मुज़फ्फरनगर दंगों का सामना करने वाले लोग चार महीनों से कैंपों में रह रहे हैं। प्रशासन इन्हें वापस गांव भेजना चाहती है। लेकिन लोग जाना नहीं चाहते। कुछ लोगों को मुआवज़ा मिल गया है, लेकिन ज्यादातर को नहीं मिला। मुज़फ्फरनगर के लोई और जौला कैंपों को उखाड़ना भी शुरू कर दिया गया है। शाहपुर कैंप से भी लोगों को हटने का आदेश दिया जा चुका है। अधिकारियों के अनुसार कई लोग केवल मुआवजे़ का लाभ उठाने के लिए कैंपों में रह रहे हैं। ये दंगों का सामना करने वाले लोग नहीं हैं। इन्हें गांव लौट जाना चाहिए। लोग कड़ाके की सर्दी को बर्दाश्त करने को तैयार हैं पर गांव जाने को नहीं। आखिर ऐसा क्यों है?
कुटबा गांव की रहने वाली 15-16 साल की शकीला की शादी 18 अगस्त को हुई थी। दंगे में पति मारा गया। उसका कहना है – मर जाऊंगी पर गांव नहीं जाऊंगी। कैंप में रह रही दिलशान ने 2 जनवरी, 2014 को बच्चे को जन्म दिया। तंबू के नीचे एक रजाई ओढ़े दिलशान भी घर जाना नहीं चाहतीं। उन्हें ये चिंता है कि इतनी ठंड में उनका बच्चा कैसे बचेगा, पर उनका कहना है – भले पूरी जिंदगी कैंपों में कट जाए पर गांव नहीं जाऊंगी। क्या ऐसे में लोगों को गांव भेजने का प्रशासनिक दबाव जायज है? उधर जिन लोगों को मुआवजा मिला है वो हड़बड़ी में जमीन खरीद रहे हैं। मौके का फायदा उठाकर महंगे दामों में जमीन बिक रही हैं। लोग जल्दी अपने घर बनाना चाहते हैं। इस चक्कर में वो जैसे भी हा,े जितने की भी हो, जमीन खरीदना चाहते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि मुआवजे की रकम देने भर से क्या सरकार की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है?
सरकार का दबाव बढ़ा पर गांव जाने को तैयार नहीं लोग
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