का मांग।
सिर्फ भिलाई ही नहीं बल्कि पूरे छतीसगढ़ में पिछले 2 सालों से पूरे राज्य के सफाई कामगारों के नियमितीकरण का मुद्दा बहुत तेज़ी से उठता हुआ नज़र आया है। 27 नवम्बर 2022 को राजधानी रायपुर में एक विशाल धरना आयोजित किया गया था जिसमें छत्तीसगढ़ के लाखों सफाई कामगार नियमितीकरण की मांग को लेकर शामिल हुए थे। इस कार्यक्रम के बाद विपक्ष के नेताओं ने भी इसमें सहमती दी और कहा कि जब उनकी सरकार आएगी तब नियमितीकरण की मांग को ज़रूर से पूरा किया जायेगा जो वादा आज भी अधूरा है।
समय-समय पर सफाईकर्मचारियों द्वारा उनके अधिकारों,सुविधाओं व स्वास्थय सुविधाओं की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन किया जाता है। बड़े-बड़े नेताओं द्वारा बड़ी-बड़ी बातें होती हैं और अंत में जब किसी सफाईकर्मचारी की व्यवस्था में लापरवाही की वजह से मौत हो जाती है तो उन्हें मुआवज़ा तक नहीं मिलता। फिर बड़े नेताओं द्वारा कौन से अधिकारों की बात की जाती है? संविधान तो है पर क्या उसके द्वारा दिए गए अधिकार लोगों को मिल पाए हैं?
इस खबर की रिपोर्टिंग छत्तीसगढ़ से खबर लहरिया फेलो नीरा द्वारा की गयी है।
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