भारत सरकार ने महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में आवंटन को बढ़ाया है। वर्ष 2016-17 में 38500 करोड़ का आवंटन हुआ था। इस पर वास्तविक व्यय 47000 करोड़ रुपये हुआ। इस साल इस योजना में आवंटन 48000 करोड़ रुपये रखा गया है।
लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और कहती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले एक साल में आठ राज्यों को सूखा घोषित किया है और 6,867 किसानों ने कृषि संकट के कारण आत्महत्या की. भारत का कृषि विकास घट रहा है जिसमें मौजूदा समय में 2.1% तक गिरावट आई है।
भारत की कृषि का 64% भाग वर्षा आधारित कृषि है और 85% भारतीय किसानों को छोटे या सीमांत रूप में वर्गीकृत किया जाता है, यानी वे 5 एकड़ से कम भूमि के मालिक हैं। ऐसी परिस्थितियों को देखते हुए मनरेगा जैसी योजनायें ग्रामीण भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गई हैं।
वहीं, बढ़ते धन आबंटन के साथ–साथ मजदूरों को दी जाने वाली मजदूरी कम होती जा रही है. 2012-13 और 2016-17 के बीच, मनरेगा के खर्च के प्रतिशत के रूप में लंबित भुगतान, 39% से बढ़कर 56% हो गया और प्रत्येक पांच वर्षों में खर्च आवंटन से अधिक हो गया है।
लेकिन यहाँ यह भी माना गया है कि जो धन मिला वह देरी से और अनियमिता के साथ मिला जिसकी वजह से भुगतान रुक गये।
आंकड़ों में देखें तो, 2016-17 में सभी मनरेगा वेतन भुगतान 56% तक रुका था, जो 2012-13 में 39% तक बढ़ गया। वहीं, वर्ष 2014-15 में सभी मजदूरी भुगतानों में 73% मजदूरी का भुगतान रुका हुआ पाया गया।
बैंक द्वारा मजदूरी का भुगतान करना तैयार है लेकिन बैंक खाते और आधार कार्ड न होने की वजह से मनरेगा भुगतान नहीं हो पाया है. आंकड़ों के अनुसार, ग्रामीण भारत में, 100,000 आबादी पर 7.8 बैंक शाखाएं हैं। जबकि शहरी भारत में प्रति 100,000 आबादी पर 18.7 की तुलना में शाखायें हैं।
हालांकि, सरकार ने कहा है कि हम मनरेगा को एक उत्पादक योजना बना रहे हैं। लेकिन आज भी स्थिति यह है कि 6000 करोड़ रुपये की मजदूरी का भुगतान समय पर नहीं हो रहा है और केंद्र–राज्य सरकारें जरूरत के मान से पैसा जारी नहीं करती हैं और मजदूरों के शोषण पर मौन रहती हैं।
फोटो और लेख साभार: इंडियास्पेंड