खबर लहरिया Blog 44 साल बाद, 1981 के जातीय हिंसा मामले में कथित उच्च जाति के लोगों को मिली दलितों की हत्या की सजा, पर क्या ये इंसाफ है? | Dehuli massacre

44 साल बाद, 1981 के जातीय हिंसा मामले में कथित उच्च जाति के लोगों को मिली दलितों की हत्या की सजा, पर क्या ये इंसाफ है? | Dehuli massacre

यूपी के देहुली गांव में हुआ हिंसा का मामला 18 नवंबर 1981 का है, जब 17 तथाकथित उच्च जाति के लोग पुलिस की वर्दी पहने देहुली गांव में घुसे और गांव वालों पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं। उस समय की पुलिस रिपोर्ट के अनुसार, यह हिंसा उस घटना के बाद हुई जब डाकुओं के गिरोह के एक दलित सदस्य की हत्या उसके ही साथी ने ने कर दी जो तथाकथित उच्च जाति से आता था। गिरोह के सदस्य फिर गांव वालों पर हमला करने गए। उन्हें शक था कि कुछ दलित गांव वाले हत्या के मामले में पुलिस को जानकारी दे रहे थे। 

"44 Years Later, Alleged Upper-Caste Men Sentenced for Dalit Murders in 1981 Dehuli Massacre – But Is This Justice?"

1981 के देहुली गांव जातीय हिंसा मामले में मंगलवार को तीन में से दो दोषियों को मैनपुरी जिले की विशेष अदालत में पेश किया गया ( फ़ोटो साभार – बीबीसी हिंदी)

यूपी के देहुली गांव में 1981 में हुई जातीय हिंसा के मामले में 24 दलित समुदाय के लोगों की कथित उच्च जाति के लोगों द्वारा हत्या की गई थी। भारतीय अदालत ने मामले में सजा सुनाते हुए तीन आरोपियों को फांसी की सजा दी है। लेकिन यह फैसला तब आया है, जब इस फैसले की कोई अहमियत नहीं है। तब आया है, जब दोषी हत्याएं करने के बाद पूर्ण रूप से अपना जीवन जी चुके हैं और वृद्धावस्था में अपनी आखिरी ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। 

यह अन्याय है उन सभी दलित लोगों के साथ जिनकी हत्या, जिनकी मौत का इंसाफ भी समय से नहीं दिया गया। जहां अधिकतर दोषी पहले ही अपना जीवन जीने के बाद मृत्यु की ओर चले गए। 

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, तीन दोषियों के नाम राम सेवक, कप्तान सिंह और रामपाल हैं। ये सभी दोषी 60 वर्ष से अधिक आयु के हैं और तथाकथित उच्च जाति से आते हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, सभी दोषी एक गिरोह का हिस्सा थे जिन्होंने उत्तर प्रदेश के देहुली गांव में महिलाओं और बच्चों सहित सबकी गोली मारकर हत्या कर दी थी। 

विशेष अदालत ने मंगलवार को कहा कि ये हत्याएं ‘सबसे दुर्लभ’ श्रेणी में आती हैं, जो भारत में फांसी की सजा को सही ठहरती है। 

अदालत ने यह भी कहा कि जो दोषी खुद को निर्दोष बताते हैं, वह इस सजा के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं। 

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13 दोषी जो सजा से बच गए 

हिंसा ग्रसितों के रिश्तेदारों ने सजा का स्वागत किया, लेकिन उनका यह भी कहना था कि यह फैसला पहले आना चाहिए था। 

“न्याय हमारे पास बहुत देरी से आया। आरोपियों ने अपनी ज़िंदगी जी ली,” संजय चौधरी ने कहा, जिनके भतीजे की गोली मारकर हत्या की गई थी। 

वहीं जिन 17 लोगों पर इस मामले का आरोप था, उनमें से 13 लोग 44 सालों में मर चुके हैं। फांसी की सजा पाने वाले तीन आरोपियों के आलावा, एक आरोपी अभी फरार है।  

1981 का जातीय हिंसा मामला 

यूपी के देहुली गांव में हुआ हिंसा का मामला 18 नवंबर 1981 का है, जब 17 तथाकथित उच्च जाति के लोग पुलिस की वर्दी पहने देहुली गांव में घुसे और गांव वालों पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं। 

उस समय की पुलिस रिपोर्ट के अनुसार, यह हिंसा उस घटना के बाद हुई जब डाकुओं के गिरोह के एक दलित सदस्य की हत्या उसके ही साथी ने कर दी जो तथाकथित उच्च जाति से आता था। गिरोह के सदस्य फिर गांव वालों पर हमला करने गए। उन्हें शक था कि कुछ दलित गांव वाले हत्या के मामले में पुलिस को जानकारी दे रहे थे। 

हिंसा से जीवित बचने वाले लोगों को वह दिन आज भी याद है। 

“मैं घर में काम कर रहा था, तभी अचानक गोलियां चलने लगीं,” राकेश कुमार बताते हैं जो उस समय किशोर थे और घटना के गवाह हैं। 

राकेश की मां चमेली देवी, जिन्हें हिंसा के दौरान अपनी जान बचाते समय पैर पर गोली लगी थी, कहती हैं, “उन्होंने किसी को भी नहीं छोड़ा, महिलाओं और बच्चों को भी नहीं। जो भी उन्हें मिला, उसे मार दिया।”

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, चार घंटो तक गोलियां चलती रहीं और हमलावर पुलिस के आने से पहले ही मौके से फरार हो गए। 

इस हिंसा के बाद से दलितों ने देहुली गांव से अपना पलायन शुरू कर दिया। स्थानीय प्रशासन द्वारा गांव में पुलिस भी भेजी गई, जो महीनों तक गांव में थी ताकि लोगों को भरोसा दिलाया जा सके। इस दौरान राजनीतिक हलचल के चलते उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी देहुली गांव का दौरा किया। 

1984 में यह मामला राज्य के उच्च न्यायालय के आदेश पर जिला अदालत से इलाहाबाद सत्र अदालत को स्थानांतरित कर दिया गया था। वहां पर भी यह मुकदमा समय-समय पर चलता रहा। साल 2024 में यह मामला मैनपुरी में भेजा गया, जहां आरोपियों को दोषी ठहराया गया। 

इंसाफ का लंबा इंतज़ार, खासकर पिछड़े तबकों से आने वाले लोगों के लिए सामान्य हो गया है, बना दिया गया है। वह इंसाफ जो सबकी पहुंच में होना चाहिए था सिर्फ उन लोगों तक सीमित हो गया है जो संसाधनों के पहुंच के घेरे में रहते हैं। 

 

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