ज़मीन भले ही किसान की हो, लेकिन सरकार जब चाहे तब उसे ले सकती है। ज़मीन न बेचने का अधिकार ज़मीन मालिक के पास नहीं है। भूमि अधिग्रहण विधेयक के इस हिस्से को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ज़बरदस्ती जमीन पर कब्ज़ा करने का सरकार ने एक कानूनी तरीका निकाला। आगे और भी तानाशाह रवैया अपनाया गया है। अगर किसान मुआवज़ा नहीं लेगा तो ज़मीन तो चली ही जाएगी साथ ही यह रकम सरकारी खज़ाने में जमा हो जाएगी।
केंद्र सरकार कह रही है कि यह विधेयक अगर पास हो गया तो जनहित में होगा। किसानों की जमीन आम आदमी नहीं बल्कि उद्योगपति खरीदते हैं। वहां कंपनियां लगाते हैं। तो वह जन कोई और नहीं बल्कि उद्योगपति हैं। आगे विधेयक में दर्ज नियम और चैंकाने वाला है। अगर कोई उद्योग सरकार या फिर निजी कंपनी या फिर दोनों मिलकर लगाना चाहते हैं तो इसमें उस इलाके के जमीन मालिक को सहमत होना जरूरी नहीं है। उन्हें अपने खेतों का मोह छोड़ना पड़ेगा। यह ज़बरदस्ती नहीं तो और क्या है?
1894 में अंग्रेज़ सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक बनाया था। इसमें जब चाहे तब किसी की भी ज़मीन सरकारी ज़रूरत का नाम देकर ली जा सकती थी। आज़ादी के करीब एक सौ दस साल बाद 2014 में कांग्रेस की सरकार एक विधेयक लेकर आई थी जिससे कुछ उम्मीद जगी थी। विधेयक में किसी भी क्षेत्र की ज़मीन पर उद्योग लगाने के लिए वहां की अस्सी फीसदी आबादी से सहमति लेने का नियम था। किसानों की मांग थी कि इसे सौ प्रतिशत किया जाए। लेकिन नए विधेयक के प्रस्ताव में तो किसानों की सहमति के लिए कोई जगह ही नहीं है। क्या हम एक सदी से भी ज़्यादा पीछे जाने की तैयारी में हैं?