उसका जवाब अब भी मेरे कानों में गूंज रहा है, ‘‘भैया, सावन के महीने में एक पाव दाल लाए थे’’। मैंने उससे पूछा था कि कब आखिरी बार उसने अपने परिवार के लिए दाल बनाई थी। ये मध्य प्रदेश में टीकमगढ़ जि़ले में मस्तपुर गांव था। मैं जहां-जहां गया ये सवाल सभी औरतों से पूछा। ज़्यादातर वे चुप रहतीं और फिर मुस्कुरा देतीं। मगर किसी ने भी ये नहीं बोला कि उसका परिवार रोज़ दाल खाता है।
मैं स्वराज अभियान के अपने सहकर्मियों के साथ सूखे से ग्रसित बुंदेलखंड के कई गांवों से गुज़र रहा था और उसके कदमों की आहट सुनने की कोशिश कर रहा था। ये पिछले तीन महीनों में हमारा तीसरा चक्कर था। ये सिर्फ सूखा नहीं था, ये लगातार तीसरी बार था जब फसल नष्ट हुई थी।
बुंदेलखंड में भी है सम-विषम योजनाः विषम दिन खाना मिलेगा, सम दिन में नहीं
मध्यप्रदेश के छत्तरपुर और टीकमगढ़ और उत्तरप्रदेश के हमीरपुर और महोबा जैसे जि़लों में किसानों ने भूमि को बिना बोए ही छोड़ दिया है। सैकड़ों गाय-बैल मैदानों में घास की तलाश में भटकते दिखाई देते हैं। हर गांव में पहली चीज़ एक हैण्डपम्प दिखाई देता है और उसके सामने बर्तनों की पंक्ति। गांववाले आपको सूखे और सूख रहे कुओं तक ले जाते हैं। बुंदेलखंड के तालाब एक-एक करके सूख रहे हैं। गांव में कई बंद घर नज़र आते हैं। लोग इंदौर, सूरत, और दिल्ली गए हैं।
और राज्य का क्या है? ऐसा नहीं कि वे नहीं जानते कि क्या करना है। ब्रिटिश राज के समय से हरेक राज्य के पास सूखे के लिए संहिता है। 2009 से सरकार के पास अकाल प्रबंधन का मैनुअल है। फिर भी किसी भी तरह की तैयारी के कम ही निशान मिलते हैं कार्यवाही तो दूर की बात है।
हम दिल्ली वापस आ गए। नल में पानी आ रहा है। खाने से भरी थाली निर्लज्ज लगती है। हम मौसम पर चर्चा कर रहे हैं, शायद सम-विषम योजना को प्रभावित करे। मेरा दिमाग बुंदेलखंड में एक दूसरी सम-विषम योजना पर टिका है। विषम दिन में आपको खाने को मिलेगा, सम दिन में नहीं।
योगेन्द्र यादव। ये आउटलुक पत्रिका में छपी खबर का एक छोटा अंश है।