पिछले 10 दिन में होने वाली घटनाओं ने हमारे अखबारों, टीवियों और चाय पे चर्चाओं में जगह बना रखी है। ये मुश्किल है कि इस देश के किसी नागरिक ने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, पटियाला हाउस कोर्ट या जंतर मंतर में जो हुआ उसके बारे में बात न की हो, सुना न हो या पड़ा न हो।
एक हफ्ते पहले ये देश के जाने माने विश्वविद्यालय में सिर्फ एक छात्र प्रदर्शन था। आज हम चैराहे पर खड़े हैं। क्या हम ऐसा लोकतंत्र बनना चाहते हैं जो विरोध को कुचल देता है? क्या हम जाति, भेदभाव, पृथकतावादी आन्दोलनों और राज्य के अतिक्रमण पर चुप रहना चाहते हैं? क्या हम ऐसी पुलिस चाहते हैं जो चीज़ों को देख कर अनदेखा कर दे? क्या हमे ऐसे प्रस्तुतकर्ताओं में विश्वास रखना चाहिए जो तथ्यों को उलट देते हैं? क्या हम ऐसी देशभक्ति चाहते हैं जो दुसरों से नफरत करने को कहती है?
बृहस्पतिवार को हज़ारों छात्र-छात्राओं, एक्टिविस्ट और नागरिकों ने दिल्ली में सरकार के खिलाफ जेएनयू में इसकी कार्यवाही को लेकर मार्च किया। जेएनयू विश्वविद्यालय ध्रुवीकरण, भेदभाव और विरोध को दबाने की भाजपा की नीतियों को लेकर हमारी बेचैनी का प्रतीक बन गया। आप, प्रिय पाठक, हो सकता है दिल्ली में जमा हुई इस भीड़ को ‘‘देशद्रोही, धर्मनिरपेक्ष, लिबरल, वामपंथी, या कांग्रेसी’’ कहकर टाल देना चाहें। मगर यही लोग हैं, चाहे इनका राजनीतिक और धार्मिक जुड़ाव कुछ भी हो, जो सरकार के लड़खड़ाने पर सड़कों पर उतरते हैं। चाहे वह भूमि अधिग्रहण, बलात्कार, या पुलिस अत्याचार का मामला हो।
हमारे सामने असामान्य समय है। हमें याद रखना चाहिए कि हमने लोकतंत्र के लिए लड़ाई की थी। हमें याद रखना चाहिए कि राज्य हमेशा सही नहीं होता हमें इसके निर्णय पर सवाल उठाने का हक है। हमें सवाल उठाना चाहिए कि कौन हमारा धर्म परिभाषित करता है, हम क्या खाते हैं, क्या पहनते हैं और किसे प्यार करते हैं? हमें याद रखना चाहिए कि सरकार को हमारे प्रति जवाबदेह रहना है।
हमारी देशभक्ति कन्हैया कुमार की देशभक्ति जैसे होने चाहिए, जो सिर्फ संविधान को मानता है।
हमारे सामने असाधारण समय है
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