कोयले का काम करें और हाथ भी काले न हों – ऐसा नहीं हो सकता। देश के सबसे बड़े कोयला घोटाले की कालिख अब कई राजनेताओं और उद्योगपतियों पर लग चुकी है। 1993-2010 तक दिए गए कोयला खादानों के 214 लाइसेंस रद्द हो गए हैं। ऐसा क्यों हुआ?
1973 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कोयले जैसी कीमती खदानों को सरकारी घोषित कर दिया था। उनका मानना था कि निजी कंपनियां कोयले जैसी कीमती संपदा का इस्तेमाल जनता के हित को अनदेखी कर मुनाफे के लिए करेंगी। लेकिन 9 जून 1973 में इन खदानों को निजी कंपनियों को देने के लिए एक नया कानून बना। इसमें कहा गया कि खदानें दूर दराज़ के इलाके में हैं, ऐसे में सरकार के लिए इसमें खुदाई करवाना महंगा साबित होगा। इसलिए निजी कंपनियों को इन्हें दे देना चाहिए। खदानें ऐसी कंपनियों को दी जाएं जो बिजली, स्टील और सीमेंट जैसे उद्योग में लगी हों।
रातों रात कंपनियों को खदानों के सरकारी लाइसेंस दे दिए गए। पर खदानें खरीदने के लिए इतनी रकम कंपनियां लाईं कहां से? यहीं से शुरू हुआ घोटाला। कंपनियों ने पहले खदानें खरीदीं, फिर बैंकों को पैसे चुकाए। सवाल उठता है कि कुछ खरीदने से पहले आप कीमत चुकाएंगे या बाद में? दूसरा, इनमें से अधिकतर खदानों में काम शुरू ही नहीं किया गया। कंपनियों ने इन खदानों के बदले बैंकों से कर्ज़ लेकर दूसरे उद्योगों में लगाया और जमकर मुनाफा कमाया। मतलब सरकार ने जिस तर्क के साथ खदानें दी थीं कि बिजली और कोयले का उत्पादन बढ़ेगा, ऐसा कुछ नहीं हुआ। देश को इस पूरे कोयला घोटाले में लगभग द® लाख कर®ड़ रुपए का नुकसान हुआ है।
सरकार और उद्योगपतियों की सांठ गांठ से हुआ घोटाला
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